बुधवार, 23 अक्तूबर 2024

सिनारिओ : शेखर जोशी

 

कहानी

सिनारिओ : शेखर जोशी

 

 

अपना सफरी थैला, स्लीपिंग बैग और फोटोग्राफी का भरपूर सामान लेकर जब वह गाँव पहुँचा, सूर्यास्त का समय हो चला था। महेश का घर ढूँढ़ने में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई। आमाँ घर पर नहीं थीं, एक छोटी-सी बारह-तेरह वर्ष की बच्ची, जो शायद महेश की लड़की थी, और जैसा उसने बताया था कि गाँव में दादी के साथ रहती है, पथरीले आँगन में बैठी, गुट्टियों से खेलने में तल्लीन थी!

 

अपना सामान आँगन की दीवार पर रखकर रवि सामने फैले हुए हिमशिखरों को एकटक देखता ही रह गया। महेश ने ठीक ही कहा था, उसने सोचा। हिमालय का ऐसा विस्तृत और अलौकिक फलक उसने पहले कभी नहीं देखा था। आसमान साफ था । अस्त होते हुए सूर्य का आलोक किन्हीं अदृश्य दिशाओं से आकर उस सम्पूर्ण हिम-विस्तार को सिन्दूरी आभा से भर गया था। धीरे- धीरे वह सिन्दूरी आभा बैंगनी रंग में परिवर्तित होने लगी और पर्वत श्रृंखला की सलवटें गहरी श्यामल रेखाओं में अपनी पहचान बनाने लगी थीं।

 

रवि की कल्पना आकाश छूने लगी। वह अपने वृत्तचित्र की ओपनिंग कुमारसम्भव की पंक्तियों के पाठ से करेगा 'अस्तुत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः' गुरु गम्भीर स्वर, पहाड़ी चरवाहे की मधुर वंशी ध्वनि और धीरे-धीरे चीड़-देवदारु के वनों से होता हुआ कैमरा का फोकस क्रमशः हिम मण्डित शिखरों को उद्घाटित करेगा और अन्त में यह विस्तृत फलक अपनी सम्पूर्ण गरिमा और भव्यता के साथ पूरे पर्दे पर मूर्त हो उठेगा। अपनी योजना की तैयारी में उसने संस्कृत काव्यसम्पदा ही नहीं, हिन्दी कविता, लोकगीतों और लोकधुनों का भी विस्तृत अध्ययन किया था। कॉमेण्ट्री और पार्श्व संगीत के लिए जो कुछ उपादेय हो सकता था, उन्हें अपने नोट्स में शामिल कर लिया था। हिमशृंगों की बदलती हुई रंगत को देखकर सुमित्रानन्दन पन्त की पंक्तियाँ उसके मस्तिष्क में कौंध गयींपल-पल परिवर्तित प्रकृति वेशकितनी सटीक और कितनी प्रासंगिक रहेंगी ये पंक्तियाँ, उसने सोचा।

 

अब गाँव के निकट की पहाड़ियों के ऊपर भी धुँधलका छाने लगा था। सिर पर लकड़ी का छोटा-सा गट्ठर सँभाले, कमर में घाघरे के फेंट में दराँती खोंसे, लाठी टेकती हुई आमाँ ने घर के निकट पहुँचकर 'सरुली, चेली !' आवाज दी तो रवि की एकाग्रता भंग हुई और उसने अपनी उपस्थिति का एहसास कराने के लिए ही जैसे आमाँ के सम्मुख आकर 'राम-राम' कहा।

 

एकाएक एक सम्भ्रान्त परदेसी को सामने पाकर आमाँ क्षण-भर के लिए असहज हो उठीं। लेकिन रवि के मुँह से महेश का नाम सुनकर और कुछ दिन पूर्व प्राप्त महेश के पत्र से इसका सन्दर्भ जोड़कर वह आश्वस्त ही नहीं हुईं बल्कि अपनी अनगढ़ भाषा में महेश और बाल-बच्चों की कुशल जानने के लिए व्यग्र हो उठीं। आमाँ का निष्कपट, सहज व्यवहार रवि को अच्छा लगा। प्रारम्भ में उसके मन में इस अपरिचित वातावरण के लिए जो संकोच था, वह दूर हो गया और वह सहज भाव से घर में प्रवेश कर गया।

 

वह पत्थर की दीवारों और पथरीली स्लेटों की ढलवाँ छतवाला छोटा- सा घर था। निचले खण्ड में एक रसोईघर और उसके पिछवाड़े ढोर-पशुओं की कोठरी थी। एक ओर बनी हुई सीढ़ियों से ऊपर पहुँचने पर छोटा बैठका और उसके पीछे एक ओर छोटी कोठरी थी जहाँ कोने में लाल मिट्टी से पुते हुए छोटे चबूतरे पर कुछ मूर्तियाँ और ताँबे पीतल के पूजा के बर्तन रखे हुए थे।

 

आमाँ ने चाख का किवाड़ खोल, बाँस की चटाई पर एक कम्बल फैलाकर उसे आराम करने की सलाह दी और सीढ़ियाँ उतरकर गोठ में जाकर व्यस्त हो गयीं। सरुली द्वार से सटकर खड़ी हुई एकटक उसे देखे जा रही थी। रवि को पहली बार अपनी भूल का अनुभव हुआ। महेश शायद संकोच के कारण उसके हाथों घर के लिए कुछ भिजवा नहीं पाया था लेकिन अपने सैलानी स्वभाव के विपरीत उसे अपना यूँ खाली हाथ चले आना खलने लगा।

 

में थोड़ी देर बाद आमाँ एक हाथ में दीया और दूसरे हाथ में पीतल के गिलास चाय लेकर आ गयीं। सरुली ने अन्दर की कोठरी में जाकर चबूतरे पर दीया रखकर घण्टी टुनटुना दी। वह शायद बालसुलभ भक्तिभाव से वहाँ स्थापित देवी देवताओं की पूजा-आरती कर रही थी। थोड़ी देर बाद उसी दीये को लेकर वह चाख में आ गयी और उसे दीवार के ताख पर रखकर आमाँ से सटकर बैठ गयी। आमाँ रवि के बारे में सबकुछ जानना चाहती थीं-माता, पिता- भाई, बहन सभी के बारे में विस्तृत जानकारी। यह भी कि उसकी कैसी है, बहू बच्चे कितने बड़े हैं कि महेश उनका काम ठीक-ठीक करता है, वे उससे अप्रसन्न तो नहीं? यह सुनकर कि वह अभी अविवाहित है, आमाँ जैसे और भी ममतामय हो उठी थीं। उन्हें जितनी बातें कहनी थीं वैसी भाषा वे नहीं जुटा पा रही थीं। और कभी-कभी ठेठ पहाड़ी बोली पर ही उतर आती थीं। ऐसे मौकों पर, रवि का असमंजस भाँपकर सरुली दुभाषिये की भूमिका निभाने लगती थी ।

 

आमाँ सरुली को 'सैप' के पास बिठाकर झुकी कमर लिये हुए फिर सीढ़ियाँ उतर गयीं। दीये के मन्द प्रकाश में कुछ लिख-पढ़ पाना सम्भव नहीं था। रवि अपना मन बहलाने के लिए सरुली से बतियाने लगा। अब तक सरुली की झिझक मिट चुकी थी और वह वाचाल होकर अपनी पढ़ाई-लिखाई, घर- परिवार और गाँव-पड़ोस की बातों में रम गयी थी। काफी देर बाद जब आमाँ लौटीं तो वह थाली में भोजन लिये हुए थीं ।

 

रात में रवि चाख में अकेला ही सोया था। दीये की बाती को धीमा कर और किवाड़ उढ़काकर आमाँ सरुली को लेकर गोठ में सोने के लिए चली गयी थीं। सोने से पहले रवि ने खिड़की के पल्ले खोलकर एक बार फिर सामने फैली हुई हिम-श्रेणियों की ओर देखा। चाँदनी के आलोक में चाँदी के पहाड़ अलौकिक सौन्दर्य की सृष्टि कर रहे थे। रवि मन-ही-मन फिर अपनी सैटिंग में खो गयाऊँचे त्रिकोणीय वृक्षों से ढँके अँधेरे पहाड़ों का सिलहुट और उसके कण्ट्रास्ट में ये रजत शिखर.... पार्श्व-ध्वनि के लिए कौन-सी कविता ठीक रहेगी

 

सुबह के झुटपुटे में किवाड़ों की चर-मर और कमरे में किसी के चलने की आवाज सुनकर उसकी नींद उचट गयी। एक बौनी आकृति कमरे की दीवारों को टोहती हुई एक ओर से दूसरी ओर आ-जा रही थी। फिर उसे लगा, वह आकृति खूँटी पर टँगे उसके कपड़ों को टटोल रही है। आशंका से चौंककर रवि ने सिरहाने पड़े टार्च को जलाकर उसका प्रकाश उस धुँधली आकृति पर केन्द्रित कर दिया। आमाँ थीं। हाथों के संकेत से उन्होंने जानना चाहा कि क्या उसके पास माचिस होगी ? रवि ने शंकित दृष्टि से उनकी ओर देखा । वास्तव में वह उनकी जिज्ञासा से आश्वस्त नहीं हुआ था। फिर उसने '' कह दिया और यही सचाई भी थी। टार्च के धीमे प्रकाश में, जो अब सीधे आमाँ की ओर केन्द्रित नहीं था, उन्होंने उत्सुकता से टार्च की ओर इशारा कर पूछा कि उससे आग जल सकेगी? आमाँ के भोलेपन पर रवि मुस्कुरा दिया और उसने अपनी लाचारी प्रकट कर दी। आमाँ अपनी विपदा सुनाने लगीं। उनकी खिचड़ी भाषा का आशय था कि ऐसा बुरा वक्त आ गया है, अब बाँज की लकड़ियाँ नहीं मिल पातीं और चीड़ के कोयलों की दबी आग सुबह तक चूल्हे में नहीं रहती। स्पष्ट था कि माचिस का खर्च का भार उनके लिए महँगा पड़ता था।

 

रवि पूरी तरह जाग चुका था। नीचे गोठ से आमाँ की पुकार सुनाई दे रही थी। वह सरुली को जगा रही थीं। शायद गहरी नींद में सोई बच्ची उठने में अलसा रही थी इसी कारण आमाँ की पुकार का क्रम कुछ क्षणों तक चलता रहा।

 

रवि ने खिड़की खोल दी। ठण्डी हवा का झोंका उसके बदन में सिहरन भर गया। अभी आसमान में सूरज का कहीं कोई चिह्न नहीं दिखाई दे रहा था लेकिन बाहर रात का अन्धकार पूरी तरह समाप्त हो चुका था। हिमशिखरों पर जैसे किसी ने पिघला सोना उड़ेल दिया हो, उगते सूर्य के स्वर्णिम प्रकाश ने अपना जादू बिखेरना शुरू कर दिया था।

 

