बुधवार, 13 फ़रवरी 2019

छोटा हामिद : अशोक भौमिक

छोटा हामिद

वो मुझसे छोटा था , पर शायद बहुत छोटा नहीं था। उसका नाम तो अब याद नहीं , पर उन दिनों हम उसे छोटू कहते थे। जीवन में जब भी छोटू का ध्यान आया, अपनी शक्ल-सूरत, कपड़ों और मासूमियत के कारण वो बचपन में पढ़ी हुई प्रेमचंद की कहानी ' ईदगाह ' के नन्हे नायक हामिद की याद दिलाता रहा । मुझे ईदगाह शायद इसीलिये आज भी बहुत प्रिय है क्योंकि वह छोटू की याद दिला जाती है।

******
पिताजी का तबादला नागपुर से लखनऊ हो गया था । नागपुर और लखनऊ में सबसे बड़ा फ़र्क़ जुबान का था। मैं उन दिनों के लखनऊ की बात कर रहा हूँ जब ग़लत उर्दू बोलने पर पतंग बेचने वाले महमूद चचा भी हमें टोक देते थे और दो लोग लड़ते भी थे तो कुछ यूँ कि-- " मियाँ , आपसे मैं तब से गुज़ारिश कर रहा हूँ कि आप यहाँ से तशरीफ ले जाइये, पर आप हैं एक खालिस गधे, कहिये हाँ !"
आप बताइए, दुनिया में कोई और शहर होगा जहाँ ऐसे नायाब लहज़े में न केवल गाली दी जाती हो, बल्कि उसे क़ुबूल करवाने का भी रिवाज़ हो।
शहर बदला , शहर के लोग बदल गए।  जो कभी इस शहर को अपना मानते थे, वे भी बदल गए हैं । और मैं ? जाने दीजिये , इस पर फिर कभी ....

सन साठ  के आसपास इसी लखनऊ शहर में गोमती का बाँध टूट गया था और बाढ़ का ये आलम था कि हज़रत गंज में नावें चली थीं। गोमती का पानी अभी उतरा भी नहीं था कि अचानक लखनऊ की सड़कों पर भीख माँगते लोग दिखने लगे थे। पुराने कपड़े और चंदा इकठ्ठा करने वाले उन्हें 'बाढ़ पीड़ित' कहते थे। मेरे गुल्लक में यह एक और नया शब्द आ पहुँचा था।
 
एक दिन सुबह जब हम मुहल्ले के बच्चे खेल रहे थे तो जाने कहाँ से सफ़ेद धुला हुआ कुरता पायजामा और सफ़ेद टोपी पहने एक बच्चा आकर हमारे खेल में शामिल हो गया। दोपहर की धूप तेज हुई तो सब अपने अपने घर को चल दिये। वो छोटा बच्चा जो अब तक हमारे साथ खेल रहा था, मैदान के किनारे से अपना झोला और टीन का एक छोटा बक्सा लेकर मेरे साथ मेरे घर की तरफ चल दिया। दरवाज़े की चौखट पर बैठ कर उसने अपने झोले से कपड़े धोने के साबुन के छोटे छोटे तीन पैकेट निकाले और मेरी माँ की ओर बढ़ा दिया।  माँ ने पूछा , "इसका क्या करूँगी मैं ?" "कपड़े धोते है इससे" इतना कह  कर तंदुरुस्ती की रक्षा करने वाले लाल साबुन की दो बट्टियाँ मुझे देते हुए बोला-"भाई, अच्छा साबुन है, रख लो।" फिर उसने अपना टीन का छोटा डिब्बा खोला और हमारे अड़ोस पड़ोस की चाचियों, दीदियों को परम उदारता से सेफ्टीपिन के गुच्छे, बालों के क्लिप और न जाने क्या क्या बाँट-बूट कर अपनी दुकानदारी बढ़ा कर मेरी माँ से पानी माँगा और झोले से एक छोटा सा अल्युमिनियम का डिब्बा निकाल कर खाना खाने बैठा।  डिब्बा इतना छोटा था कि बमुश्किल दो छोटी-छोटी रोटियाँ ही आ सकी थीं इसमें, पर छोटे वाज़िद अली शाह का दिल बड़ा था। उसने एक रोटी मेरी ओर भी बढ़ा दिया। हम सब हैरान थे। माँ ने उससे पूछा , ' सब्जी - प्याज कुछ है या बस सूखी रोटियाँ ही हैं ?'
'अम्मी आचार देना भूल गयी ' उसने मानो अपने आप से कहा।  
फिर माँ ने उसे शायद सब्जी या दाल कुछ दिया था। नवाब साहब खा कर हमारे दरवाजे पर ही पसर गए।  जब नींद खुली, उठकर टोपी सम्हाली और चलने को हुए, तो माँ ने पूछा- "साबुन के कितने पैसे हुए ? तीन सर्फ़ के पैकेट थे और दो लाइफबॉय साबुन। दाम पता हैं या मुफ्त में बाँट कर जा रहा है ?"

