● सुनो वत्स, सुनो : मधु काँकरिया
शुरुआत एक छोटी सी कहानी से,वत्स! एक गाँव में एक किसान का युवा पुत्र जेठ की चिलमिलाती धूप में सामान को ढोनेवाली अपनी गाड़ी ठीक कर रहा था ,उसका बूढा बाप उसे देख रहा था .आसमान आग बरसा रहा था ,बूढ़े की ममता कलप उठती ,उसने बेटे से कहा – थोड़ी देर आराम कर ले बेटा ,बाद में धूप हलकी पड जाए तो ठीक कर लेना गाड़ी को .बेटा सुनी अनसुनी करता गया .एक बार ,दो बार ,तीन बार ...आखिर बेटा झल्ला गया – चुप रहिये ना ,मुझे मेरा काम करने दीजिये.उदास बूढा कुछ देर सोचता रहा फिर वह भीतर गया और उसके ग्यारह महीने के बच्चे को उठाकर उसने उस कड़ी धूप में लेटा दिया .नन्ही जान चीख मार रोई.युवा पुत्र गुस्से मे लाल पीला हुआ – क्या कर रहे हैं ,इतनी कोमल जान को इस कड़ी धूप में लेटा दिया ,आपका दिमाग तो ठिकाने है?बाप मुस्कुराया – तुम एक सेकंड के लिए भी अपने पुत्र को इस चिलमिलाती धूप में नहीं देख सके ..और मैं पिछले घंटे भर से देख रहा हूँ.
बेटे को अपनी भूल समझ में आई.
मुझे यह कहानी तुम्हे कहने की जरूरत क्यों पड़ी ?इसलिए कि जब जब रात में नन्हा रोता था तो तुम्हारी माँ की ममता भी इसी प्रकार छटपटाती थी ,नन्हे के लिए नहीं, तुम्हारे लिए कि दिन भर के थके मांदे तुम ,काश तुम नन्हे को उसके हवाले कर देते और घड़ी भर सो पाते!
पर तुम्हारी छोटी सोच में नन्हा सिर्फ तुम्हारा और तुम्हारा ही दायित्व था .शायद तुम्हे स्वाबलंबन का वायरस लग गया था ,तुम्हारा वश चलता तो तुम दोनों पैदा भी अपने आप ही हो जाते.तुम अपनी माँ से नन्हे के मामले में कोई भी सहायता लेने को तैयार नहीं थे ,क्योंकि तुम दोनों को एक स्वाबलंबी.सावधान और अच्छे माँ – बाप होना था ,ऐसे माता पिता जो अपने बच्चों का सारा भार खुद ही वहन करें.तुम अपनी माँ से कई बार कहते भी थे ‘विदेश में देखो ,पिचहत्तर साल का बूढा भी अपनी गाडी अपने आप चलाता है ,स्टेयरिंग पर हाथ कांपते है पर उसकी हिम्मत नहीं कांपती.अस्सी साल की बूढी भी अपने लिए खरीददारी करती है ,अपना खाना आप पकाती है .और तो और बच्चे भी वहां अठारह साल के होते न होते आत्मनिर्भर हो जाते हैं.कोई किसी पर निर्भर नहीं रहता.जाहिर था कि स्वदेश लौट कर भी तुम अपने देश नहीं लौटे थे .क्योंकि तुम चाहे देश में थे पर देश कहीं भी तुम्हारे भीतर नहीं था .हर वक़्त अमेरिका तुम्हारे आसमान पर बादलों की तरह उमड़ता घुमड़ता रहता .
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दुआओं जैसी एक शाम हमारे मन के आँगन में भी उतरी जब नन्हे का जन्म हुआ .परिवार की वंश बेल बढ़ी ,तुम्हारी माँ को लगा जैसे उससे जुड़कर वह रिश्तों की एक समूची दुनिया से जुड़ गयी है . जीवन और उम्र की उदासी अब पीछे छूट गयी थी और लाल बत्ती दिखाते शरीर में एकाएक हरी बत्ती जल गयी थी . उसके भीतर ममता की नदी जैसे बहने लगी थी .कहाँ छिपी थी यह छल छल बहती नदी! सालों बाद उसने वह ख़ुशी महसूसी जो उसकी अपनी थी क्योंकि अभी तक तो उसका अपना न कोई दुःख था ,न ही कोई सुख .वह तो तुम लोगों के दुःख से ही दुखी और सुख से ही सुखी थी .