रवि ने देखा, सरुली एक चादर लपेटे सिकुड़ी-सिमटी नंगे पाँव सामने की पगडण्डी पर जा रही है, झगुले से बाहर उसकी पतली टाँगें चिड़िया के पैरों की तरह फुदक-फुदककर आगे बढ़ रही थीं। दायें हाथ में झूलता लम्बा पीतल का करछुल हिम शिखरों की ही तरह चमक-चमक जाता था। रवि बहुत सोचने पर भी सरुली के जाने के उद्देश्य का अनुमान नहीं लगा पाया। उत्सुकतावश उसकी आँखें सरुली का पीछा करने लगीं। पगडण्डी के मोड़ तक वह उसे जाते हुए देखता रहा और फिर वह उसकी आँखों से ओझल हो गयी। आगे पेड़ों की ओट में किसी ऊँचे मकान की पथरीली ढलवाँ छत दिखाई दे रही थी। रवि की नजर उस ओर टिकी रह गयी। थोड़ी देर बाद सरुली उसी रास्ते से लौटकर आती हुई दिखाई दी। इस बार उसने करछुल सीधी थाम रखी थी और अब उसकी चाल में पहले की तरह चिड़िया के पैरों की फुदकन नहीं थी । वह सधे पैरों से, धीमे-धीमे अपने हाथ की करछुल को सँभाले चली आ रही थी। तेज हवा के कारण उसके बालों की लटें और चादर का एक ढीला कोना एक ओर को उड़ते हुए दिखाई दे रहे थे। अब वह रवि की खिड़की के समानान्तर, खुले मैदान में आ पहुँची थी।

 

शायद कुछ अप्रत्याशित हुआ था। पैर में लगी ठोकर या जमे हुए तुषार की चुभन कि सरुली अपना सन्तुलन खो बैठी और उसकी करछुल उलट गयी। उस बड़े मकान से माँगकर लाये हुए अंगारे तुषार भीगी धरती पर बिखर गये थे। सरुली झुककर नंगी अँगुलियों से उन्हें उठा-उठाकर फिर करछुल में रखने लगी। शायद उनकी आँच बुझ चुकी थी। लेकिन कहीं कोई उम्मीद शेष रही होगी कि सरुली करछुल को मुँह के निकट लाकर फूँकने लगी और साथ ही उसके पैर भी घर की ओर बढ़ते रहे। अपनी असमर्थता पर रवि को ग्लानि होने लगी। शरीर पर पुलोवर डाल, सीढ़ियाँ उतरकर वह भी गोठ तक चला आया। दरवाजे पर खड़े-खड़े उसने देखा, बच्ची और बुढ़िया दोनों ही बारी- बारी से फूँककर किसी नि:शेष अंगार के कोने में बची हुई हलकी आँच को जीवित करने की कोशिश में जुटी हुई हैं।

 

और सच ही, उस आँच का वृत्त धीरे-धीरे फैलने लगा। फिर दूसरे कोयलों ने आँच पकड़ी और देखते-देखते करछुल दमक उठी।

 

आमाँ ने सूखी फूस और लकड़ियों के बीच में करछुल रखकर फूँक मारी तो लकड़ियाँ भभककर जल उठीं। पूरा गोठ एकबारगी आलोकित हो उठा। चूल्हे के पास बैठी आमाँ के चेहरे की झुर्रियाँ जैसे उस सुनहरे आलोक से खिल उठीं।

 

रवि को सहसा आभास हुआ कि काश! इस रंगत को वह अपने कैमरा से पकड़ पाता।

शनिवार, 8 जून 2024

रतिनाथ का पलंग: सुभाष पंत

◆रतिनाथ का पलंग
◆सुभाष पंत

बावन साल की उमर में रतिनाथ की जिन्दगी में एक ऐसा दिन आया जब वह बेहद खुश था और अपने को दुनिया का सबसे सुखी प्राणी अनुभव कर रहा था। यूँ यह कोई ख़ास दिन नहीं था, सन् उन्नीस सौ अस्सी मई की पहली तारीख़ थी। मौसम काफी गरम था। इतना कि बोलते हुए मुँह से शब्द 
बाद में निकलता था, माथे पर पसीजकर बूँदों की शक्ल में पसीना पलकों से पहले टपक पड़ता था। लू थी और दिन लम्बे और उबाऊ थे। कर्जदार की छाती पर सवार बारीवाले की तरह सूरज आसमान से आसानी से टलने का नाम ही नहीं लेता था। लेकिन रतिनाथ खुश था और बहुत खुश था। उसे सब कुछ बड़ा प्रेरणादायक लग रहा था। धपधपाते आसमान में उसे हवा की खुनक, चिड़ियों का संगीत और फूलों की महक का आभास हो रहा था। वह अपने को इतना हल्का अनुभव कर रहा था कि हाथ फैलाकर हवा में उड़ सकता था और साथ ही उसमें ऊर्जा का इतना आवेग था कि कूदने से आसमान को छू सकता था।
 
इस अपार खुशी की वजह यह थी कि कर्ज अदायगी की आख़री किश्त पिछली तन्ख्वाह में कट चुकी थी और इस बार अनिवार्य कटौतियों के बाद पूरा वेतन उसके हाथ में था। और यह कोई सामान्य बात नहीं थी। यह सुखद अवसर कितने अरसे के बाद आया था, उसे कतई याद नहीं पड़ रहा था। वह भूल चुका था कि इससे पहले कब उसे पूरा वेतन मिला था और उस वक्त उसके हृदय में कौन सा फूल खिला था? उसने अपनी तीन बेटियों की पढ़ाई, उनका विवाह, पत्नी की बिमारियाँ, रिश्तेदारी की औपचारिकताएँ तथा अन्य दीगर खर्चे कर्ज निकालकर ही निबाहे थे। इसके अलावा उसके पास और कोई जरिया भी नहीं था। उसका एक कर्ज पूरा भी नहीं हो पाता था कि दूसरा सिर पर चढ़ जाता था। उसे कतई विश्वास नहीं था कि वह कर्ज के इस चक्कर से कभी मुक्त हो सकेगा। लेकिन वह अपनी मितव्ययता से आखिर इस चक्कर से मुक्त हो ही गया और वह भी बावन साल की उमर में और फिलहाल उसे ऐसा कोई आसन्न संकट भी दिखाई नहीं पड़ रहा था कि उससे निबटने के लिए तत्काल कर्ज निकालने की ज़रूरत होगी। बेटियाँ ब्याही जा चुकी थी। बेटे ने फर्स्ट डिविजन में हाई-स्कूल पास कर लिया था और वह विज्ञान विषय के साथ फर्स्ट इयर में पढ़ रहा था। उसकी फीस माफ थी। दफ्तर से चुराए कागजों से उसने बेटे के लिए पन्द्रह-बीस कॉपियां बना रखी थी और तकरीबन एक दर्जन बालपेन और इतने ही सिक्के भी जमा कर रखे थे। यानी बेटे की तात्कालिक जरूरतें पूरा करने में वह सक्षम था। संयोग से अमूमन बीमार रहने वाली उनकी पत्नी भी इन दिनों स्वस्थ चल रही थी। माता-पिता बूढ़े हो चुके थे और उनकी आशा-आकांक्षा अभावों के गर्त में दफ़्न हो चुकी थीं और वहाँ से करवट लेकर बाहर झांक सकने की संभावना अब नहीं के बराबर थी। यानी, बावन साल की उमर में उसके सामने एक ऐसा अवसर आया था कि वह अपने बारे में सोच सके। कुछ ख़ास और अहम।

   घर पहुँचकर उसने थैला खूंटी से लटकाया और अपनी पत्नी को आवाज दी, ‘‘अरे, सुनती होऽऽऽ’’
   पत्नी छत पर बड़ियां लगा रही थी। आवाज़ सुनकर वह पीठी-सने हाथ लिए नीचे उतरी। 
‘‘क्या बात है?’’ उसने पूछा।
   ‘‘बात तो कुछ नहीं,’’ उसने कहा, ‘‘लेकिन क्या यह जरूरी है कि जब भी मैं दफ्तर से लौटूँ तो तुम मुझे काम करती ही मिलो।’’
    पत्नी को आश्चर्य हुआ। अकसर तो वे दनकते हुए दफ़्तर से लौटते थे। मरखन्ने बैल से। आज यह क्या हुआ? वह असहज हो गई।
   ‘‘यहॉं बैठो मेरे पास।’’ रतिनाथ ने कहा।
   पत्नी उदक गई। ‘‘मेरी पीठी सूख रही है।’’
   ‘‘उसे गोली मारो। आदमी को कभी कोई क्षण सुख-शान्ति से भी बिताना चाहिए। हम सिर्फ कोल्हू के बैल नहीं है। समझीं तुम।’’
   पता नहीं क्या हुआ? पत्नी की आँखें भर आईं। लेकिन उसे आँसू पोछने में शर्म-सी महसूस हुई। इतनी पक्की उमर की औरत का सहानुभूति के हल्के परस से विह्वल हो जाना सम्मानजनक तो नहीं ही कहा जा सकता।
   रतिनाथ ने अपना हाथ बढ़ाकर उसका हाथ थाम लिया और फुसफुसाया, ‘‘पारवती।’’

   पारवती जवाब देना चाहती थी, नहीं दे पाई। उसने उनके हाथ की तरफ देखा जिस पर आकाशबेल की तरह नसों का नीला गुच्छा उभरा हुआ था। वह भयभीत हो गई, वे जरूरत से ज्यादा बुढ़ा गये हैं। साथ रहते हुए भी उसे इस बात का अहसास इससे पहले क्यों नहीं हुआ? शायद इसकी वजह यह रही हो कि वह आज उन्हें सिर्फ देख ही नहीं रही थी, बल्कि महसूस भी कर रही थी....

   ‘‘दरसल मैं सोच रहा हूँँ कि हमें अपनी जिन्दगी नए सिरे से शुरू करनी चाहिए।’’
   पारवती को आश्चर्य हुआ। उनके पैर जीवन की ढलान की ओर बढ़ चुके हैं। अब तो बची-खुची किसी तरह से निभ जाए, यही बहुत है। ऐसे वक़्त जिन्दग़ी को नए सिरे से आरम्भ करने का उनका आमंत्रण उसे बड़ा बेतुका और हास्यास्पद लगा। 
   ‘‘यह बात मैं बहुत गम्भीरता से कह रहा हूँ।’’
   ‘‘बड़ियाँ लगा लूँ फिर आपकी बात सुनती हूँ।’’
   रतिनाथ को अफ़सोस हुआ। पारवती उसकी बात सुनने की जगह बड़ियों को ज्यादा महत्व दे रही है। उसने मजबूती से कहा, जिसके भीतर कहीं कोई हल्का-सा दर्द भी था, ‘‘नहीं, तुम्हे पहले मेरी बात सुननी होगी।’’
   पारवती ने देखा कि उनके चेहरे पर जीवन के प्रति गहरी शिद्दत का रंग था। वह चुपचाप रतिनाथ की बगल में बैठ गई। उत्सुक और सहमी हुई।

