1)
तब तक इजिप्ट के पिरामिड नहीं बने थे
जब दुनिया में
पहले प्यार का जन्म हुआ
तब तक आत्मा की खोज भी नहीं हुई थी,
शरीर ही सब कुछ था
काफ़ी बाद विचारों का जन्म हुआ
मनुष्य के मष्तिष्क से
अनुभवों से उत्पन्न हुई स्मृतियाँ
और जन्म-जन्मांतर तक
खिंचती चली गईं
माना गया कि आत्मा का वैभव
वह जीवन है जो कभी नहीं मरता
प्यार ने
शरीर में छिपी इसी आत्मा के
उजास को जीना चाहा
एक आदिम देह में
लौटती रहती है वह अमर इच्छा
रोज़ अँधेरा होते ही
डूब जाती है वह
अँधेरे के प्रलय में
और हर सुबह निकलती है
एक ताज़ी वैदिक भोर की तरह
पार करती है
सदियों के अन्तराल और आपात दूरियाँ
अपने उस अर्धांग तक पहुँचने के लिए
जिसके बार बार लौटने की कथाएँ
एक देह से लिपटी हैं
2) घर पहुँचना
हम सब एक सीधी ट्रेन पकड़ कर
अपने अपने घर पहुँचना चाहते
हम सब ट्रेनें बदलने की
झंझटों से बचना चाहते
हम सब चाहते एक चरम यात्रा
और एक परम धाम
हम सोच लेते कि यात्राएँ दुखद हैं
और घर उनसे मुक्ति
सचाई यूँ भी हो सकती है
कि यात्रा एक अवसर हो
और घर एक संभावना
ट्रेनें बदलना
विचार बदलने की तरह हो
और हम सब जब जहाँ जिनके बीच हों
वही हो
घर पहुँचना
3)
मैंने कई भाषाओं में प्यार किया है
पहला प्यार
ममत्व की तुतलाती मातृभाषा में...
कुछ ही वर्ष रही वह जीवन में:
दूसरा प्यार
बहन की कोमल छाया में
एक सेनेटोरियम की उदासी तक :
फिर नासमझी की भाषा में
एक लौ को पकड़ने की कोशिश में
जला बैठा था अपनी उंगुलियां:
एक परदे के दूसरी तरफ़
खिली धूप में खिलता गुलाब
बेचैन शब्द
जिन्हें होठों पर लाना भी गुनाह था
धीरे धीरे जाना
प्यार की और भी भाषाएँ हैं दुनिया में
देशी-विदेशी
और विश्वास किया कि प्यार की भाषा
सब जगह एक ही है
लेकिन जल्दी ही जाना
कि वर्जनाओं की भाषा भी एक ही है:
एक-से घरों में रहते हैं
तरह-तरह के लोग
जिनसे बनते हैं
दूरियों के भूगोल...
अगला प्यार
भूली बिसरी यादों की
ऐसी भाषा में जिसमें शब्द नहीं होते
केवल कुछ अधमिटे अक्षर
कुछ अस्फुट ध्वनियाँ भर बचती हैं
जिन्हें किसी तरह जोड़कर
हम बनाते हैं
प्यार की भाषा
4) पवित्रता
कुछ शब्द हैं जो अपमानित होने पर
स्वयं ही जीवन और भाषा से
बाहर चले जाते हैं
'पवित्रता' ऐसा ही एक शब्द है
जो अब व्यवहार में नहीं,
उसकी जाति के शब्द
अब ढूँढ़े नहीं मिलते
हवा, पानी, मिट्टी तक में
ऐसा कोई जीता जागता उदहारण
दिखाई नहीं देता आजकल
जो सिद्ध और प्रमाणित कर सके
उस शब्द की शत-प्रतिशत शुद्धता को !
ऐसा ही एक शब्द था 'शांति'.
अब विलिप्त हो चुका उसका वंश;
कहीं नहीं दिखाई देती वह -
न आदमी के अंदर न बाहर !
कहते हैं मृत्यु के बाद वह मिलती है
मुझे शक है -
हर ऐसी चीज पर
जो मृत्यु के बाद मिलती है...
शायद 'प्रेम' भी ऐसा ही एक शब्द है, जिसकी अब
यादें भर बची हैं कविता की भाषा में...
जिंदगी से पलायन करते जा रहे हैं
ऐसे तमाम तिरस्कृत शब्द
जो कभी उसका गौरव थे...
वे कहाँ चले जाते हैं
हमारे जीवन को छोड़ने के बाद?
शायद वे एकांतवासी हो जाते हैं
और अपने को इतना अकेला कर लेते हैं
कि फिर उन तक कोई भाषा पहुँच नहीं पाती।
कुँवर नारायण
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