नन्हा क्या आया ,तुम्हारी माँ के शरीर पर सब जगह जैसे आँखें ही आँखें उग आई थीं.बल्कि उसकी सारी इन्द्रिया जैसे आँखों में ही तब्दील हो गयी थीं .खुल जा सिम सिम की तरह जब जब तुम्हारे कमरे का दरवाज़ा खुलता उसकी आँखें और उसकी चेतना नन्हे का पीछा करती वहीँ जमी रहती,उसके नए अवतार में वह तुम्हे ही खोजती रहती . पर तुम्हें लगता कि तुम्हारी प्राईवेसी भंग हो रही है ,जो तुम्हारी ‘क्वालिटी लाइफ’ की एक अहं जरूरत थी ,इसलिए एकबार तुमने जब उसके मुंह के सामने ही अपना दरवाज़ा जोर से बंद किया तब उसे भ्रम हुआ कि शायद तुम्हे उसके इस प्रकार ताकने से भी तकलीफ है.
तुम्हारें यहाँ सब आराम था ,पर जो उसे चाहिए था ,सारी पाबंदियां उसी पर थी ...तुम सबको अपनी सोच के अनुसार हांक रहे थे .तुम्हारी दुनिया में प्रेम पर भी पाबंदिया थी.वह जी भर न नन्हे को प्रेम कर सकती थी न तुम्हे .जाहिर है वह तुम्हारे घर के अन्दर थी लेकिन घर उसके अन्दर कहीं नहीं था .
’अम्मा धीरे बोलो ‘ के तुम्हारे आदेश से इस कदर आतंकित थी वह कि उसने नन्हे से अधिक बोलना ही छोड़ दिया था,जाने कितने गीत और लोरी उसने नन्हे के आगमन की खबर सुनते ही कंठस्त कर लिए थे ,वे सब अब शायद ही कभी गाए जाएं .कभी उसके मरने के बाद उसके शरीर की चीर फाड़ हो तो देखना ये अनगाए गीत फूटेंगे उसके कंठ से . तुम्हारे छोटे से घर में आवाज़ गूंजती थी और तुम्हारी आधुनिकता को या दिनभर जिस तनाव या वातावरण में तुम्हे ऑफिस में काम करना पड़ता था उससे उपजी चिडचिडी मानसिकता को आवाजों से ही इतनी चिढ थी की कई बार तुम उसे यहाँ तक कह देते थे – अम्मा पांव घिसटती क्यों हो ,पाँव उठा कर चलो,कितनी आवाज़ होती है जब तुम चलती हो . तुम घर में पूरी शांति चाहते थे .जरा सी भी ध्वनि तुम्हारे अशांत मन और खींचे हुए स्नायु मंडल में प्रतिध्वनी पैदा करती थी और तुम्हारा संतुलन बिगड़ जाता था .
तुम तो यह भी भूल गए कि बच्चा सबको बच्चा बना देता है, यह भी कि जो खामोशी का अभ्यस्त नहीं उसे इतनी सघन ख़ामोशी निगल लेती है .तुम्हारी माँ नन्हे की तेल मालिश करने जाती तो तुम उसे रोक देते ‘ तुम क्यों मेहनत करोगी अम्मा,आया कर देगी ‘.वह तुम्हारा मन भांप नहीं पाती और ताज्जुब करती कहती – अरे ,इसमें क्या मेहनत ,यह तो मेरा चाव है ,सपना है ‘ .तुम इसबार थोड़ी सख्ती से शब्दों को बाहर ठेलते – अम्मा मैंने मना किया ना . वह उसे नहलाने की सोचती तो भी तुम उसे रोक देते ,’चिल करो अम्मा ,उसकी चिंता छोड़ दो ,हम है न ‘.वह उबटन लगाने की कहती क्योंकि उसे लगता कि बच्चे के शरीर में जो अतिरिक्त बाल उग आते हैं उन्हें बिना उबटन कैसे साफ़ किया जा सकता है .पर तुम्हे लगता था कि यह काम प्रशिक्षित आया उससे कहीं ज्यादा अच्छे ढंग से कर सकती है , या शायद तुम उसका अहसान नहीं लेना चाहते थे या तुम्हे डर था कि कहीं तुम्हारी माँ की हलकी सी खांसी से उसे इन्फेक्शन न हो जाए.हम तो सिर्फ अनुमान भर ही लगा सकते हैं .पर तुमने एक बार भी नहीं सोचा की जब तुम उसे कुछ करने ही नहीं दोगे तो अपने चारों तरफ उग आई अकेलेपन और लम्बी खामोशियों को कब तक वह आसमान में उड़ते बादलों और कबूतरों को देखते देखते झेलेगी .