   ‘‘मेरे रिटायरमेंट को अब छः साल रह गए हैं,’’ उसने कहा, ‘‘परमात्मा की कृपा से तीनों बेटियों की शादियां हो गई हैं। मेरे सारे कर्ज निबट चुके हैं और मुझे पूरा वेतन मिलने लगा है, जो मेरे जैसी छोटी नौकरीवाले, ईमानदार और जिम्मेदारियों से भरे आदमी के लिए छोटी बात नहीं है। अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए अब तक हमने गधे और सुअर की जिन्दगी जी है। अब यह बची हुई जिन्दगी हमें अपनी तरह से जीनी चाहिए। लेकिन मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि इसकी शुरुआत कहाँ से करें?’’
   ‘‘अभी हमारी जिम्मेदारियाँ कहाँ खतम हुईं?’’ पारवती ने कहा, ‘‘बिट्टू को पढ़ाना है। उसका ब्याह करना है। माँजी-पिताजी का बुढ़ापा, हारी-बिमारी और......ये जिन्दगी तो समर भूमि है......जिसमे हर टैम लड़ते रहना और लड़ते-लड़ते मर जाना है।’’
   ‘‘बिट्टू को अपने पैरों पर खुद खड़ा होना चाहिए। वह होशियार है और खुद खड़ा हो जाएगा। रही माँजी-पिताजी की बात तो यह तो हमारी जिन्दगी से बंधी डोर है, अपने आप खिंचती चलेगी। और फिर, हम जिन्दगी सिर्फ दूसरों के लिए ही तो लिखाकर नहीं लाए हैं। कभी तो हमें अपने बारे में भी सोचना चाहिए। सलाह दो हम इसे कहाँ से शुरू करें?’’
   वह उलझन में पड़ गई। जिन्दगी तो ऊन की गुच्छी की तरह उलझी हुई है, जिसका सिरा ढूँढे नहीं मिलता। दरसल वह जीवन-संघर्षों से बुरी तरह थक चुकी थी और अपने बारे में सोचने की ताक़त वह खो चुकी थी।
   ‘‘सोचता हूँ तुम्हारे लिए एक सिल्क की साड़ी खरीद दूँ।’’
   पारवती अभिभूत हो गई। अब तक तो वह यही सोच रही थी कि उनके बीच का प्यार लम्बे संघर्षों में पथरा गया है। लेकिन नहीं, वह तो ज्यादा निखरकर वापिस लौटा है। उसके सीने में एक नन्हा खरगोश कुलाँचें भरने लगा। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है। जब मन में पहनने-ओढ़ने की हौंस थी तब.....अब तो तीस साल होमकुण्ड में जलकर सब कुछ स्वाह हो गया। वह पारवती नहीं लौट सकती जिसके दिल में हजारों सपने थे। कभी नहीं लौट सकती....
   ‘‘मुझे साड़ी की जरूरत नहीं है,’’ उसने आभारी स्वर में कहा, ‘‘अब तो मोटा-झोटा पहनने की आदत हो गई है। इस उमर में साड़ी पहनती कैसी लगूँगी भला! बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम।’’
   रतिनाथ को उसका यह हतोत्साहित रवैय्या पसंद नहीं आया। लेकिन वह जो कुछ सोच रही थी, उसे झुठलाया भी नहीं जा सकता था।
   ‘‘मैं सोचती हूँ,’’ उसने कहा, ‘‘अगर पैसों की कुछ सुविधा हो तो खाने-पीने में कुछ सुधार कर लें। मोटे चावल, घटिया दालें और सड़ी-गली सब्जियाँ खाते सभी की सेहत खराब हो गई है।’’
   रतिनाथ घबरा गया मानो पारवती ने कोई बहुत ख़तरनाक बात कह दी हो। फिर वह संभलकर उसे समझाने लगा, ‘‘यह अपने बूते से बाहर की बात है। एकमुश्त दो-चार-पाँच हजार रूपया खर्च किया जा सकता है। लेकिन रैकरिंग खर्च बरदाश्त नहीं किया जा सकता। यह अर्थशास्त्र का संकट है और यहीं आकर आदमी लाचार हो जाता है।’’
   पारवती की समझ में कुछ नहीं आया। यह उजबक की तरह उसका मुँह देखने लगी।
   ‘‘यह आदमी को भीतर से पूरी तरह दरिद्र और बाहर से चमकदार बनाए रखने की अर्थशास्त्र की चालाकी है।’’ रतिनाथ ने कहा, ‘‘देखो, एक टी.वी. तीन हजार से बत्तीस सौ का हो जाता है तो निभ जाता है, क्योंकि यह जीवन में एक या ज्यादा से ज्यादा दो बार खरीदा जाता है। लेकिन अगर दाल दस की जगह ग्यारह रुपये हो जाती है या चीनी छः की जगह सात रुपये किलो हो जाती है तो यह मंहगाई आदमी को जहर की तरह मारती है और उसे अपने को जिन्दा रखने के लिए कहीं न कहीं कटौती करनी पड़ती है।’’

   पारवती और उलझन में फँस गई। एक ओर तो ये नये सिरे से जिन्दगी शुरू करना चाहते हैं, दूसरी ओर इनकी इतनी सामर्थ्य भी नहीं है कि सड़ी सब्जियों की जगह ताज़ा सब्जियाँ ला सकें। आखिर इनकी मंशा क्या है? जिन्दगी जैसी चल रही है, चलने दें.....अब रह ही कितनी गई है.....असली जिन्दगी तो अभावों के अंधेरे में कट चुकी है।

   ‘‘तुमने बताया नहीं......’’

   ‘‘घर की मरम्मत करा लेना ठीक रहेगा......एकदम जर्जर हो गया है। अंधड़ में इसकी दीवारें काँंपती हैं और बरसात में बाहर कम बरसता है, भीतर ज्यादा।’’

 रतिनाथ के चेहरे पर एक करुण मुस्कान उभरी और वह बिना एक भी शब्द बोले पारवती के चेहरे की ओर देखने लगा। उसका चेहरा किसी अजनबी के चेहरे में तब्दील हो गया। वह अन्दर तक और बुरी तरह आहत हो गया।
   पारवती को अपनी गलती का अहसास हो गया। अनजाने में उसने उनकी कोई दुखती नस को छू दिया है। उसने कातर विनम्रता से कहा, ‘‘नहीं.....नहीं मेरा मतलब....’’
   ‘‘तुम्हारा मतलब जो भी रहा हो लेकिन एक बात साफ है कि तुम व्यावहारिक बिल्कुल भी नहीं हो। तुम क्या सोचती हो कि तनख्वाह में कर्ज अदायगी के चार-पॉंच सौ बढ़ जाने से मेरी औकात मकान मरम्मत कराने की हो गयी। जानती हो एक ईंट मय मसाले के एक रूपये की पड़ती है? रिटायरमेंट पर अगर सब कुछ ठीकठाक रहा तब इसके बारे में सोचा जा सकता है।’’   
   इस बार पारवती अतिरिक्त रूप से सचेत होकर सोचने लगी। तर्क और विवेक के साथ कोई ऐसा प्रस्ताव रखा जाए जिसे तुरन्त सहमति मिल जाए। काफी सोच-विचार के बाद उसने कहा, ‘‘तो फिर एक टी.वी. खरीद लेते हैं।’’
   ‘‘टी.वी....’’ रतिनाथ क्षणभर के लिए रुका, फिर उसने नकार में सिर हिला दिया। ‘‘टी.वी. हमारी संस्कृति पर गम्भीर हमला है और यह आदमी की मौलिक सोच को पंगु बना देता है। यह तो समझो टी.बी. की बिमारी है और यह आदमी का बहुत वक्त चुरा लेता है......वह कीमती वक्त जिसमें काफी कुछ महत्व का काम किया जा सकता है......बिट्टू की पढ़ाई पर इसका कितना असर पड़ेगा, सोचा कभी? फिर दो-चार साल में उसकी शादी होगी तो टी.वी-फी.वी तो उसमें मिलेगा ही। कुछ और सोचकर बताओ......’’
   ‘‘मेरा दिमाग तो फेल हो गया,’’ पारवती ने कहा, ‘‘मैं चाय बना लूँ। अब तुम्ही सोचो।’’ और वह चाय बनाने चली गई।
   जब तक वह चाय बनाकर लाई, तब तक रतिनाथ गम्भीरता से कुछ सोच चुका था और मन्द-मन्द मुस्कुरा रहा था। चाय का घूँट भरकर ताजादम होते हुए उसने कहा, ‘‘सोचता हूँ डबल बेड बनवा लें। फोल्डिंग पलंग पर सोते-सोते तो कमर दोहरी हो गई।’’
   पारवती के हिये में एक नन्ही-सी चिड़िया पंख फड़फड़ाने लगी। डबल बेड पर सोने का अरमान तो पता नहीं कब से उसके मन में भी था। उसकी आँखें लाज से काँपने लगीं।
   ‘‘क्या सोचती हो?’’ रतिनाथ ने उसे कुरेदा।
   ‘‘जरा साचो तो ठेले पर डबल बेड लदा आ रहा है और पीछे-पीछे तुम मटकते चल रहे हो तो कैसा लगेगा! दुनिया क्या कहेगी?’’

   ‘‘दुनिया का काम तो गाल बजाना है। मैं तुम्हे अकसर बाप, बेटे और गधे की कहानी सुनाता हूॅं। तुमने उससे भी कोई प्रेरणा प्राप्त नहीं की। दुनिया की परवाह की तो जी नहीं सकोगी।’’

   पारवती ने उस समय प्रेरणा प्राप्त की हो या न की हो जब रतिनाथ ने उसे यह कहानी सुनाई थी, लेकिन इस समय वह प्रेरणा से लबालब थी। उसने उत्साह से पूछा, ‘‘कितने का बनेगा?’’
   ‘‘बॉक्स और रैक्सवाला लगभग चार हजार का।’’
   ‘‘चार का.....’’ वह चिहुँक गयी।
   ‘‘दो के कॉयर फोम के गद्दे।’’
   ‘‘बाबा रे!’’
   ‘‘चादरें और तकिए लगभग पाँच सौ के।’’
   ‘पाँच सौ!’’
   ‘‘यानी, कुल मिलाकर हुए साढ़े छः हजार।’’
   ‘‘सिर्फ सोने भर के लिए साढ़े छः हजार का खरचा! ऐसी औकात तो हमारी नहीं है। माँजी-पिताजी क्या कहेंगे?’’
   ‘माँ-बाप बच्चों के सुख से सुखी होते हैं।’’
   ‘‘खैर रहने दो.....तुम्हारी माँ ऐसी तो नहीं है।’’
   ‘‘यह सब बाद में देखा जाएगा।’’
   ‘‘रुपया कहां से आएगा?’’
   ‘‘फंड से लोन निकाल लूंगा।’’
   ‘‘फिर वही कर्ज का चक्कर।’’
   ‘‘दरअसल अब उधार की आदत पड़ गई है, धोबी के गधे की तरह। उसकी पीठ पर बोझ कम हो तो वह चलने से इनकार कर देता है।’’

