शनिवार, 23 मार्च 2019

जस का फूल

जस का फूल

अमूमन होता यूँ है और होना भी यही चाहिए कि किसी लेखक से उसकी रचनाओं के जरिये जान-पहचान हो। भालचन्द्र जोशी जी इस परम्परा के अपवाद रहे। उनका नाम जेहन में पहली बार तब दर्ज़ हुआ जब दिल्ली की एक पत्रिका दो लेखक मित्रों के बीच हुए एक मामूली से विवाद पर चटखारे लेते हुए कभी इनके तो कभी उनके वक्तव्य प्रकाशित कर विवाद प्रेमी पाठकों को आनंद प्रदान करने में जी जान से जुटी थी।
इस प्रकरण का हानिकारक पक्ष ये रहा कि बिना पढ़े ही दोनों के अच्छे लेखक 'न होने' का पूर्वाग्रह जम गया मन में।

'सामयिक सरस्वती' पत्रिका में प्रकाशित भालचन्द्र जोशी जी की कहानी 'तितली धूप' न पढ़ता तो पूर्वाग्रह का ये दौर जाने कितना लम्बा खिंचता। भला हो उस प्यारी सी कहानी का जिसनें हमारे समय के एक बड़े कहानीकार से परिचय और मित्रता के झरोखे खोले। इस समय तक जोशी जी बड़े लेखकों की ऐसी सूची में शामिल थे जिनके बॉयोडाटा में बहुचर्चित कहानी संग्रह तो कई थे, किन्तु प्रकाशित उपन्यास एक भी नहीं। दो उपन्यास पूरे होकर प्रकाशनाधीन थे। बाजी मारी दूसरे उपन्यास ने, जो अपनी तेज गति के कारण 2018 के पुस्तक मेले के समय "प्रार्थना में पहाड़" का रूप धर हमारे बीच कूद पड़ा। इधर पहला भी लाइन में था। अब ताबड़तोड़ उसका आगमन उचित नहीं था। सो, दो जुड़वा बच्चों की असुविधा से बचने के लिए पहले बच्चे से अनुरोध किया गया कि " भई, तू थोड़े दिन और आराम कर ले।"

इस तरह ये पहला उपन्यास लिखे जाने के कई बरस बाद दूसरे नम्बर पर इसी जनवरी में 'जस का फूल' बनकर अवतरित हो सका।
उपन्यास का आवरण सुन्दर और कलात्मक है। यहीं पर किताब का परिचय देती हुई एक पंक्ति लिखी हुई है - "बेरोज़गारी से मुठभेड़ के दौर में हिन्दू लड़के और मुस्लिम लड़की के अबोध प्रेम की यात्रा "

प्रेम यक़ीनन इस उपन्यास का आधार बिंदु है किन्तु यह उपन्यास महज़ एक प्रेम कहानी भर हरगिज़ नहीं है। 'जस का फूल' हिंदुस्तान की कस्बाई तहज़ीब के विविध रंगों का शानदार मुजाहिरा प्रस्तुत करने के साथ ही लगभग दो दशकों के सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों का मार्मिक दस्तावेज़ बनकर उभरता है।
नायक हिन्दू है, नायिका मुस्लिम किन्तु यश चोपड़ा टाइप फ़िल्मों के दीवाने दोस्त नायक का नाम रखते हैं शाहरुख और नायिका का काजोल। नायक के सारे मित्र उसकी तरह पढ़ाई, लिखाई और नौकरी से रहित। इनके जीवन में अभाव जितने ज़्यादा हैं, उतनी ही मासूमियत, इनोसेंस। सारी दुनिया को अपने ठेंगे पर रखने का दम भरने वाले इन युवाओं पर अशिक्षित और असभ्य होने का तमगा भले लगा हो, ये मानवीयता और वास्तविकता के नितान्त क़रीब हैं।

उपन्यास में वैसी गालियां नहीं हैं जैसी राही मासूम रज़ा और काशीनाथ सिंह के उपन्यासों में मिली थीं किन्तु अनपढ़ और बेरोजगार पात्रों के अनुरूप माहौल गढ़ने में जोशी जी ने भाषायी छूट  का लाभ खूब लिया है।

बीच बीच में उनकी सूक्तियाँ भी ध्यान आकर्षित करती रहती हैं--"बेटी बाप के लिए कभी जवान नहीं होती और माँ के लिए तो वह पालने में से ही चिन्ता का कारण बन जाती है।"

" नास्तिक लोग नहीं जानते कि आस्तिक के पास ईश्वर के रूप में कितना बड़ा सहारा होता है।"