मानो कुछ जरूरी बात याद आ गयी हो, उसने कुर्ते की जेब से एक पर्ची निकाल कर मेरी माँ के हाथ में थमा दिया। पर्ची में उन सब सामानों की तादाद और उनकी कीमत लिखी हुई थी। माँ ने उस पर्ची के सहारे पड़ोसियों से क्लिप और सेफ्टीपिन आदि सामानों के पैसे लेकर साबुन की कीमत जोड़ कर उसे हिसाब समझाने की कोशिश की, पर ऐसा लगा कि नवाब साहब को धन दौलत में कोई दिलचस्पी नहीं थी। माँ को ये डर भी लगा कि घर तक वापस पहुँचते पहुँचते छोटू पैसे कहीं गिरा न दे इसलिए उन्होंने उसके कुर्ते की जेब मे पैसा और पर्ची रख कर एक सेफ्टीपिन से जेब को सी दिया, ताकि पैसे इधर उधर न हों।
 
बाद में अड़ोस पड़ोस के लोगों और माँ के बीच हुई बातचीत से पता चला कि वो एक 'बाढ़-पीड़ित' था। अपनी अम्मी और नाना के साथ नहरिया पार एक झोपड़ी में किसी रिश्तेदार के आँगन में आकर टिक गया था। उसके पिताजी नहीं थे और माँ किसी घर में चौका-बर्तन करके गुज़र कर रही थीं।
छोटू के नाना बिसातखाने से कंघी, क्लिप, सेफ्टीपिन वगैरह सस्ते में खरीद लाते थे और उसकी अम्मी उन सब सामानों को छोटू के झोले और टीन के बक्से मे डाल कर, अपने खुदा के जिम्मे उसे छोड़ देती थीं।
छोटू अब लगभग हर रोज हमारे घर आने लगा था। उसे आते देख हमारे अगल बगल में रहने वाले माँ से मज़ाक करते , 'लीजिये दीदी , आपका छोटा बेटा आ गया दुकान लगाने।' कइयों के लिए छोटू  आफत की पुड़िया बन गया था। आख़िर कोई उससे कितने गुच्छे सेफ्टीपिन या कितनी बट्टी साबुन खरीद सकता था। धीरे धीरे कई लोग उससे मुँह चुराने लगे और उसे आते देखते ही कई पड़ोसी तो अपने दरवाजे भी बंद करने लगे थे। हालांकि इससे उसकी सेहत पर कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ा। छोटू का कारोबार यूँ ही चलता रहा। हमारे घर में कोई भी मिलने आता तो माँ चलते समय उन्हें कभी क्लिप तो कभी सेफ्टीपिन का गुच्छा दे देती। पड़ोस की दीदी जो गर्ल्स कालेज में पढ़ाती थीं , छोटू से खरीदा हुआ सामान कालेज के दूसरे अध्यापकों को देती थीं । रेलवे में काम करने वाले बोस बाबू भी अपने ऑफिस में छोटू का सामान बेचने लगे थे।
इस तरह छोटू अपना माल पूरा बेच कर ही घर लौटता था। शुरुआती दिनों में तो दोपहर का खाना खाने के बाद वो सो जाता था , पर कुछ दिनों बाद मेरे साथ बैठ कर पढ़ने लिखने भी लगा था। 
मुझे याद है एक दिन वह अपनी माँ को लेकर हमारे घर आया। उसकी अम्मी जब तक मेरी माँ से बातचीत करती रहीं, तब तक अपनी आँखें पोछती रही थीं। छोटू एक बार अपने नाना को भी लेकर आया था। मुझे याद है, उसके नानाजी अपने दोनों कन्धों से छोटे बड़े छाते लटकाये फेरी पर निकलते थे । जमाना सस्ते का था पर हमारे मोहल्ले में लोगों के पास इतने पैसे नहीं थे कि पानी या धूप से बचने के लिए उन्हें छातों की जरूरत पड़े। 