अगले रोज दफ्तर पहुँचकर रतिनाथ ने पहला काम किया कि जी.पी.एफ. से भतीजी की शादी के नाम पर सात हजार कर्ज लेने का आवेदनपत्र लाइन में लगा दिया। और दफ़्तर से छूटने के बाद वह सीधा ‘स्टैन्डर्ड फर्नीचर मार्ट’ पहुँच गया। दुकानदार उनका जानकार था। उन्हें देखकर प्रसन्न हुआ और बोला, ‘‘रतिनाथजी, आज इधर का रास्ता कैसे याद आ गया?’’
   रतिनाथ का चेहरा गर्वोन्नत था। बोला, ‘‘एक डबल बेड बनवाना है।’’
   ‘‘अभी कोई बिटिया शादी-ब्याह के लिए रह गयी है क्या?’’
   ‘‘मेहरा साहब आपकी दुआ से सबके ब्याह हो गए। गंगा नहा लिया।’’
   ‘‘तो फिर....’’
   ‘‘तो फिर का क्या मतलब?’’ रतिनाथ नाराज़ हो गया, ‘‘क्यों भई, हम डबल बेड पर नहीं सो सकते क्या?’’
   ‘‘क्यों नहीं साहब.....वो बात नहीं, मेरा मतलब है, घर के लिये बनवाना है तो चीज बढ़िया होनी चाहिए न।’’
   ‘‘घर के लिए ही चाहिए।’’ रतिनाथ सहज हो गया।
   ‘‘आप डिजाइन सिलेक्ट करिए। ऐसा शानदार चीज बनाकर दूंगा, जो सिर्फ पलंग ही नहीं, आर्ट का पीस होगा।’’
   उसने एक डिजाइन पसन्द कर लिया।
   ‘‘वह साहब! बड़ी ऊँची च्वाइस है आपकी।’’
   ‘‘कब तक बन जाएगा?’’
   ‘‘जब आप हुकम करें।’’
   रतिनाथ ने अनुमान लगाया सामान्य रूप से फंड का पैसा मिलने में बीस-पच्चीस दिन तो लग ही जायेंगे। उसने कहा, ‘‘महीने भर में बना दीजिये।’’
   ‘‘ठीक साहब। सनमाइका किस कलर का चलेगा?’’
   ‘‘मेरे खयाल में क्रीम कलर का प्लेन माइका ठीक रहेगा।’’
   ‘‘मैं भी आपको यही रंग तजवीज करता।’’
   रतिनाथ खुश हो गया। अभावों और संघर्षों की लम्बी मार के बाद भी उसका सौन्दर्य-बोध अभी जीवित था।
   ‘‘पाये शीशम के ही होंगे न।’’
   ‘‘बिलकुल। आपके लिए खास डाट चिरवाऊँगा। माल क्या, समझो सोना है।’’
   ‘‘कीमत क्या होगी?’’
   ‘‘आप हमारे पुराने गाहक हैं, आपसे दो पैसे कम ही लेंगे। हिसाब बाद में लगता रहेगा। मोटा अंदाज है, चार सवा चार के आसपास बैठेगा।’’
   ‘‘ठीक है, तो अगले महीन इसी तारीख को.....’’
   ‘‘आप बिल्कुल फिकर न करें।’’
   रतिनाथ ने बयाना दिया और सुखी आत्मा के साथ घर लौट आया। चाय पीकर वह अपने फोल्डिंग पलंग पर लेटा तो उसे वह बहुत असुविधाजनक लगा। लेकिन कोई बात नहीं, बस महीने भर की ही तो बात है। फिर तो उसके पास एक ऐसा चमकदार माइका का पलंग होगा जिसमें वह अपनी शक्ल भी देख सकेगा। सहसा उसे लगा कि उसने एक महीने का समय देकर गलती की है। डीलिंग कलर्क को चाय-पानी पिलाकर फंड जल्दी निकाला जा सकता था। एक महीने का इन्तज़ार उसे भारी लग रहा था।


आगे ठेली पर पलंग लदे थे और उसके पीछे रतिनाथ चल रहा था। कोई परिचित मिल जाता तो वह थोड़ा असहज हो जाता, जैसे कोई अपराध कर रहा हो। परिचित के चेहरे पर भी व्यंग्य की कमान खिंच जाती-कव्वा भी हंस की चाल चलने लगा। ठेली मुहल्ले में पहुँची तो उनींदा मुहल्ला चौंककर जाग गया और उसकी खिड़कियाँ-दरवाजे कनफूसियाँ करने लगे।
   पलंग आँगन में उतरे तो आंगन महक गया। वे सलीके से कमरे में पहुँचे तो कमरे की आब बदल गयी। माँ दोतल्ले के ओसारे में बैठी रामचरित मानस बाँच रही थी। उसे लगा कि घर में कोई गम्भीर किस्म का षडयंत्र रचा जा रहा है। उसने आँगन में पलंग उतरते देख लिए थे। वह घुटनों पर हाथ रखकर उठी और हाँफते हुए साढ़ियाँ उतरकर नीचे आई और विस्फारित नयनों से पलंग को कुछ देर तक देखते रहने के बाद बोली, ‘‘ऐनक तो एकदम उतर गई है, कुछ दिखता ही नहीं। कितनी बार कहा-इसे बदल दो पर बुड्ढे-ठेरों की कौन सुनता है?’’
   ‘‘माँ ये पलंग है। डबल बेड। आँख से मानस की चौपाई दिखती है, तो इतने बड़े पलंग क्यों दिखाई नहीं दिए?’’ रतिनाथ ने झुंझलाते हुए कहा।
    ‘‘अच्छा डबल बेड! भौत ठीक किया। कित्ते का बना?’’ पलंग के चिकने माइका पर हाथ फिराते हुए उसने पूछा।
    रतिनाथ को यह टोका-टोकी अच्छी नहीं लगी। उसकी गांठ से तो दाम जा नहीं रहे हैं, पर टांग अड़ायेगी जरूर। चलती बेला है। दुनियादारी छोड़कर रामनाम सुमरना चाहिए।
    पारवती बहुत व्यावहारिक और चतुर थी। इससे पहले कि मामला बिगड़ जाए वह बीच में कूद पड़ी और बोली, ‘‘येई कोई हजार-डेढ़ हजार का है माँजी।’’
    उसने पलंग की कीमत उसकी वास्तविक कीमत से काफी कम बताई थी ताकि माँजी की आत्मा को क्लेश न हो। पर उसकी आत्मा यह कीमत सुनकर भी बिदक गई। ‘‘डेढ़ हजार!’’ उसने जलन भरे आश्चर्य से कहा, ‘‘कैसी आग लग गई जमाने पर, अब तो मुए पलंग भी डेढ़ हजार के बनने लगे। पलंग नी हुआ स्वर्ण सिंघासन हो गया। इतने रुपयों में तो चारों धामों की जात्रा हो जाती......पैसा कमाना जितना जरूरी है उसे जतन से संभालना उससे भी जादा जरूरी है।’’
   उसकी बात सुनकर रतिनाथ के भीतर तेजाब-सा कुछ फैल गया लेकिन वह कुछ बोला नहीं और खून का घूँट पी कर चुप रह गया। पारवती भी चुपचाप सिर झुकाकर रसोई में चली गई।
   माँ ने देखा कि उसकी धार्मिक भावना और आर्थिक शिक्षा को कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है, तो वह कमर पर हाथ रखकर थोड़ा झुकी और टसकते हुए बुदबुदाई, ‘‘ये बाई का दरद फिर उखड़ गया, जानी लेके रहेगा।’’
   रतिनाथ ने इस पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दर्शाई।
   ‘‘कमर तो एकदम तख्ता हो गई।’’ उसने कहा और जोरों से टसकते हुए दोतल्ले में चली गई। वहाँ जाकर वह धम्म से चौकी पर बैठी और उच्च स्वर में, जो उसके क्रोध की धार्मिक अभिव्यक्ति था, रामचरित मानस बांचने लगीः
   ‘राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार।
   तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजियार।।’