एकबार उत्साह के अतिरेक में उसने नन्हे को बाहर से आते ही गोद में उठा चूम लिया ,तो तुमने नाराजगी से उसे ऐसे देखा जैसे उसने कोई अपराध कर डाला हो और उसके हाथों को कीटाणु रहित करने के लिए तुमने कोई तरल पदार्थ उसकी हथेलियों पर डाला और उसे सख्त हिदायत दी कि आइन्दा से वह जब भी नन्हे को छूए ,हथेलियों को इसी प्रकार साफ़ कर छूए .वैसे ही एकबार जब उसने अपनी धुली हुई साफ़ साड़ी के पल्लू से नन्हे का नाक - मुंह पोंछ दिया तो भी तुम्हारे ललाट पर तीन सिलवट पड गए और तुमने टिसू पेपर अपनी माँ के आगे कर दिया – इससे पोंछो अम्मा. उसने कहा भी, ‘मैंने चार चार बच्चों को बिना नर्स की सहायता के पाला था और उन्हें हमेशा स्वस्थ रखा था’ तुम्हारा जबाब था ‘ पहले इतना प्रदूषण कहाँ था अम्मा ‘ उसने कहना चाहा,’ पहले इतना डर नहीं था और बड़ों के प्रति अविश्वास भी ’पर जबाब सुनने का समय कहाँ था तुम्हारे पास.
एक बार नन्हे की आँख में गिड आ गए ,उसकी दोनों पलकें हलके से चिपक गयी .तुम दोंनों घबरा गए – यह क्या हुआ ?आँख में यह कैसा इन्फेक्शन ?उसने कहा ,कुछ नहीं, यह आँख का कीचड है ,गुलाब जल डालो ,कल तक ठीक हो जाएगा.लेकिन तुम दोनों को कहाँ उसका विश्वास ,तुम गाड़ी ले भागे भागे नेत्र विशेषग्य के पास गए .तुम्हे उसके अनुभवों और बच्चों से सम्बंधित उसकी चिकित्सा पर कोई विश्वास ही नहीं था .
इसी उत्साह के अतिरेक में जहाँ तुमने यह संतोष जरूर कमा लिया था कि अच्छे माँ-बाप की तरह सारी जिम्मेदारी तुम दोनों ने अकेले ही उठा ली पर तुम यह नहीं देख पाए की तुम्हारे इसी स्वाबलंबन के भूत ने तुम्हारी माँ में किस कदर व्यर्थता बोध, अजनबीयत और अनुपयोगी होते जाने का वह मारक अहसास भरा कि वह वह नहीं रही.बड़ा वह नहीं होता जो किसी में बौनेपन का अहसास भर दे ,बड़ा वह होता है जिसके आगे छोटे से छोटा आदमी भी खुद को बड़ा महसूस करने लगे.तुम दोनों नन्हे में डूबे रहते और वह किसी भटकती आत्मा की तरह अपने खाली कमरे में प्रेत की तरह डोलती रहती.अनचाहे होने के दर्द और दंश को काश तुम समझ पाते !कभी एकाएक नन्हे के रोने की आवाज़ आती तो उसके कदम अचानक ही तुम्हारे कमरे की ओर बढ़ जाते ,कई बार कमरा खुला रहता तो वह बस झाँक भर लेती और लौट आती.एक बार दोपहर के समय तुम्हारा कमरा बंद था और नन्हे की कच्ची काँय काँय...,उसे लगा कि कहीं नन्हे की माँ बाथरूम में न हो और नन्हा कहीं बिस्तर से गिर न गया हो ,अब ख्यालों पर तो कोई रोक टोक लगा नहीं सकता ना ,उसने घबराकर दरवाज़ा खटखटाया तो तुम जाने कहाँ से अवतरित हो गए ,तुमने थोड़े नाराजगी से पूछा – क्या बात हैं अम्मा ,क्यों परेशान हो ?