नायक और उसके तमाम बेरोजगार दोस्तों की ठिलवई, उनके जीवन संघर्ष, पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों, नायक के पिता और नायिका की माँ के अतीत से जुड़ी स्मृतियों की यात्रा करते हुए लगभग दो तिहाई कथानक कब पूरा हो जाता है, पता ही नहीं चलता। नायक के पिता, जो ब्राह्मणत्व की पुरातन परम्परा के जीवित उदाहरण हैं, के युवावस्था और वैवाहिक प्रसंगों को साझा करते हुए जोशी जी की भाषा कथ्यानुरूप इतनी परिष्कृत और तत्सम हो जाती है कि इस अंश को पढ़ते समय श्रीनरेश मेहता के अद्भुत एवं महाकाव्यात्मक उपन्यास "उत्तर कथा" की याद बरबस आ जाती है।

प्रेम कथा और हल्के फुल्के हास्य प्रसंगों की उपस्थिति के बावजूद मुख्य कथा में कहीं कोई हल्कापन नहीं! नायिका काजोल की कुल दो या तीन मुलाक़ातें शाहरुख से होती हैं किन्तु कहीं कोई विचलन नहीं, और न ही किसी तरह का रोना धोना। शर्म, झिझक और एकान्त के नितान्त अभाव के मध्य दोनों के वार्तालाप सरस, सटीक, अर्थपूर्ण और इतने प्रेरक कि आगे चलकर शाहरुख का पूरी तरह कायापलट हो जाता है।
अंतिम मुलाकात के दौरान थोड़ी सी शारीरिक निकटता, अंखियों के झरोखों से के अन्तिम दृश्य की याद दिलाती हुई। काजोल द्वारा सोच समझकर निश्चित किये गए निकटता के इन क्षणों में पिछले दिनों अनुराधा गुप्ता द्वारा लिए गए उस साक्षात्कार की याद ताजा हो उठती है जहाँ भालचन्द्र जोशी ने कहा था-- " इस उम्र में भी प्रेम कहानियाँ लिखना मेरे लिए उतना ही सहज और सामान्य है जितना बीस साल पहले था..।"

"दोनों इतने क़रीब थे कि दोनों के बीच अँधेरे की हल्की सी परत भी न थी। आसक्ति की आभा की एक कौंध थी जो धड़कनों पर सवार होकर एक दूसरे के दिलों में दाख़िल हो रही थी। अपने मौन में , एक दूसरे की पीठ पर किसी अजान लिपि में कोई ऐसा वाक्य लिख रहे थे, जिसे दोनों पढ़ नहीं सकते थे, लेकिन समझ रहे थे। प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए देह भी एक बड़ा माध्यम है।"

काजोल घर लौटती है तो वर्तमान को भाँप चुके उसके अम्मी अब्बू उसी का इंतज़ार करते मिलते हैं। नई हिन्दी लिखने वाले किसी तथाकथित क्रांतिकारी लेखक की किताब में यही प्रसंग आया होता तो बदतमीज़ी और बेवकूफ़ी की हद पार कर जाता वह। इस नाजुक प्रसंग को कितनी खूबसूरती और गरिमा से निबाहा गया है, उसकी एक छोटी सी बानगी---

"दुःख दोनों तरफ़ है अम्मी। उस लड़के की बहन मीरा उसी दंगे में गायब हुई थी। उसके घर के लोग उसके मरने की बात सोचकर रोज मातम मनाते हैं और ज़िन्दा होने की उम्मीद पर रोज दिया जलाते हैं।
इश्क़ में पल का फ़ैसला होता है। कुछ सोचने का मौका नहीं मिलता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मैंने आपको अपने माँ बाप होने के हक़ से महरूम कर दिया है। फ़ैसला आख़िरकार आपको ही लेना है जो मुझे बिना सुने मंजूर है।"

यहीं पर उपन्यास में एक ऐसा अनपेक्षित मोड़ आता है जहाँ से ये कहानी अलग दिशा में मुड़ जाती है। इसी क्रम में आये डॉ. करुणा शास्त्री के महत्वपूर्ण और संवेदनशील किरदार को जल्दी भुला पाना कठिन होगा।
लगभग दस वर्ष का लम्बा अंतराल पार करते हुए जब शाहरुख घर लौटता है तो उसके पाँव जैसे किसी अगले युग में पड़ते हैं। उत्तरार्द्ध का यह अंश बेहद प्रभावशाली और उतना ही रोचक है। इस दौरान भूमंडलीकरण की चपेट में आये कस्बों, मुहल्लों और सामाजिक विसंगतियों के अनेकों दिल दहला देने वाले चित्र सामने आते हैं।
परिवर्तन की रेखाएँ चारों तरफ़ इतनी घनी हैं कि बहुत सालों बाद घर लौटे शाहरुख को अपने ही मुहल्ले को पहचानना कठिन लगता है। माँ अरसा पहले गुज़र चुकी हैं। छोटा भाई पिता को छोड़कर अलग रहने लगा है और पिता ये मोहल्ला छोड़कर नई बस्ती में अकेले रह रहे हैं। वहाँ पहुँचकर शाहरुख पाता है कि कपड़ों और बिस्तर से ज़्यादा फटेहाल स्थिति में घर है। पिता को देखकर सोचता है-- " ये दो कमाऊ लड़कों के बाप हैं।" और ख़ुद को धिक्कारता है। उसकी यह समझ और संवेदना पिता के भविष्य के प्रति पाठक को आश्वस्त करती है।
अब उसके सामने अपने पुराने शहर और पुराने दोस्तों का आकर्षण है, पिता के अकेलेपन की चिंता है और इन्हीं तमाम चिंताओं के बरक्स बरसों की मेहनत से हासिल किये गए अपने वर्तमान का आकर्षण भी है। शाहरुख के सामने असमंजस बहुत बड़ा है। पाठक के मन में ये उत्सुकता लगातार बनी रहती है कि उसका अगला क़दम क्या होगा।