कॉयर फोम के गद्दे बिछाते हुए रतिनाथ की उंगलियाँ उस पर ऐसे सरसराई और ऐसी आकुल उत्कंठा से भर गईं जैसे कभी पारवती के बाल सहलाते हुए थरथराने लगती थी,जब उसके बाल रेशमी थे और वह लाजभरी, जवान नारी देह की खुशबू से रची इस घर में दुल्हन बनकर आई थी। उसकी उंगलियों के पोरों से कवितायें फूट रही थीं और हृदय से भरापूरा चाँद झांक रहा था। उसने जतन से चादर बिछाई और बड़़े प्यार से उसकी सलवटे दूर की। टेबल लैम्प निकाला, जो इस्तेमाल न किए जाने की वजह से काम नहीं कर रहा था। उसकी मरम्मत की, दफ़्तर से चुराकर लाया बल्ब उसमें फिट किया ( हालांकि पलंग के सिरहाने ट्यूब लाइट फिट करने की व्यवस्था भी थी लेकिन अभी ट्यूब लाइट का इंतजाम और नहीं हुआ था ) पलंग के सिरहाने बनी रैक की चिकनी सतह पर रखकर उसे जलाया। लैम्प के प्रकाश में पलंग सर्पमणि-सा जगमगाने लगा। और सिरहाने में जड़े आईने ने उसकी छवि को अपने अंक में भर लिया। उसे लगा जिन्दगी हर कोने से मुसकुरा रही है। उसने अपना थैला खोला, जो उसे पलंग की भव्यता के सामने बड़ा दरिद्र दिखाई दिया और जिसे बदल दिया जाना उसे आवश्यक लगा, और उसमें से उस दिन का अख़बार निकाला जिसे वह दफ़्तर से लौटते वक्त विभागीय जल-पानगृह के मैनेजर से अगले रोज वापस कर दिए जाने की शर्त पर मांग लाया था। वह फोम के तकिए पर सिर टिकाकर अख़बार पढ़ने लगा। यूं यह अख़बार पढ़ना नहीं था और उसे अख़बार में खास दिलचस्पी भी नहीं थी, यह सिर्फ अख़बार पढ़े जाने के आभिजात्य का संतोष-भर था। उसका दिमाग़ अख़बार में कोई सनसनीखेज ख़बर ढूँढ लेने की जगह पारवती की चूड़ियों का संगीत सुनने को ज्यादा मचल रहा था, जो उसके जीवन का सारतत्व था। यह हैरानी की बात थी लेकिन सच थी कि वह बत्तीस साल पीछे लौट गया था, जब पारवती के भीतर से कोई संगीत फूटता था।
   उसने खाना पलंग पर बैठकर ही खाया और इस हिफाजत से खाया कि जूठन चादर पर गिरकर उसे गंदा न कर दे। खाना खाकर वह पलंग पर लेट गया और पारवती का इंतजार करने लगा। काफी समय बीत गया, वह आ ही नहीं रही थी। रसोई में उसकी खटर-पटर चालू थी। उसने पहली बार शिद्दत से अनुभव किया कि उसकी पत्नी ‘ओवर बर्डन्ड’ है, जिसकी वजह से उसके भीतर ममता भी जाग रही थी और तरस भी। प्रतीक्षा जरूरत से ज्यादा लम्बी हो गई तो वह अख़बार निकालकर फिर पढ़ने लगा। इस बार अख़बार पढ़ते हुए वह संवेदनशील हो गया था क्योंकि पारवती के प्रति उपजे तरसभाव की वजह से उसका हृदय पहले से ही व्याकुल था। अख़बार देश का जो चित्र उसके सामने पेश कर रहा था, उसने उसे हिला दिया।
   पत्नी रसोई से काफी देर बाद लौटी। खस्ताहाल और थकी हुई। रतिनाथ ने कूदकर उसका हाथ थाम लिया, लेकिन वह इतना ठंडा था कि एक शीतल झुरझुरी उसके भीतर तक उतर गई, हालाँकि ये जून की उबलती हुई, गरमियों की रात थी। ‘‘क्या बात है पारवती?’’ उसने घबराकर पूछा।
   ‘‘कुछ नहीं ।’’ उसने बहुत ठंडा जवाब दिया।
   उसने पारवती को अपनी बाँहों में लेते हुए कहा, ‘‘हम उन क्षणों को फिर से दुहराने की कोशिश करते हैं, जिन क्षणों में हमने अपनी जिन्दगी शुरू की थी।’’
   वह उसी तरह जड़ खड़ी रही।
   ‘‘कुछ याद है पारवती, हमारी पहली रात में क्या हुआ था......कितना मजेदार वाकया......मैं तुम्हे प्यार करने के लिए बिस्तर पर आया था तो मेरा पैर मसहरी के बाँस में फँस गया था और मसहरी मय डंडों के हमारे ऊपर गिर पड़ी थी। तुम घबराकर चीखी थीं....तुम्हारी वह अदाभरी घबराहट और कोमल चीख मुझे आज तक याद है।’’
   ‘‘यही होता है,’’ पारवती रुंधे गले से कहा, ‘‘खुशी का कोई पल अगर भटकता हुआ इधर आ जाता है तो सिर पर डंडे पहले बरसने लगते हैं।’’
   ‘‘मैं कुछ समझा नहीं......’’
   ‘‘तुम कुछ समझ भी नहीं सकते.....’’ पारवती फुफकारती हुई बोली।
   ‘‘खैर इन बातों को छोड़ो और अराम करो। पलंग तुम्हारा इंतजार कर रहा है।’’
    वह अपना हाथ छुड़ाते हुए बोली, ‘‘तुम्हे ही मुबारिक हो यह पलंग, मुझे नहीं सोना इस पर।’’
   ‘‘क्या बात है पारवती? तुम तो इसका इतना इंतजार कर रही थी.....’’
   ‘‘कुछ पता है, मांजी कितनी जली-कटी सुना रहीं हैं......यह पलंग उन्ही के शयनकक्ष में लगवा दो।’’
   ‘‘तुम भी पारवती इतनी समझदार होकर कभी-कभी बच्चों की तरह बात करने लगती हो।’’ रतिनाथ ने उसे फुसलाने की कोशिश की, ‘‘बुजुर्ग हैं, टोका-टाकी तो उनकी आदत ही होती है। उनकी बात का क्या बुरा मानना?’’ और उसका हाथ पकड़कर उसे पलंग पर खींच लिया।
   वह अनिच्छा से पलंग के एक कोने में गठरी-सी लेटी और सुबकने लगी। ‘‘तुम दफ्तर चले जाते हो, भुगतना तो मुझे ही पड़ता है। आज दिन भर जो औरत उनके पास बैठने आई उसे सुसकारकर मेरे पास भेज दिया कि बहू को बधाई दे आओ, आज उसकी सुहागरात है। पलंग न लाकर मेरे लिए मिट्टी के तेल का पीपा ले आते, इस जंजाल से तो छुट्टी मिलती।’’
   ‘‘नहीं पारवती.....’’ रतिनाथ ने उसे अंक में भरने के लिए अपनी ओर खींचा।
   पारवती ने उसका हाथ झटक दिया, ‘‘मुझे सोने दो। बहुत थक गयी हूँ। दिनभर मशीन की तरह काम पर पिली रहती हूँ उसका तो कुछ सोचते नहीं। ऊपर से प्यार-ठिठोली की सूझ रही है। यह उमर है प्यार-ठिठोली की?’’
   छः हजार के पलंग पर लेटा रतिनाथ पत्नी के व्यवहार से बुरी तरह आहत और अपमानित हो गया। उसके प्यार का ज्वार सहसा ठंडा पड़ गया। उसने लैम्प बंद किया और सोने का उपक्रम करने लगा। उसे नींद नहीं आई। एक तो वह अपमान से घायल था, दूसरे बिस्तर की नरमी उसके पीठ और कूल्हों पर चुनचुनाहट पैदा कर रही थी। ऐसा लगता मानो फूलछड़ी पीठ पर सरसराकर गुदगुदी कर रही हो। करवट बदलता तो उसे डर लगता कॉयर फोम के गद्दे के गोल किनारे से कहीं नीचे न फिसल पड़ें। वह इतने आनन्द का अभ्यस्त नहीं था। कई मर्तबा उसे लगता और शायद ज्यादा ही लगता कि वह पलंग पर नहीं छः हजार रूपयों के नोटों पर सोया हुआ है और उसका सीना जोर-जोर से धड़कने लगता। इस कशमकश में वह पूरी तरह से पस्त हो गया। लाख कोशिश के बाद भी उसे नींद नहीं आई। चौकीदार की सीटी की आवाज़ रह-रहकर सन्नाटे को चीरकर उसके दिमाग में बजती और वह ज्यादा बौखला जाता। आखिर रात के किन्हीं निःशब्द लम्हों में वह चुपचाप उठकर सहन में आ गया। उसका फोल्डिंग पलंग लावारिस-सा एक कोने में फोल्ड किया पड़ा था। उसने उसे सीधा किया और बिना बिछावन के उस पर लेट गया। उसका स्पर्श बड़ा पहचाना, अपनत्वभरा और आत्मीय था। उस पर लेटते ही उसे मीठी नींद ने अपनी बाँहों में भर लिया।
   सुबह माँँ की भक्तिरस में सनी रामचरित मानस की चौपाई गाती आवाज़ से, जो आज कुछ ज्यादा ही करुणा भरी थी, उसकी आँख खुली तो उसने देखा कि उसके फोल्डिंग पलंग की बगल में दूसरा फोल्डिंग पलंग बिछाए पारवती गहरी-शान्त नीद सो रही है और उसका एक हाथ उसकी यानी रतिनाथ की अपनी छाती पर फैला है, जिसे उसने बहुत सहेजकर और प्यार के साथ वहाँ रखा होगा।   
      और अन्दर कमरे में डबल बैड दैत्य की तरह पसरा हुआ है। 
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कहानी: सुभाष पंत
प्रस्तुति: गंगा शरण सिंह

बुधवार, 13 दिसंबर 2023

विरह विगलित कदंब: पुष्पा भारती

विरह विगलित कदंब
पुष्पा भारती


साहित्य सहवास में चारों ओऱ बड़े करीने से हरियाली उग आई थी। अपनी मेहनत की सफलता पर खुश भी थे भारती जी कि सहसा उनका वही मूल भागवत-प्रेम उनके मन में हिलोरें लेने लगा और जाने कहाँ भटक-भटककर ले आए कदंब वृक्ष का पौधा, खुद उसकी देखरेख की। बालकनी में खड़े होकर उसकी बढ़त देखते और प्रसन्न होते रहते। कुछ वर्ष बाद जब उस वृक्ष में पहली बार फूल आए तो उनके आह्लाद का कोई छोर नहीं था। लरजती आवाज़ में दसियों मित्रों को फोन किए गए, निमंत्रण दिए गए- कदंब के फूल खिले देखने के लिए। मित्र ही नहीं, रास्ता चलते अपरिचित लोग भी ठिठककर फूल देखते थे उन दिनों। उन्हीं दिनों भारती जी ने लिखी थी 'कदंब-पोखऱ' नाम की कविता। और याद है मुझे कदंब से जुड़ा एक मीठा-मीठा झगड़ा भी।

