इन्तज़ार करना भी एक कला है। कुछ लोग ऐसे इत्मीनान से इंतज़ार करते हैं जैसे इंतज़ार करना ज़िन्दगी की नज़्म हो और वो उसे धीरे धीरे पढ़ रहे हों।
ज़रा ग़ौर से देखें तो सारी कायनात सफ़र में दिखाई देती है। पृथ्वी, हवाएँ, दरख़्तों से टूटते पत्ते और दरियाओं का पानी सफ़र में। कश्तियाँ सफ़र में और उड़ती हुई रेत भी सफ़र में। सफ़र में कोई शानदार मोतबर शख़्स हमसफ़र बन जाए तो यात्रा बेमिसाल हो जाती है। शायद इसीलिए जब हवाएँ अकेली होती हैं तो वो दरख़्तों से टूटे पत्तों की उंगली पकड़ लेती हैं।
माँ हमारी ऐसी पाठशाला होती है जिसमें हम अख़लाक़, अमन और मोहब्बत करने के सबक सीखते हैं।
हम जब भी कहीं से उठकर चलते हैं, मुड़कर देखते हैं कि कहीं कुछ रह तो नहीं गया। सामान नहीं रहता। सामान उठा लेते हैं हम लेकिन अपने आप को पूरी तरह नहीं उठा पाते। हम जहाँ से भी उठकर आते हैं, अपने आप को थोड़ा सा छोड़कर चले आते हैं। और एक दिन... अपने आप को पूरी तरह रखकर चले जाते हैं।
बेघर परिन्दे उन इंसानों से ज़्यादा ख़ुश नज़र आते हैं जिनके पास अपने मुक़म्मल घर होते हैं।
प्लेटफॉर्म टिकट का ख़्याल है बड़ा ख़ूबसूरत! जिसे कहीं नहीं जाना, उसकी जेब में भी टिकट। प्लेटफार्म टिकट।
जहाँ मुहब्बत होती है वहाँ अहंकार नहीं होता। एक जेब में अहंकार और दूसरी जेब में मुहब्बत रखकर चलना- यह पाखंड नहीं चलता।
यह समय एस.एम.एस समय है। मुगल पीरियड, मौर्य पीरियड और अब एस.एम.एस पीरियड। एस एम एस भेजता हुआ शख़्स मॉडर्न नज़र आता है। चिट्ठी लिखता हुआ बंदा पौराणिक काल का । जो लोग ख़त लिखने की कला को अल्फ़ाज़ का जश्न मानते थे, वो लोग अपने वक़्तों के साथ और अपने ज़र्द ख़तूत के साथ महाप्रस्थान कर गए।
सारे प्लेटफ़ार्म टूट जाएँ पर मानवता का प्लेटफ़ार्म तो बचा ही रहता है।
तभी तो तमाम हिंसाओं और हजारों युद्धों के बावजूद सभ्यता बची हुई है और लोग भी। संवेदना कभी ख़त्म नहीं होगी क्योंकि मनुष्य ख़त्म नहीं होंगे।
You need power only when you want to do some harmful, otherwise, love is enough to get everything in...