कुछ दिनों बाद छोटू के नाना को एक बार और देखा था !
*******
हमारे घर से स्कूल जाने का रास्ता ए पी सेन रोड से होकर गुजरता था।  इस रस्ते पर एक बहुत बड़ा बंगला पड़ता था, जिसके बगीचे के अमरुदों को हमने कभी पकने नहीं दिया।
अपने दोस्तों के साथ कई बार हम वहाँ के कमरों में आइस पाइस खेला करते थे। गेट पर कोई चौकीदार नहीं होता था और न ही बगीचे मे कोई माली। हाँ , एक सफ़ेद दाढ़ी वाला बूढ़ा आदमी कभी कभी दिखायी पड़ता था, जिसकी टोपी पर सुनहरे धागों से कढ़ाई की हुई होती थी। उनका कालीन बनाने का कारोबार था। मैं उनके मकान में एक दिन आइस पाइस खेलते हुए , तिमंजिले के एक बड़े कमरे में छिप गया था। उस कमरे मे गद्दों और लिहाफ़ों के ढेर रखे थे, यह ढेर इतना ऊँचा था कि  मुझे लगा कि अगर मैं उसके ऊपर चढ़ कर लेट जाऊँ , तो मेरे दोस्त मुझे नहीं ढूँढ पाएंगे।  मैं लेट तो गया था , पर न जाने कब मेरी आँख लग गयी थी । कब तक सोता रहा था याद नहीं , पर जब आँखें खुली तो देखा दिन ढल चुका था। इस बंगले में कितने कमरे थे , इसका अंदाज़ा मुझे नहीं था, और दिन के ऐसे वक़्त इसके कमरे ,आँगन , बरामदे मुझे भूल-भुलैया जैसे लग रहे थे, जहाँ अब अँधेरा घना हो रहा था। मैं भागा और अपने घर के दरवाजे पर पहुँच कर ही सांस ली थी । 
फिर कभी मैं इस बंगले में नहीं गया।
उस दिन इसी रास्ते से होकर स्कूल जा रहा था जब बंगले के फाटक के बाहर मैंने छोटू के नाना को देखा।एक चादर जमीन पर बिछाकर अपने घुटने पीछे मोड़े वो बैठे थे और दोनों हाथों को फैलाये आसमान की तरफ़ एकटक देख रहे थे। जैसे किसी अदृश्य से वो कुछ माँग रहे हों। मैने इससे पहले कभी किसी को सड़क के किनारे बैठकर इबादत करते नहीं देखा था।
स्कूल से लौटते वक़्त जब मैंने देखा तो छोटू के नाना अब तक वैसे ही बैठे, धीमी आवाज में कुछ कह रहे थे। उन्हें वहाँ बैठे कई घंटे गुज़र चुके थे। उनके सूखे होंठ मुझे आज भी याद हैं और याद हैं उनकी साँसों के आरोह अवरोह के साथ निकलते ये लफ्ज़- 'सौ रुपौ का सवाल , अल्लाह रसूल के नाम पर', ' सौ रुपौ का सवाल!