वह आसमान से गिरी- तुम? तुम ऑफिस नहीं गये?तुमने झुंझलाते हुए जबाब दिया -अम्मा मैंने ऑफिस से महीने भर की छुट्टी ले रखी है .किसलिए ?नन्हे के लिए.अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए .
क्या ? ऑफिस से छुट्टी ले ली वह भी महीने भर के लिए?उसे लगा जैसे तुमने उसके मुंह पर थप्पड़ जड़ दिया हो ,यदि ऐसा ही था तो फिर तुमने उसे क्यों बुलाया ?जमाना बदल गया है यह तो हम भी जानते थे ,यह भी जानते थे कि अब वो जमाना नहीं की जलवा पूजन के पहले पुरुष सौर में प्रवेश ही न करें ,पर यह नहीं जानते थे कि एक नन्हे के लिए एक माँ ,एक आया और दादी भी कम पड़े और पिता को भी अवकाश लेना पड़े वह भी महीने भर के लिए !
काश! तुम समझ पाते कि तुम जिसे महज अपनी जिम्मेदारी कह रहे थे वह परिवार का साझा सुख था जिस पर हमारा भी हक़ बनता था.नन्हे को हमसे जुदा करना नयी कोंपल को पेड़ से जुदा करने जैसा था .तुमने अपनी माँ को ताक पर रख दिया बीते साल के गणेश लक्ष्मी की तरह .हर सुबह वह उठती इस उम्मीद में कि शायद आज उसे कुछ करने को मिल जाए और हर शाम वह बोरियत और अपमान की चादर ओढ़ सो जाती .
कैसा होता है हरपल अपने वजूद को शून्य में सिमटते देखना.तुम आत्मनिर्भरता का राग नहीं अलाप रहे थे ,तुम उसकी ममता में कील ठोक रहे थे.अकेले का अकेलापन फिर भी सह्य होता है पर किसी के साथ रहते भी यदि अकेलापन भुगतना पड़े तो उसकी मार असहय होती है क्योंकि उसमें अपमान की मार भी शामिल हो जाती है.अपमानित होकर जीने से कहीं बेहतर है वंचित होकर जीना और उसने वही किया.क्योंकि साथ रहकर भी क्या वह वाकई साथ थी ?दिन के चौबीस घंटे में चौबीस मिनट के लिए भी तुम अपने कमरे से बाहर नहीं निकलते थे और निकलते तो भी अपनी अम्मा के ऊपर एक उडती सी नज़र डाल तुम यह जा वह जा .अपनेपन और आत्मसम्मान के बिना तो पैरों के नीचे बिछे फूल भी चुभते हैं.
पर उस दिन तो हद ही हो गयी .तुम्हारे यहाँ हर रविवार कोई पांच –सात लोगों की पार्टी चलती रहती थी ,तुम्हारी बाई ने उससे कभी कोई सलाह मशविरा नहीं लिया ,अब जब मालिक ही न पूछें तो नौकर तो उसी की बजाएंगे न जिसकी खाएंगे .बहरहाल हर बार खाना बनता बीस पचीस लोगों का .उस अतिरिक्त भोजन को भी तुम लोग न किसी को देते और न आस पास ही बाँटते .अब देखते देखते तो बर्बादी की मक्खी निगली नहीं जा सकती न !एक बार सुबह जब सारा खाना फेंका गया तो उसके मुंह से निकल गया – आज के जमाने में अन्न की इतनी बर्बादी ! यह ठीक नहीं हैं,लोगों को खाने को ...वह बोल भी नहीं पाई थी कि तुमने झुंझलाते हुए कहा – अम्मा चिंदी सी बर्बादी और सड़े हुए अन्न पर दिमाग मत ख़राब करो ,बड़ा सोचो ‘..तुम कहते रहे और वह सोचती रही कि खाने की बर्बादी को रोकने की सोच से बड़ा सोच और क्या हो सकता है ?उसका बचपन उन परिवारों में बीता जो एक बेला कहलाते थे .एक बेला यानी जिनके घर में खाना एक ही बार बनता था .इसलिए अन्न की बर्बादी उसकी नज़रों में महा पाप था .पर तुम जैसे बड़े लोगों के छोटे सोच को वह समझ ही नहीं पायी.दूसरी सुबह फिर उससे भूल हो गयी या पिछले दिन की कटुता पर पलेथन लगाने की कोशिश में .. उसने नन्हे को काजल लगा दिया था और उसके उन्नत ललाट पर काजल का दिठौना भी . तुम्हे लगा कि कार्बन डाई ऑक्साइड नन्हे की आँख के लिए घातक हो सकता है,तुम्हे लगा कि वह भी अंध विश्वासी है ,जबकि बी.ए तक पढ़ी लिखी तुम्हारी माँ ने काजल का दिठौना यूं ही रस्मी तौर पर चाव से लगा दिया था . तुम फूट पड़े – अम्मा दुनिया भर में मौसम बदल रहा है ,कब बदलेगा हमारे घर का मौसम.तुमने जितना कहा उससे ज्यादा सुन लिया था उसने .