उपन्यास का अंत बेहद खूबसूरत और यादगार है। किसी प्रेम कहानी का ऐसा सकारात्मक और कसक छोड़ने वाला अंत इससे पहले ज्ञानप्रकाश विवेक जी के उपन्यासों में ही पढ़ा था।

एक अजीब सी होड़ शुरू हो चुकी थी। हर माँ-बाप अपने बच्चों को सिर्फ़ इंजीनियर या डॉक्टर बनाना चाहता था। महत्वाकांक्षा का बोझ बच्चों की पीठ टँगे बस्ते का बोझ बढ़ा रहा था। माँ-बाप नहीं समझ रहे थे कि वे बेहद क्रूर हो चुके हैं और उनकी क्रूरता का शिकार बच्चे हो रहे हैं। जाने कैसे ये षड्यंत्रकारी अफ़वाह जड़ पकड़ती गयी कि आगे बढ़ने के लिए हिन्दी या अपनी मातृभाषा छोड़कर सिर्फ़ अंग्रेजी माध्यम में पढ़ना होगा। अंग्रेजी के लिए ऐसी होड़, ऐसी आसक्ति थी कि जाने-अनजाने उसने हिन्दी के प्रति गहरी अवहेलना लगभग घृणा की हद तक पैदा कर दी। शासकीय स्कूलों से लोगों का मोहभंग हो गया। किसने सोचा था कि शासकीय स्कूलों का इतनी जल्दी इतना बुरा अंजाम होगा। शिक्षा में एक नयी अर्थव्यवस्था दाख़िल हुई और ये स्कूल सिर्फ़ गरीब लोगों के कमजोर बच्चों की शरणस्थली के रूप में बदनाम होकर रह गए।

आदमी सोचता है कि वह समय को बदल देगा लेकिन समय कब चुपचाप आदमी को बदलता चलता है, उसे पता ही नहीं चलता।

जो लक्ष्मी के आगमन के उत्साह और सत्कार में व्यस्त हो जाते हैं फिर दूसरी चीजों से उनका ध्यान हट जाता है। फिर पैसा अपने साथ नयी अनचाही ज़रूरतें और इच्छाएँ लेकर आता है।

कहते हैं आती हुई लक्ष्मी अपने आने के साथ जाने का रास्ता खोजकर लाती है।

ऐसा नहीं था कि करुणा को पैसे और उससे हासिल सुख सुविधाओं से एतराज था, लेकिन उसे पैसे की ऐसी आवक से एतराज था जो सुख को तिलांजलि देकर हासिल हो। पैसे की कीमत पर सुख मिले तो कोई बुरी बात नहीं, लेकिन सुख की कीमत पर पैसा किस काम का?

पुरुष को क्षमा करने के लिए स्त्री के मन में हमेशा से एक सन्देह-कोना होता है जब वह सन्देह का लाभ देकर पुरुष को क्षमा करती है।
जिसके साथ छल होता है, रुलाई उसी के हिस्से आती है, जबकि ये होना नहीं चाहिए।
कोई दूसरा हो तो ख़ुद को वही काम करने की छूट नहीं मिल जाती।
अमीरी दुःख दूर करने का साधन आज भी नहीं बन पाई है।

किसी के मर जाने का दुःख धीरे धीरे कम कम होता जाता है, लेकिन कोई जीते जी मर रहा है-- यह दुःख हर दिन सालता है। उसने तय किया कि वह घर पर किसी को नहीं बताएगा और सभी के हिस्से का दुःख अकेला उठाएगा।

बरसों छोड़े गए कस्बे और शहर की याद आयी तो मन में एक हूक सी उठी। उसने सोचा यदि उसके पास दुःख की पूँजी है तो स्मृतियों का अकूत भंडार भी।

© गंगा शरण सिंह

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