खैर, झगड़े, मान मनौवल की बात यहीं छोड़कर मैं आपको बताऊँ कि कदंब का वृक्ष धीरे-धीरे बहुत विशाल वृक्ष बन गया था। खूब ढेर सारे बड़े-बड़े फूलों की शोभा देखते ही बनती थी। उसे खूब सराहना मिली तो भारती जी को कृष्ण से संबंधित 'छितवन' वृक्ष की याद आती- छितवन की छाँह में नटवर नागर कृष्ण कन्हैया जब तमाम गोपियों के साथ शरत पूर्णिमा की रात में रास रचाते थे उसे महारास कहा जाता था, क्यों कि उस रात भगवान के नृत्य की गति इतनी तेज़ होती थी कि हर गोपी यही समझती थी कि कृष्ण केवल उसी के साथ नाच रहे हैं। जाने कहाँ-कहाँ भटका था इस पौधे की खोज में। दसियों जगह की खाक छानने के बाद पता चला कि 'सप्तपर्णी' नाम से जाना जानेवाला यह वृक्ष दिल्ली की एक नर्सरी में उपलब्ध है। अविलंब लाया गया और अपनी स्टडी के पिछवाड़े से सटी ज़मीन पर उसे रोप दिया गया। जैसी सँवार की गई, उससे वह भी शीघ्र ही पौधे से वृक्ष बन गया। शाख-दर-शाख दनादन फूटने लगी और एक गझिन छायादार वृक्ष खड़ा हो गया। हर शाख पर सैंकड़ों पत्तियाँ ऐसे निकलतीं कि सात-सात पत्तियों का एक संपुट-सा बन जाता और शरद ऋतु आते-आते उन पत्तियों के बीच में सैंकड़ों कलियाँ फूट आती थीं और शरत पूनो पर तो आलम यह होता था कि पत्तियाँ नज़र ही नहीं आती थीं। पूरा-का-पूरा वृक्ष नन्हे-नन्हे फूलों के गुच्छों से भर जाता था। महक ऐसी तेज़ और नशीली कि सारे वातावरण को मदहोश बना दे। उस नशीली सुगंध का भरपूर आनंद लेने के लिए 'शाकुंतल' में रहनेवाले हमें सातों परिवार शरत पूर्णिमा की चाँदनी में इमारत की छत पर इकट्ठा होते थे, बच्चियाँ नृत्य करती थीं, कोई गाना गाता, कोई कविता सुनाता और सब मिलकर मेरी बनाई खीर खाते। बड़ी सुहानी यादें हैं छितवन की।कदंब और छितवन के अतिरिक्त कृष्ण कथा से जुड़े फरद के वृक्ष की बात भी सुनिए। सन १९५६ की बात है। हम लोग पहले कोणार्क में सूर्य मंदिर के दर्शन करने गए, फिर वहाँ से सड़क के रास्ते जगन्नाथ पुरी की ओर चले। रास्ते में हमने एक गाँव में देखा, सड़क के दोनों ओर फरद के पेड़ लगे थे, जिन पर डहडह लाल रंग के कटोरीनुमा फूल खिले थे। फूल तोड़ नहीं सकते थे, क्यों कि पेड़ खासे ऊँचे थे। लेकिन नीचे ज़मीन फूलों से पटी पड़ी थी। मैंने ताज़े-ताज़े फूल चुनकर-बटोरकर अपने आँचल में भर लिए। पुरी पहुँचकर सीधे मंदिर गए और जब जगन्नाथ जी के दर्शन किए तो आँचल के दोनों छोर पकड़कर ढेर-के-ढेर फूल मैंने विग्रह पर बरबस बरसा दिए। पुजारी भी विहँस उठा था। भारती जी को मेरी वह भंगिमा इतनी भी गई थी कि उसकी याद में फरद का वृक्ष भी लगाया गया। साहित्य सहवास में बड़ा वृक्ष लगाने की उपयुक्त जगह नहीं बची थी- भारती जी का कुछ लालच यह भी था कि वृक्ष ऐसी जगह लगे जहाँ अपने घर में बैठे-बैठे हमें वह दीख सके। सो घर के सामने वाली बिल्डिंग के पीछे की ज़मीन पर उसे रोप दिया। पेड़ बड़ा हुआ। मौसम आने पर वही दहकते लाल-लाल फूल खिलने लगे। थोड़ी-सी ही दूरी पर यहाँ एक बर्ड सैंक्चुअरी हैं, जहाँ से ढेरों तोते हमारी कॉलोनी के वृक्षों की फुनगियों पर आकर बैठते हैं। एक बार हमने देखा कि कुछ तोते फरद के फूलों में अपनी चोंच डालकर रस पी रहे हैं। लाल-लाल फूल हरे-हरे तोते! ऐसा मनभावन दृश्य था कि भारती जी ने सड़क की ओर खुलनेवाली खिड़की को तुड़वाकर वहाँ बड़े-बड़े काँच की पारदर्शी दीवार जैसी खिड़की बनवा दी, सुबह वहीं बैठकर चाय पीते और अख़बार पढ़ते थे।गुलमोहर, अमलतास, शेषनाग, रक्त-अशोक, बाँस, आम, बादाम, शिरीष, चंपा, चमेली, रातरानी, मधुमालती, गंधराज, हरसिंगार, कचनार वगैरह-वगैरह सैंकड़ों जातियों के फल-पत्तों से सजे साहित्य सहवास की बाकी सब हरियाली की बात छोड़कर अब कृष्ण से संबंधित इन्हीं तीन वृक्षों की वह बात बताती हूँ जो सिर्फ़ मैं जानती हूँ। ४ सितंबर, १९९७ की रात को भारती जी सोए तो हमेशा के लिए सो गए। सुबह केवल शरीर था, आत्मा विलग हो चुकी थी। उन्होंने अपने हाथों से, बड़े प्यार से इन तीनों वृक्षों को रोपा था, अपनी पूरी ममता देकर सींचा और सँवारा था। उन कदंब, फरद और छितवन ने उनके जाने का सोग जिस तरह अपने ऊपर झेला कि मैं खुद पर शर्मिंदा होती हूँ कि मैं ज़िंदा कैसे हूँ।बंबई में जून के महीने में बरसात आती है। बरसात के एक पखवारे पहले से कदंब में गोल-गोल गुठलियों की शक्ल की कलियाँ दिखाई देने लगती थीं और बारिश के तीन-चार दिन पहले उन गुठलियों पर वासंती आभा लिए सैंकड़ों रेशे निकल आते थे और पूरा पेड़ इतना सज जाता था कि अगर संवेदनाएँ गहरी हैं तो कल्पना में कृष्ण की बाँसुरी भी सुनाई दे जाए। पर क्या भारती जी के देहावसान के बाद जो जून आई तो बरसात आ गई, पर पूरे विशाल वृक्ष पर आठ-दस ही फूल खिले, बाकी कलियाँ यों ही गुठलियों की शक्ल में नीचे गिर गईं। धीरे-धीरे तो वे गुठलियाँ निकलनी भी कम हो गईं। फूल भी इक्का-दुक्का ही दिखाई देते थे। अब दस बरस बाद तो लोग भूलने ही लगे हैं कि इस पेड़ पर कभी फूल आते थे- कोई कहता है, हमारे कदंब को नज़र लग गई, कोई कहता है, पता नहीं क्या बीमारी लग गई है, पर किससे बताऊँ कि... यह घर है, पर भारती जी नहीं- कदंब का वृक्ष है, पर फूल नहीं।जगन्नाथ जी पर हुलसकर फूल बरसाने का साक्षी वह फरद भी अगले बरस आई एक दिन तेज़ आँधी और बरसात में पूरा-का-पूरा वृक्ष अरअराकर सड़क पर गिरा। तोतों को क्या मालूम कि जिन हाथों ने उसे इतने प्यार से लगाया था, उन उँगलियों का और अपनी ओर निहारती आँखों का वियोग नहीं सहन कर पाया और अपना वह रस और लाल दहकते फूल लिए-लिए चला गया, शायद उनकी खोज में कहीं...।------१८ जुलाई, १९८९ को भारती जी को बहुत भयंकर दौरा पड़ा दिल का। क्लीनिकल डैथ भी हो गई थी, पर बड़े चमत्कारिक ढंग से डॉक्टर बोर्जेस ने उन्हें बचा लिया और वे लगभग तीन महीने अस्पताल में रहे- ठीक होकर जब घर आए तब भी डॉक्टर ने पूर्ण आराम की सलाह दी थी। ज़िद की कि मेरा बिस्तर स्टडी में ही लगा दो- यहाँ से गदराया हुआ छितवन दिखाई देता है। उसकी खुशबू बहुत सुकून देती है। वही किया गया- छितवन की छाँह में उन्होंने आराम किया और धीरे-धीरे पूरी तरह स्वस्थ हो गए।फिर उस बरस यानी १९९७ में भी छितवन के पेड़ पर वैसे ही गुच्छे-गुच्छे फूल खिल आए थे- वैसी ही सुहानी खुशबू बगरी हुई थी, पर सबकुछ यों ही छोड़कर ४ सितंबर को भारती जी ने हमेशा के लिए विदा ले ली थी। हम इनसानों का रोना-कलपना और आँसू तो सबने देखे, पर कोई नहीं देख पाया कि छितवन अपनी हज़ार-हज़ार आँखों से कितना रोया, कितना रोया कि उसकी आँखों के आँसू भी सूख गए होंगे, तभी न आठ-दस दिन बाद जब शरत पूर्णिमा आई तब हमारी इमारतवाले लोगों ने देखा कि अरे, इस बार फूल खिलने की बजाय मुरझाने क्यों लगे हैं? खुशबू में कसैलापन क्यों आ गया है? लोगों को फिर वही अफसोस लगा कि इस पेड़ को भी लगता है, जड़ में कहीं कीड़े लग गए हैं। मैं किसी को क्या बताती? केवल श्रीमती लीला बांदिवडेकर को बताया कि कदंब की ही तरह यह भी विरह-विगलित है। अगले वर्षों में कदंब की तरह ही इसमें भी धीरे-धीरे फूल आने बंद हो गए। कदंब तो फिर भी दो कमरे दूर था, पर यह तो स्टडी में एकदम करीब बैठे उनको देखता रहा होगा, इसलिए और भी ज़्यादा तड़प उठा होगा। कदंब में कम-से-कम पत्तियाँ तो निकलती हैं, पर यह तो धीरे-धीरे सूखने लगा और देखते-देखते एकदम ठूँठ हो गया। पिछले दो सालों से छत से भी ऊँचा उठा वह विशाल वृक्ष अपनी नंगी शाखाओं की बाँहें पसारे ठूँठ बनकर खड़ा था, एकदम सूख गया था। बारिश आनेवाली है। कभी यह ठूँठ टूटकर गिरा तो बड़ा नुकसान हो सकता है, इसलिए कल ५ जून को उसे कटवा दिया गया है। जब वह काटा जा रहा था, उस समय अचानक बड़ी तेज़ हवा चलने लगी थी। खिड़की-दरवाज़े खड़खड़ा रहे थे और धूल-मिट्टी के गुबार घरों में प्रवेश कर रहे थे। अचानक भारती जी की स्टडी पर लगी जाली टूटकर गिरी और बाहर जाकर जो मैंने देखा तो ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे और मैं जड़वत हो गई। हवा तेज़ थी ज़रूर, पर पेड़ तो बालकनी की तरफ़ लगा था, यह टूटी शाखा वर्तुलाकार उड़कर इस खिड़की पर दस्तक देने कैसे आ गई?  यह सच है कि कल न उसके पहले चली थीं वैसी हवाएँ, न बाद में चली हैं। क्या तेज़ हवाएँ इसीलिए चली थीं कि इस शाख को उड़ाकर लाना था? उसने खिड़की पर दस्तक दी, जाली से टकराई और खिड़की की मुँड़ेर पर जाकर गिर गई है। अभी भी वहीं पड़ी है। उसकी ओर आँसू से लबालब आँखों से देख रही हूँ। जानती हूँ कि भारती जी की आत्मा तो अब भी इसी स्टडी में बसती है, क्या शाख की बाँहें बढ़ाकर छितवन का वह वृक्ष उनसे अंतिम विदा लेने आया था- या शायद शिकायत करने आई थी यह शाख कि तुमने हमें लगाया था, ये आज काटे ते रहे हैं। या शायद यह मेरे साथ अपनी पीड़ा बाँटने आई थी, उनका स्पर्श प्रतिपल अपने साथ महसूस करती जीती रही हूँ, सो जाते-जाते वह वृक्ष इस टहनी की बाँह बढ़ाकर उन्हें छूने आया था, दुलराने आया था, बतियाने आया था भारती जी से। बार-बार पूछ रही हूँ मुँड़ेर पर लेटी इस शाखा से- मिले वह? छू सकीं उन्हें तुम? देख सकीं? बोल- बतिया सकीं?मेरी पहुँच से दूर पड़ी है वह। वहाँ तक मेरा हाथ नहीं पहुँच सकता, पर जी हो रहा है, उस शाख को एक बार छू लूँ और महसूस कर लूँ उसे, जिसकी तलाश में वह आई है- प्राणपण से भागी आई है। साझे का दुःख भोगा है हमने। वह तो जड़ से कटकर मुक्त होकर मिलन के लिए आई थी। मैं हूँ कि अभी भी जड़ों से जुड़ी जी रही हूँ। कल से बिना खाए-पिए गुमसुम रो-रोकर जीती रही हूँ- पता नहीं कितना और जीना है उनके बिना।

पुष्पा भारती
१३ जुलाई २००९


प्रस्तुति: गंगाशरण सिंह

शनिवार, 21 अक्तूबर 2023

जिज्ञासाओं में समरेश बसु

 समरेश बसु कालकूट बाँग्ला के बड़े कथाकार थे। उनके अनेक बहुचर्चित उपन्यास एवं कहानियों पर फ़िल्में बनीं। उनकी कहानी पर गुलज़ार साहब के किरदार धारावाहिक का एक एपिसोड 'मुखबिर' भी केन्द्रित था जिसमें ओम पुरी और इरफ़ान खान की भूमिकाएँ थीं। उन्हीं समरेश बसु का यह साक्षात्कार पाठकों के लिए प्रस्तुत है।


समरेश बसु






सादर

गंगा शरण सिंह

शनिवार, 15 जुलाई 2023

जीवनपुरहाट जंक्शन: अशोक भौमिक, प्रस्तावना: गंगा शरण सिंह

अशोक भौमिक की तस्वीरों में ज़िन्दगी के जितने रंग दिखाई देते हैं उससे कहीं ज्यादा इन स्मृति आख्यानों में। इस किताब में शामिल इन बाइस 

समृति-आख्यानों में ज़िन्दगी इस कदर साँस लेती है कि काग़ज़ के पन्नों पर लिखी हुई तहरीर अचानक उनकी तस्वीरों की तरह ही हमारे सामने जीवन्त हो उठती है। ज़िन्दगी के तलघर में जाने कितनी कहानियाँ और क़िरदार छुपे रहते हैं किन्तु इन्हें पहचानने और कहने का हुनर सबको नहीं मिलता। अशोक भौमिक के इन आख्यानों में निहित संवेदना, मर्म और मानवीय सरोकार उनके इसी हुनर का कमाल हैं।


अपने जीवन-अनुभवों और स्मृतियों के तलघर से तमाम ऐसे किरदारों को ढूँढकर उन्होंने इन कहानियों का पात्र बनाया जो सभ्य समाज द्वारा हाशिये पर धकेल दिये गये हैं और जिन्दा रहने की जद्दोजहद ने जिनके चेहरों पर अमिट निशान छोड़ दिये हैं।