बीस दिन बीतने के पहले ही उसकी मोह-ममता सब बीत गए और सांप की तरह उसने भी रिश्तों की सारी केंचुल उतार फेंकी.जिस मन में बसती थी प्रेम और लगाव की पीड़ा ,खाली कर दिया उस मन को. शायद यही है बूढा होना,निरंतर खाली करते जाना खुद को.अब घोसला खाली है.पद्म पत्र पर पड़े जल बिंदु को देखा है कभी?
तुम एक समाज में नहीं रहते हो यदि समाज में रहते तो तुम ऐसा उसके साथ कर ही नहीं पाते जैसा तुमने किया .तुम दरअसल लोगों के एक ऐसे सेंट्रली हीटेड जमावड़े में रहते हो जो खुद से बेखुद ,आत्महीन,व्यक्तित्वहीन,मूल्य हीन और स्मृति विहीन है जहाँ विचार बहुत कम और सामान बहुत ज्यादा है.एक बात और ,हमारे जीवन में कई रोशनदान थे - सिर्फ अपना ही बच्चा नहीं था,पास पडौस और यहाँ तक गाय और चिरिया के बच्चें तक हमारी जिम्मेदारी के दायरे में आते थे , न हमारी सोच इतनी आत्मकेंद्रित थी और न ही हमें इतनी फुर्सत थी कि हम सिर्फ और सिर्फ अपने बच्चे के लिए ही सोचे.हम अपने माँ-बाप ,माँ बाप के माँ बाप ,पास पडौस के बच्चे तक के लिए भी सोचते थे.ममता पर क्या सिर्फ माँ का ही अधिकार होता है ?क्या दादी ,नानी ,मौसी ,बुआ माँ का रूप नहीं होती?हमारे यहाँ तो दादी को भी दादी माँ ,बुआ को भी बुआ माँ और मासी को मासी माँ कहा जाता है .पर तुमने बच्चे पर माँ-बाप का अधिकार नहीं उन्ही का सर्वाधिकार समझ लिया.तुमने हमें नन्हे के दायित्व से मुक्त नहीं किया तुमने हमें अपनी ममता से वंचित किया जिस पर हमारा भी सहज अधिकार था.तुम्हारे लिए तुम्हारा बच्चा मथुरा वृन्दावन था जिसकी परवरिश पर तुम किसी ओर का जरा भी हस्तक्षेप नहीं चाहते थे.जहाँ तुम दोनों के सिवाय बाकी सब अछूत थे .पर तुम भूल गए कि तुम भी कभी हमारे लिए मथुरा वृन्दावन जैसे ही थे, ऐसा मथुरा वृन्दावन जहाँ हर कोई बिना रोक टोक के आ सकता था ,ऐसा मथुरा –वृन्दावन जिसको चमकाने में हम खुद घिसते गए ...मलीन पड़ते गए …रिसते गए..पर तुम्हे चमकाते गए .
तुम ऐसे क्यों हुए ?सोचकर भी सोच नहीं पाते हम .शायद इसीलिए कि तुम्हारे यहाँ सबकुछ उपयोगिता के सिद्धांत के आधार पर तय होता है जबकि हम रिश्तों के बीच पले पुसे लोग हैं . तुम्हारे लिए मनुष्य सिर्फ आर्थिक प्राणी है .इसीलिए सुबह से शाम तक तुम दोनों जेट रफ़्तार से दौड़ते रहते हो फिर भी पंहुचे कहाँ हो? अति और गति की मारी तुम्हारी पीढ़ी का कार्य अपने सिवा किसी दूसरे को छूता तक भी नहीं है ,इतनी मोटी सैलरी के बाबजूद,तुम्हारे यहाँ जीवन तो है पर जीवन की गहमा गहमी नहीं है और यदि है तो भी उसकी आंच किसी तीसरे तक भी नहीं पंहुचती है .शायद इसीलिए कि तुम दोनों अपनी बिजनेस या नौकरी की लक्ष्य पूर्ति के कलपुर्जे बनकर रह गए हो. संवेदनशील मनुष्य बन ही नहीं पाए .