मैं बहुत देर तक वहीं रुककर इस घटना को देखता रहा। कुछ और वक़्त गुजरा। उन्होंने अपनी आवाज़ थोड़ी ऊँची की और अपने दोनों हाथों से अपने गालों पर मारने लगे। वो जो बोल रहे थे और जो कर रहे थे, उन दोनों में एक लय थी। थोड़ा वक़्त और गुजरा। अब मुझे उनके गालों पर खून की बूँदें उभरती दिखाई दीं। उनका मुँह सूज गया था और आँखों से बहते आँसू गाल पर उभर रहे खून की बूंदों को साथ लिये उनकी सफेद दाढ़ी को भिगो रहे थे। मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि मुझे क्या करना चाहिए। दोपहर का वक़्त! सड़क सुनसान! तभी मुझे सफ़ेद दाढ़ी, सुनहरी ज़री की टोपी पहने एक बूढ़े सज्जन बंगले से बाहर आते दिखे। उन्होंने छोटू के नाना के दोनों हाथों को पकड़ कर उन्हें रोका और साथ लेकर बंगले के अंदर चल दिए। मैं छोटू के नाना की दरी उठा कर बंगले के अंदर उन्हें देने गया तो देखा बंगले के मालिक छोटू के नाना का चेहरा पोछ रहे थे। 
मैं छोटा था पर ये समझने में देर नहीं लगी कि छोटू के नाना के सौ रुपौ वाला मसला हल हो गया था।
घर लौट कर जब मैंने माँ से पूरी बात बताई तो उन्होंने कहा , "चलो, छोटू का मकान जो बाढ़ में बह गया था, अब शायद फिर बन जाय।"
इस घटना के बाद फिर कभी छोटू से मिलना नहीं हुआ। कक्षा तीन पास कर मैं कानपुर चला आया। कई बार उस बच्चे की याद आती थी जो हमारी यादों मे छोटू ही बना हुआ था। एक दिन मैं भी बड़ा हो गया और पढ़ाई ख़त्म कर  मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव की नौकरी मिलने पर कानपुर छोड़ दिया।  
********
उन दिनों मैं बनारस में था और मेरे इलाके में जिला मोमिनपुर भी आता था। अपने पहले दौरे पर जब मैं मोमिनपुर पहुँचा तो लेडी डाक्टर नुसरत अहमद और उनके शौहर डॉ यासीन अहमद के बारे में सुना। ये अफवाह भी सुनी कि डॉ. नुसरत बेहद खूबसूरत थीं। लिहाज़ा उनके शौहर डॉ यासीन अहमद उन्हें मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिवों से मिलने नहीं देना चाहते थे।
मैं जब पहली बार डॉ. यासीन और डॉ. नुसरत अहमद से मिलने पहुँचा तो रात हो चुकी थी। डॉ. नुसरत के इतने ज्यादा मरीज़ हुआ करते थे कि रात नौ बजे के पहले वह मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिवों से नहीं मिल पाती थीं। उस दिन डॉ यासीन के पास मरीज़ कम थे, लिहाज़ा जल्द ही डॉ यासीन का चेम्बर खाली हो गया।
डॉ यासीन से मैं पहली बार मिल रहा था।  मैंने विस्तार से अपनी दवाओं के बारे में बताया। उनसे बातचीत करते हुए मुझे लगा कि उनके बारे में जो कुछ सुना था, वो सच नहीं था। डॉ.यासीन की केवल अंग्रेजी ही नहीं बल्कि उनकी उर्दू जुबान भी बेहद साफ़ थी। 
बातचीत के दौरान मैंने पूछ ही लिया- 'डॉ साहब, आप मोमिनपुर में रहते और प्रैक्टिस करते हैं, पर आपका उर्दू तलफ़्फ़ुज़ बहुत साफ़ है। आप शायद यहाँ के नहीं हैं।  ' 
डॉ साहब बोले-- 'नहीं, मैं दरअसल लखनऊ का हूँ। वहीं पला और बड़ा हुआ। के. जी. एम. सी. से ही एम.बी.बी एस. और पी.जी. किया।