'जीवनपुरहाट जंक्शन' के ये स्मृति आख्यान मर्म और संवेदना का एक ऐसा अद्भुत जहान रचते हैं जिनकी गूँज पाठकों के जेहन में लम्बे अरसे तक कायम रहेगी।

छोटे हमीद का वह मासूम सा क़िरदार, चौरासी के दंगों में अपना बहुत कुछ गँवाकर कथाकार के गले लगकर रोता सुरजीत, बेहद गरीब किन्तु खुद्दारी की हद तक ईमानदार शरफुद्दीन, आजाद हिंद फ़ौज का वह सिपाही, जिसे जीवन यापन के लिए चौकीदारी करनी पड़ रही थी, जैसे यादगार चरित्रों और छल, कपट , विश्वासघात की अनेक दास्तानें हमारी चेतना को हिलाकर रख देती हैं। किसी कहानी को पढ़ते समय यदि उसकी सच्चाई पर सन्देह हो तो यह बात ध्यान रखें कि इस दुनिया में अमानवीयता का स्तर किसी भी रचनाकार की लेखन सीमा से कई गुना ज्यादा है और कुछ सत्य विश्वनीयता के अन्तिम छोर के बाद शुरू होते हैं।


© गंगा शरण सिंह


 [ पेपरबैक संस्करण का फ्लैप ]

बुधवार, 25 जनवरी 2023

तमाचा: गोविंद सेन

दिनेश आज असहज थे । कई दिनों से वे मन ही मन इस दिन का सामना करने की तैयारी कर रहे थे । आखिर वह दिन आ ही गया था । कितने ही भाव उनके मन में उमड़-घुमड़ रहे थे ।
"सर, आप अभी जाना मत।" मोहन ने थोड़ा झुकते हुए कहा। उसके साथ महेश, रेमसिंग, इंदरसिंग, नारायण, कैलाश आदि चतुर्थ श्रेणी के सभी कर्मचारी थे ।
"हाँ, पर क्यों?"
"बस, हमारा निवेदन है सर।" मोहन के इस आग्रह को दिनेश ने सहज ही शिरोधार्य कर लिया। वे चुप्पी लगाकर स्टाफ रूम में बैठ गए।

वे इस चुप्पी के सहारे धीरे-धीरे भीतर उतरने लगे। चालीस बरस ऐसे गुजर गए जैसे कल की ही बात हो। जब नौकरी में आए थे तो अच्छे खासे बाइस-तेईस साल के  जवान थे । आँखें स्वप्निल थीं । सिर पर चिकने लम्बे काले बाल थे । उस जमाने के फैशन के मुताबिक लंबे बाल रखा करते थे । बालों से कान ढँक जाते थे । कान दिखाई ही नहीं देते थे । अब तो आइना डराने लगा है । बाल अब नाममात्र के रह गए । जैसे बालों को किसी ने नोच लिया हो । लोग उन्हें आराम से टकला या चँदला कह सकते थे । चेहरे पर झुर्रियाँ दिखाई देने लगीं थीं। त्वचा उतनी कसी हुई नहीं रह गई थी । ढीली पड़ती जा रही थी । लगता था कि उन्हें समय ने गुठली की तरह चूसकर फेंक दिया हो । नौकरी उनसे उनका सर्वश्रेष्ठ ले चुकी थी । उन्होंने पढ़ाने में कभी कोताही नहीं की । कठिन पाठों को सरल और रोचक बनाने की भरसक कोशिश करते रहे । घर से पाठ पढ़कर जाते थे । जब भी शहर जाने का मौक़ा मिलता, वे अपने अध्ययन के लिए कई किताबें भी ख़रीद लाया करते थे। ज्ञानार्जन की उनमें भूख थी । वे विषय की  मूल अवधारणाओं  को समझने की कोशिश करते रहते थे । पहले खुद खूब तैयारी करते तब उन्हें बच्चों के लिए ग्राह्य बनाकर प्रस्तुत करते । श्यामपट्ट का उपयोग खूब किया करते थे । पीरियड से निकलने के बाद उनके हाथों पर सफ़ेद डस्ट लगी होती थी । उनके इस शिक्षकीय पेशे में उन्होंने अपने हाथ काले नहीं किए, सर्वथा सफ़ेद बनाए रखने की ही कोशिश की थी । यही कारण है कि साथी शिक्षक उन्हें भले ही न याद करते हों पर उनसे पढ़ चुके कई विद्यार्थी उन्हें याद करते हैं ।

वे अपने आदर्शवाद के कारण कुछ ही महीनों में पुलिस की नौकरी छोड़ कर आ गए थे । पिताजी और अन्य परिजनों ने उन्हें खूब लताड़ा था । इतनी अच्छी नौकरी छोड़कर आना उन्हें बिलकुल नहीं सुहाया । उनका विचार था कि उन्होंने खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है । भला ऐसा भी कोई करता है । पर उन्होंने अपने दिल का कहा मानकर वह पुलिस की नौकरी छोड़ दी । संयोग से बाद में वे शिक्षक बन गए थे । यदि शिक्षक नहीं बन पाते तो उनका क्या होता ! वे अकेले में आज भी सोचते हैं तो सिहर जाते हैं । पर तब जोश अधिक था और होश बहुत कम । पुलिस महकमे में बहुत भ्रष्टाचार है किंतु भ्रष्टाचार किस महकमे में नहीं है ! उन्हें लगता था कि शिक्षक की नौकरी उनके लिए एक आदर्श नौकरी है । इसमें कितना सम्मान और शांति है पर समय के साथ उनका मोह भंग होता गया था। समाज सेवा और खूब पढ़ाने का जज्बा ठंडा पड़ने लगा था। अब उम्र के इस पड़ाव पर आकर तो उन्हें लगता है कि यह नौकरी भी दूसरी नौकरियों की तरह एक नौकरी ही है । यहाँ भी आदर्शों की बहुत गुंजाइश नहीं है । हालांकि उनके विद्यार्थी और अन्य शिक्षक साथी उन्हें जब 'सर' से संबोधित करते हैं तो उन्हें अच्छा लगता है । वैसे उनकी सरलता को लेकर वे पीठ पीछे उनका मजाक भी उड़ाते थे । उनका रहन-सहन एकदम सादा है । ज़रा भी तड़क-भड़क नहीं । वे शर्ट को पैंट में इन नहीं करते थे इसीलिए उन्हें वे 'बिना इन वाला मास्टर’ कहकर हँसा करते थे ।

दीवार पर लगी घड़ी का बड़ा काँटा यांत्रिक गति से आगे बढ़ता जा रहा था । पहला पीरियड ख़त्म होने वाला था । स्कूल यथावत चल रहा था । सब अपने-अपने काम में जुटे थे। हूटर बजते ही कोई डस्टर लेकर जा रहा था तो कोई डस्टर लेकर आ रहा था। कमरों में से बच्चों की आवाजों का शोर उठने लगा था । सब उनसे सायास या अनायास नज़रें चुरा रहे थे । वे चुपचाप और कुछ अनमने-से स्टाफ़ रूम में बैठे थे । ऐसा लगता था कि वे अब इस स्कूल का हिस्सा नहीं रहे। अवांछित हो गए जैसे किसी दीवार के पलस्तर की मियाद ख़त्म होने पर ईंटों के लिए पलस्टर अवांछित हो जाता है । दीवारें प्लास्टर को छोड़ देती हैं । उन्हें अब किसी क्लास में पढ़ाने नहीं जाना है । इसका कोई दबाव उन पर नहीं है । वे मुक्ति का अनुभव कर रहे थे पर यह मुक्ति उन्हें बहुत अजीब लग रही थी । उन्हें ऐसी किसी मुक्ति की आदत नहीं थी ।

सप्ताह में एक दिन मंगलवार भी आता है । लेकिन उनके लिए यह मंगलवार ख़ास था । स्कूल में बतौर शिक्षक आज उनका आखिरी दिन है । उन्हें सेवानिवृत्ति का पत्र थमा दिया गया था । इस हायरसेकंडरी स्कूल में अभी पाँच साल पहले ही आए थे । उनके पिछले पैंतीस वर्ष एक ही ग्रामीण स्कूल में ही कटे हैं । शायद पूरा सेवाकाल उनका वहीं गुज़र जाता पर वे ऊब चुके थे और कुछ त्रस्त भी । उन्हें कई प्रभार सौंप दिए गए थे । दूसरी ओर उनको गेहूँ में घुन की तरह कई बीमारियाँ लग चुकी थीं । दिक्कत होने लगी थी । आने-जाने में  थकावट महसूस करने लगे थे । इसीलिए उन्होंने शहर के हायरसेकंडरी स्कूल में अपना तबादला करवा लिया था । यहीं उनका निवास भी था। हालांकि इसके लिए उन्हें अपने एक महीने के वेतन के बराबर की राशि ऊपर भेंट करनी पड़ी थी। 

यह एक बड़ा स्कूल था । एक-एक क्लास में सौ के लगभग बच्चे । हालाँकि क्लास में कम ही बच्चे आते । नब्बे प्रतिशत बच्चे कोचिंग जाते थे । उनका स्कूल पर विश्वास नहीं था । केवल अपनी उपस्थिति लगवाने के लिए स्कूल में हाज़िर होते थे । हाज़िरी लगते ही फुर्र हो जाते । इसमें शिक्षकों की मौन सहमति होती थी। रेसेस के बाद तो बीस-तीस फ़ीसदी बच्चे ही बचते। लेकिन उन्होंने अपने काम में कोई कोताही नहीं बरती । जितने पीरियड दिए गए वे पढ़ाते रहे । हालाँकि उन्हें  मालूम था कि कुछ व्याख्याताओं और शिक्षाकर्मियों के पास तीन पीरियड से अधिक नहीं थे । कुछ के पास तो सिर्फ़ दो ही पीरियड थे और कोई प्रभार भी नहीं था। ये भेदभाव उन्हें अच्छा तो नहीं लगता था पर उन्होंने कोई विरोध भी नहीं किया। 

सितंबर का यह महीना भी उनकी नौकरी का आखिरी महीना था । उन पर कई चिंताएँ भी सवार थीं । जो सुनने और देखने को मिलता था, वह भयावह था । उनके उसूलों के ठीक उलट । वे कैसे यह सब हेंडल कर पायेंगे ! नियम कुछ बोलते हैं पर हकीकत में होता कुछ और है । चिंता थी उनके सारे क्लेम निपटेंगे या नहीं । समय पर पेंशन मिलेगी या नहीं । जीपीफ,बीमा,ग्रेज्यूटी,अर्निंग लीव वग़ैरह । वही तो उनकी ज़िंदगी भर की कमाई होगी । आगे का जीवन बहुत कुछ उन्हीं पैसों पर ही तो निर्भर होगा । इस बीच उन्हें हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना ‘भोलाराम का जीव’ याद आ जाती थी जिसमें भोलाराम की पेंशन का निपटारा उसकी मृत्यु तक भी नहीं हो पाया था क्योंकि भोलाराम ने फाइल पर वजन नहीं रखा था। इस व्यंग्य रचना को वे एक बार फिर पढ़ गए थे । उन्हें फ़ाइल पर वज़न धरना ही होगा अन्यथा उनका हश्र भी भोलाराम जैसा ही होगा। मृत्यु के बाद भी उनका जीव पेंशन की फ़ाइलों में ही अटका रहेगा। 