तुम्हारे इन छोटे घरों में आकर तुम्हारा मन वाकई छोटा हो गया है. याद है तुम्हे अपने गाँव जोबनेर की वह हवेली जहाँ तुम्हारी दो दो विधवा बुआ दादियाँ रहती थी और वह भी पूरे सम्मान के साथ.घर वही होता है जिसमें कई घर होते हैं घर वह होता है जहाँ हर व्यक्ति अपने स्व के भाव के साथ पूरे सकून और पूरी गरिमा के साथ रह सके. जहाँ सबकुछ लय ताल में बहता हो और अंत:धाराएं एक दूसरे को काटती न हो ..हमारे घर में तो चिड़िया,बिल्ली ,चूहे और चींटी तक शांति से निवास करती थी क्योंकि हमारा विश्वास था कि घर सबका होता है और जिन घरों में चिड़िया घोसले नहीं बनाती ,निर्वंश हो जाते हैं वे घर . तुम्हारे उस सजे संवरे ,अत्याधुनिक ,वातानूकूलित और जगमग घर में तुम्हारी माँ तक की समाई नहीं हुई.उसे खांसने तक में डर लगता कि कहीं तुम्हारी शान्ति न भंग हो जाए .उसे मेहमानों के बीच बैठने तक डर लगता . बोलने,हंसने ,ठहाका लगाने और यहाँ तक कि चलने और पादने तक में डर लगता कि कहीं तुम उसे फूहड़ न समझ बैठो.हमारे गाँव में एक कहावत है कि चूहे के बिल में ऊँट की समाई नहीं होती.
तुम्हारे उस घर में सब कुछ था जो उसे जोड़ सकता था ,बेटा – बहू और उसका नन्हा ईश्वर ,उसका पोता.पर वह जुड़ाव कहाँ था जो इंसान को इंसान से जोड़ता है ,वे बीस दिन जो उसने तुम लोगों के साथ बिताए ,वे बीस दिन दिन नहीं थे ,साबुन थे जिन्होंने उसके सारे अरमानों और उमंग को धो डाला था.वे बीस दिन दिन नहीं बीस चाकू थे जो हर क्षण उसे सलाद की तरह काटते रहे थे.
तुम शायद इसे व्यक्ति स्वातन्त्रय का नाम दो,पर यदि यह है भी तो उसकी अति है .वैयक्तिकता की हदे दर्जे की पराकाष्ठा.पहले हम एक अति में जी रहे थे अब दूसरी अति में जी रहे हैं .बुरा मत मानना ,पर यह सबकुछ करने की असीम आज़ादी भी ,जिसे तुम व्यक्ति स्वातन्त्रय का नाम देते हो. इंसान को एक अराजक और निरंकुश व्यक्ति में बदल रही है .तुम कहते थे कि तुम्हे किसी से डर नहीं लगता पर कुछ डर अच्छे भी होते हैं – जैसे रिश्तों को खोने का डर ,आत्मीयों को नाराज करने का डर .
यह बिडम्बना है कि हम एक अति से दूसरी अति की ओर लुढ़क गए हैं .तुम्हे गुमान है की तुमने हमलोगों से कोई सेवा नहीं ली.जैसा कि तुम उसे कहते भी थे – चिल करो अम्मा ,महारानी की तरह राज करो .काश तुम समझ पाते कि यह महारानी बनना कितना अपमानजनक था ,कि इस सत्य पर मैल की कितनी परते जमी थी .वह ऐसे घर कि महारनी थी जहाँ घर की स्वामिनी होने का कोई गौरव नहीं था . बड़े होने का कोई मान ही नहीं था .