' ओह , मेरा बचपन भी लखनऊ में ही बीता है, डॉ साहब !"
मेरी आवाज शायद डॉ यासीन को कहीं आत्मीय लगी थी। उन्होंने कहा , ' लेट्स हैव कॉफी ! ' अपने मेज़ पर रखे फ्लास्क से दो कपों में कॉफी भरते हुए उन्होंने पूछा , 'कहाँ रिहाइश थी आपकी ? '

'चारबाग़ के पास एक मुहल्ला है , पानदरीबा, वहीं हम रहते थे।'

' व्हाट ! मेरा भी बचपन चारबाग़ के पास ही बीता है। आपको कोई जल्दी तो नहीं है ?'

' नहीं डॉ साहब! मैं तो मैम से मिल कर ही जाऊँगा और आज उनके चेम्बर में इतने पेशेन्ट्स हैं कि इतनी जल्दी तो छुट्टी नहीं मिलने वाली।'

डॉ यासीन को देख कर लग रहा था जैसे बहुत दिनों बाद वो अपने किसी करीबी रिश्तेदार से मिल रहे थे। यह डॉ यासीन का एक बड़े डॉक्टर वाला या मोमिनपुर शहर की सबसे बड़ी कोठी के नवाब का चेहरा नहीं था।

हम बड़ी देर तक अपने बचपन की गलियों में खोये कंचों को खोजते रहे , तो कभी पतंगें लूटते रहे। लखनऊ की यादों के सहारे हम मचलते फुदकते नहरिया पार, आर्यनगर, मवैया और मुन्नेलाल धर्मशाला रोड होते हुए न जाने कब ए पी सेन रोड पहुँच कर उस परिचित बंगले के पास आकर खामोश हो गए।

डॉ. यासीन बता रहे थे--- 
" मैं एक बहुत गरीब परिवार का हूँ।  मेरे वालिद का मेरे बचपन में ही इंतक़ाल हो गया था। मेरी अम्मी और मेरे नाना ने मुझे पाल पोस कर बड़ा किया है। बचपन में न जाने कैसे नुसरत के दादाजी मुझे, मेरे नाना और मेरे अम्मी को ए पी सेन रोड वाले उनके बंगले में ले आये थे। वे इंसान नहीं, फ़रिश्ते थे। उन्होंने मुझे पढ़ाया लिखाया। नुसरत ने बनारस मेडिकल कालेज से पढ़ाई की। फिर शादी के बाद उन्होंने हम दोनों को विलायत भेजा पढ़ने को। बहुत साल हो गए उनको गुज़रे हुए पर वे मेरे लिए मेरे अपने नाना जैसे ही थे।"

मेरे सामने बैठा 'ईदगाह' का हामिद कॉफी पी रहा था ! और मेरे कानों के पास कोई फुसफुसा रहा था , ' सौ रुपौ का सवाल……
******
इस घटना के बाद कई बार डॉ. यासीन से मिला और हर बार उनके चेम्बर के बाहर खड़े होकर मुझे मेरे मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव के ट्रेनिंग के दौरान मिली हमारे ट्रेनिंग मैनेजर मिस्टर बक्शी की एक हिदायत याद आती रही---
"मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव और डाक्टर के बीच में एक मेज़ होती है , एक रिप्रेज़ेंटेटिव को यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए !"

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विरह विगलित कदंब: पुष्पा भारती

विरह विगलित कदंब पुष्पा भारती साहित्य सहवास में चारों ओऱ बड़े करीने से हरियाली उग आई थी। अपनी मेहनत की सफलता पर खुश भी थे भारती जी कि सहसा उ...