Charlie Chaplin
भगवान मँहगी घड़ी सबको दें किन्तु मुश्किल घड़ी किसी को न दें।
ज़िंदगी में हम रास्ता बनाने और रास्ता देने का सोचें, रास्ता छीनने का नहीं।
कई बार सादगी ज्ञान पर भारी पड़ जाती है क्योंकि ज्ञान के पसेमंज़र ही अहंकार भी खड़ा होता है।
मुझे तो दुनिया की सबसे अभिशप्त कोई चीज़ अगर लगती है तो वो स्टेशन का आउटर सिग्नल है। तमाम उम्र अकेला, बेहद अकेला। साधारण लोग भी इसी की तरह होते हैं। ज़िन्दगी का स्टेशन उन्हें आउटर सिग्नल समझता है। समाज अब ताक़तवर लोगों के पास चला गया है। उनके पॉवर स्ट्रक्चर में हमारी औक़ात किसी विस्थापित आउटर सिग्नल जैसी ही है।
हम संसार में रहें, संसार हममें न रहे।
हमारा सबसे ज़्यादा मख़ौल वक़्त उड़ाता है। वो हमें किसी शैतान बच्चे की तरह पढ़कर चला जाता है और हम ज़िन्दगी के बस्ते में फटे हुए कायदे, उधड़ी हुई जिल्द वाली किताबों की तरह पड़े रह जाते हैं।
बंधन और गुलामी के हजारों नाम हैं। आजादी का कोई नाम नहीं। स्वतंत्रता का एक ही प्रकार होता है जैसे सच्चाई का। मुखौटे तो झूठ के होते हैं।
हमारे नए समय में विकृति भी संस्कृति का चेहरा लगाकर आ खड़ी होती है।
बाजार जब हमारे लिए चिन्तित नज़र आये तो समझ लीजिए कि वो कोई नया उत्पाद लेकर आया है।
अकेलापन और एकान्त दो अवस्थाएँ होती हैं। अकेलेपन में हमें किसी दूसरे की ज़रूरत पड़ती है, एकांत में नहीं। चुप रहना हमें शब्दों के अपव्यय से बचाता है। चुप रहते हुए हम मन की प्रार्थनाओं के क़रीब होते हैं।
परिन्दे जब उड़ते हैं तो पर फड़फड़ाते हैं। लेकिन बाज़ बेआवाज़ उड़ता है। उसका अकेलापन उसकी शक्ति बन जाता है।
हेकड़ी और विनम्रता में इतना फ़र्क़ है कि विनम्रता ज़िन्दगी का एक पाठ है और हेकड़ी की औक़ात मूँगफली के छिलके जितनी।
मैं बहुत सारी चीजों से प्रेम करता हूँ। धूप, हवा, छाँव, सितारे, आकाश, बारिश... अपनी फटी हुई छतरी और घिसी हुई पतलूनों से भी प्रेम करता हूँ। उन्होंने बहुत अरसे तक मेरा साथ निभाया है। पेन का ख़ाली रिफिल फेंकते हुए उसे अलविदा कहता हूँ। पुराने कैलेंडरों को दीवार से हटाते वक़्त एहसास होता है कि इस काग़ज़ के कैलेंडर में मेरा जीता जागता वक़्त भी था और मैं उन्हें किताबों के शेल्फ़ में सजा लेता हूँ।
हवा, धूप, आसमान, पेड़, पहाड़, नदियाँ और समन्दर हमारे दोस्त थे। हमने इनसे दोस्ती नहीं की, इनका इस्तेमाल किया। इस्तेमाल होने वाला कभी छोटा नहीं होता। इस्तेमाल करने वाले ज़रूर मामूली होकर रह जाते हैं। किसी को कुछ देना.. अपने आप में शानदार अभिव्यक्ति है। सूरज, चाँद, बादल, आकाश, धूप, समन्दर, हवा, वृक्ष, पृथ्वी ये सब हमें कुछ न कुछ देते हैं और तभी ये बड़े हैं क्योंकि देने वाला कभी छोटा नहीं होता।
लोगों की चालाकियों, फ़रेब, भ्रष्टाचार, यौनाचार, सबसे भगवान वैसे भी दुखी रहते हैं। कितना शोर है इस पृथ्वी पर। भक्तगण अब तक नहीं समझ पाए कि ईश्वर अमन पसन्द हैं। ये इतना शोर मचाते हैं कि भगवान जी के कान फट जाएँ।
हम बिछड़ते वक़्त जब हाथ मिला रहे होते हैं,ऐन उस वक़्त दिल अपने किसी कोने में उदासी के लिए जगह बना रहा होता है।
जब हम बिछड़ते हैं, बाहर का मौसम कमोवेश वही रहता है लेकिन दिल का मौसम बदल जाता है।
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब ज्ञानप्रकाश विवेक साहब🙏🙏 दिल्ली प्रवास में कई दिनों तक आप का सुखद और अविस्मरणीय साथ रहा और पिछले पंद्रह दिन आपके लफ़्ज़ों की रौशन दुनिया मेरे साथ सफर करती रही। आपकी किताब के किरदारों, शब्दों और संवेदनाओं की इस दुनिया में जीते हुए ग़ालिब का शेर बारहा याद आता रहा--
बाज़ीचए अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शबो रोज़ तमाशा मेरे आगे
आपकी इस बात पर तो सौ सौ सलाम!! कि--
"ज़र्रों में आफ़ताब की तलाश ज़िन्दगी का दूसरा नाम है...."
● Gyan Parkash Vivek
◆ नई दिल्ली एक्सप्रेस
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