अपने नन्हे बेटे के प्रति अपने फर्ज़ में तुम कोई कमी नहीं करना चाहते थे इसलिए तुमने अपनी जमा सारी छुट्टियाँ खर्च कर दी और आगे के लिए भी ले ली.तुम्हारी आत्मनिर्भरता अपनी पीठ थपथपा सकती है कि तुम और तुम्हारे बच्चे के बीच कोई नहीं आया ,न आ सकेगा.पर हम आज तक समझ नहीं पाए कि यह कैसी आत्मनिर्भरता है जो दूसरों को उसकी ममता से वंचित कर अर्जित की गयी हो . जहाँ निजता की परिधि इतनी संकीर्ण हैं कि दो के अलावा तीसरे का प्रवेश भी स्वीकार्य नहीं हो .ताज्जुब होता है कि हम उसी संस्कृति के वंशज है जिसने कभी हमें वसुधैव कुटुम्बकम का मूलमंत्र दिया था.
काश !तुम कुछ कम सफल होते ,कम समृद्ध होते ,कम आत्मनिर्भर होते कम प्रतिभाशाली होते या कम आत्मविश्वासी होते .थोड़े हमारे जैसे होते .
तुम्हे धन्यवाद कि तुमने उसे यदि वह अघात नहीं दिया होता तो अपनी निजता की संकीर्ण परिधि का अतिक्रमण कर तुम्हारी माँ कभी अपना विस्तार कर ही नहीं पाती..घर की मोह माया से मुक्त इंसान सचमुच एक मुक्तात्मा हो जाता है .हमारी कमजोरी है कि हम रिश्तों के सच को पहचानने से डरते हैं और इसके उजागर होने से तो इतना डरते हैं कि ताउम्र रिश्तों के खाली ढोल को ही बजाते रहते हैं .जाने कब और कहाँ पढ़ी थी रानी विक्टोरिया से जुडी एक घटना ....रानी का एक प्रेमी था ,उम्र में उससे कुछ छोटा,जिसे वह तहे दिल से प्रेम करती थी .एक बार उसके प्रेमी को देश से बाहर जाना था .रानी ने उसे जहाज (पानी का जहाज) तक जाकर विदा किया ,और विदा के उपरांत उसे दूर से ही दूरबीन से देखने लगी .उसने देखा कि डेक पर खड़ा उसका प्रेमी अपनी प्रेमिका के गले में हाथ डाले मुदित मन उसे चूम रहा है .रानी यह देख उदास हो गयी.तभी पास में ही खड़े रानी के सचिव जो सब कुछ देख रहे थे ,ने रानी से कहा ‘your majesty look up‘ (ऊपर की ओर देखिये महारानी !) रानी ने ऊपर की ओर देखा जहाँ उसके देश का झंडा लहरा रहा था,उसके सोच की दिशा बदली –मुझे अपने देश और लोगों के लिए सोचना है..
उस घटना की स्मृति ने एक कौंध में ही जैसे जीवन का भेद खोल के रख दिया .सच जिन्दगी जब हाथों से फिसलने लगे तो ऊपर की ओर देखना ही जीवन को देखना है .हमने भी अपने सोच की दिशा बदल ली है और निजी दुःख और अपमान के दंश को पालतू बिल्ली की तरह पालना छोड़ दिया है . ममता में बंधे पंखों को खोल दिया है और उड़ान भर ली है .हमारे घर के पास ही एक शिशु कल्याण केंद्र था ,कभी उस पर नज़र ही नहीं गयी थी,तुम्हारे यहाँ से लौट आने के बाद तुम्हारी माँ की छटपटाती ममता को कोई तो ठिकाना देना ही था और उन बिना माँ बाप के बच्चों को कोई माँ मिलनी ही थी .आज तुम्हारी माँ पांच अनाथ बच्चों की दादी नानी है और संतुष्ट है कि उसके चलते किसी और की जिन्दगी में आनंद है .तुम्हे धन्यवाद की तुम्हारे कारण उसकी दृष्टि बदली जिसने बदल दी हमारी सृष्टि.
अंत में सिर्फ यही प्राथना कि प्रेम की इस विराटता पर अपनी लघुता मत थोपो.अपनी जिन्दगी को इतनी बंद ,आत्मकेन्द्रित और शुष्क मत बना डालो कि बच्चा बड़ों की दुनिया देखकर बड़े होने से ही डरने लगे .अहसास की रुकी हुई इन हवाओं को बहने दो ...... तुम देखोगे की दुनिया कितनी सुन्दर है!
मधु कांकरिया
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