स्कूल में केवल एक-दो शिक्षकों से ही उनका मन मिल पाया था । फिर भी सबसे बिछड़ जाने के डर ने उनके मन को थोड़ा कच्चा कर दिया था । सालों तक साथ रहते-रहते सबकी आदत पड़ चुकी थी। कुछ हँसी-मज़ाक़ भी चलता रहता था। इसलिए महीना ख़त्म होने से पहले एक दिन चुनकर उन्होंने पूरे स्टाफ़ को रेसेसे में अल्पाहार करवा दिया था । उन्हें तसल्ली हुई थी कि उस दिन सिर्फ़ दो को छोड़कर सभी उपस्थित थे। स्टाफ़ से अपनी भूल-चूक के लिए सबसे औपचारिक माफ़ी भी माँग ली थी । उसी दिन उन्होंने  प्रिंसिपल साहब से उनके सभी प्रकरणों को जल्दी निपटाने का निवेदन भी कर दिया था ।

उनके जीपीफ के प्रकरण को अभी तक महालेखाकार  कार्यालय नहीं भिजवाया गया था जबकि तीन महीने से उनके वेतन से जीपीफ कटना बंद हो चुका था। उनका जितना जीपीफ कटना था वह तो कट ही चुका था । अब तो उन्हें जीपीफ में जमा पैसा वापस लेना था । जीपीफ का अंतिम हिसाब कर प्रकरण भिजवा दिया जाना चाहिए था । वे चिंतित थे। बाबू ने धीरे से कहा था कि साहब दस हज़ार की माँग कर रहे हैं । पहले सुना था प्रिंसिपल साहब स्टाफ से प्रकरण के पैसे नहीं लेते हैं । शायद यह बात सच नहीं थी ।  सत्ताईस सितंबर को बाबू का फ़ोन आया कि साहब ऑफ़िस में हैं । आप आकर साहब के साइन करवा लो। फिर वे निकल जायेंगे । उस दिन दिनेश सूचना मिलते ही तुरंत स्कूल पहुँचे थे । उन्होंने प्रकरण पर साइन करने के निवेदन के साथ ही प्रिन्सिपल साहब के हाथों में रुपयों का लिफाफा भी रख दिया था । वे मुस्कुराकर बोले थे-“अरे सर, पैसे की क्या ज़रूरत है।” लेकिन लिफाफा रख लिया था।  

हायरसेकंडरी स्कूल में शिक्षकों की कईं श्रेणियाँ थीं। नियमित, शिक्षाकर्मी और अतिथि शिक्षक। नियमित में वे व्याख्याता थे जिन्हें अस्सी से नब्बे हजार प्रतिमाह वेतन मिलता था । उच्च श्रेणी शिक्षक ओहदे में व्याख्ताओं से नीचे आते थे । उन्हें सत्तर के करीब हर महीने मिलते थे । शिक्षाकर्मी भी नियमित ही थे । शिक्षाकर्मियों में वर्ग 1 और 2 थे । इन्हें भी अच्छा खासा वेतन मिलता था। पचास हजार से कम किसी का वेतन नहीं था । इनमें नब्बे प्रतिशत शिक्षकों की खेती भी थी यानी डबल इनकम । दो शिक्षकों की तो पत्नियाँ भी शिक्षिकाएँ थीं । सबसे कम इनकम चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की थी । ये सबसे छोटे कर्मचारी थे पर सबसे ज्यादा मेहनत करते थे । सबसे पहले स्कूल आते थे और सबसे बाद में स्कूल जाते थे।  

दिनेश अंग्रेज़ी पढ़ाते थे । हिंदी हो या अंग्रेज़ी, भाषाओं के पीरियड वैसे भी अन्य विषयों की तुलना में अधिक होते हैं । परीक्षाओं की कापियाँ भी उन्हें ही अधिक जाँचनी पड़ती है । दो वर्ष तो उन्होंने क्लास टीचर होने के बावजूद पाँच पीरियड भी लिए थे । उनका पहला पीरियड तो सिर्फ़ हाज़िरी लेने में ही ख़र्च हो जाता था । चाहते तो क्लास टीचर होने से इंकार कर सकते थे पर यह सोचकर कि आख़िरी समय में कौन इनसे लड़ाई मोल ले, वे चुप्पी साध गए थे । वैसे भी उन्होंने ‘ना' कहना सीखा ही नहीं था। उनकी यही सरलता उनकी सबसे बड़ी दुश्मन थी। उन्हें सेवानिवृत्त होने में महज़ पाँच वर्ष बचे थे इसलिए वे ये सब वे झेल गए थे ।

पिछले साल का विदाई समारोह का दृश्य उन्हें याद आया । अलावा सर सेवानिवृत्त हुए थे । वे उच्च श्रेणी शिक्षक थे । यानी ओहदे में उन्हीं के समकक्ष शिक्षक । उन्हें धूमधाम से विदाई दी गई थी । साफ़ा पहनाकर एक खुली जीप में उन्हें पूरे नगर में ऐसे घुमाया गया था मानो किसी नेता का विजय जुलूस निकाला जा रहा हो । जुलूस के आगे ढोल बज रहा था । उनकी सेवनिवृत्ति के दो माह पहले ही से विदाई समारोह की चर्चा और तैयारी शुरू हो गई थी। तब इस समारोह के लिए ख़ूब चंदा भी वसूला गया था । इस कार्यक्रम के अगुआ बने एके ने सभी शिक्षकों को इस समारोह के लिए ख़ूब मोटीवेट किया था । किसी भी काम के लिए मोटीवेट करने में उनका कोई सानी नहीं था । अलावा सर के नाम पर सब मोटीवेट भी बख़ूबी हो गए थे । भाषणों में उनके अनेक गुण प्रकट किए गए थे । उन्हें एक श्रेष्ठ आदर्श शिक्षक, मिलनसार और अपने विषय का विशेषज्ञ भी निरूपित किया गया । वे हिंदी पढ़ाते थे पर हिंदी की चार लाइन भी सही नहीं लिख पाते थे । गाइडों से प्रश्नोत्तर लिखवा दिया करते थे या गाइड में ही निशान लगवा देते थे। फिर भी उनकी तारीफ़ में कोई पीछे नहीं रहना चाहता था । कभी-कभी सुरापान भी कर लेते थे । वे स्कूल की हर ज़िम्मेदारी को बहुत ग़ैर ज़िम्मेदारी से निभाते थे । इसके लिए उनमें कोई हीन भाव भी नहीं था । वे ट्राइबल के थे । भाषणों में उनके निंदनीय गुणों को दरकिनार कर दिया गया था । उस दिन सभी वक्ताओं को उनके गुण ही गुण दिखायी दे रहे थे। ये गुण ख़ासतौर से उन्होंने अधिक प्रकट किए थे जो पीठ पीछे उनकी जमकर बुराई किया करते थे । दाल-बाफले-लड्डू की पार्टी रखी गई थी । रात में सुरापान भी हुआ था । किसी शिक्षक का ऐसा भव्य विदाई समारोह उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था । 

इससे पहले नंदा मैडम सेवानिवृत्त हुईं थीं । उनकी विदाई को लेकर पहले भले ही काफ़ी खींचतान रही हो, पर अंत में उन्हें भी शानदार विदाई पार्टी दी गई । अख़बारों में उसकी बढ़िया रिपोटिंग भी छपी । उस समय शुरुआत में एके ने ख़ास रुचि नहीं दिखाई थी । चंदा इकट्ठा न हो सका था । कुछ लोग नंदा मैडम की बाल की खाल निकालने की आदत से खफ़ा थे । पर वे नाराज़गी को सतह पर नहीं आने देते थे। वे कहा करतीं- “उस परीक्षा में मेरी ड्यूटी क्यों नहीं लगाई जिसमें पैसे मिलने थे । मेरी फोकट के काम में ड्यूटी क्यों लगा दी ! यह क्लास मैं नहीं लूँगी । मैं क्लास टीचर नहीं बनूँगी ।” वह समय पर कभी स्कूल भी नहीं आती थीं । पर सभी हँस-हँस कर उसकी बात मान लेते थे । पीठ पीछे ख़ूब भड़ास निकाली जाती पर सामने शालीनता से पेश आते । नंदा मैडम में लाख बुराइयाँ सही पर एक गुण ज़रूर था कि उनकी बहन क्षेत्र की विधायक थीं । अब ऐसे एक गुण होने पर तो  सारे अवगुण माफ़ हो ही जाते हैं बल्कि इतनी अकड़ का तो उन्हें अधिकार बनता ही है ।

विधान सभा का चुनाव हुआ । नंदा मैडम की बहन को इस बार टिकट नहीं मिला था । हालाँकि उनके बहन के विधायक रहने तक वे सेवानिवृत्त हो चुकी थीं । अब विधायक प्रेमसिंग थे जो अलावा सर के साले थे । यह संयोग ही था कि दोनों को ही राजनैतिक पृष्ठभूमि होने का भरपूर फ़ायदा मिला । इन दोनों के बरक्स दिनेश जी ख़ुद को नखदंत विहीन पाते हैं । न वे आर्थिक रूप से सबल हैं न राजनैतिक रूप से । उन्हें उम्मीद नहीं थी कि उनकी सेवानिवृत्ति पर ऐसा कोई भव्य आयोजन होगा । इसकी कोई उम्मीद भी उन्होंने नहीं पाली थी । 

स्कूल में कुछ लोगों की ही तूती बोलती थी जिनमें तीन ‘के' प्रमुख थे -एके, बीके और पीके, यह उनके नामों का संक्षिप्त रूप था । पीके यानी प्रिंसिपल साहब । एके और बीके व्याख्याता थे । तीनों के अनुसार ही कार्यक्रम आयोजित होते थे । रूपरेखाएँ बनती थीं । एके कहा करता था कि वह तो उनकी सेवानिवृति से ख़ुद को अनाथ महसूस करेगा। कहता था-“मैं तो आपके स्कूल के गेट पर लोट जाऊँगा और तुम्हें घर नहीं जाने दूँगा।” बीके भी कहा करता था कि आपका विदाई समारोह बढ़िया करेंगे सर। आप हमारे सम्मानीय हैं सर, सबसे वरिष्ठ । फिर पता नहीं उनकी सेवानिवृत्ति पर उनके पीछे स्टाफ़ में क्या बातें चलती रहीं, वे नहीं जानते। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि उनके लिए भव्य या शानदार कहे जाने वाला विदाई समारोह होगा, ऐसा तो वे चाहते भी नहीं थे, पर एक सादे समारोह की क्षीण-सी अपेक्षा तो उनके मन में ज़रूर थी । यदि उनसे पूछा जाएगा तो जरूर कहेंगे कि ऐसा सादा कार्यक्रम हो जिसमें ख़र्च कम से कम हो । भव्यता उन्हें ज़रा भी पसंद नहीं । हालाँकि उनके सादा जीवन और उच्च विचार के फ़लसफ़े को कौन पसंद करेगा! फिर भी वे अपनी ओर से कहेंगे तो ज़रूर कि फ़ालतू ख़र्चा न हो । सिर्फ़ एक छोटा कार्यक्रम हो जिसमें मन के कुछ आत्मीय भाव प्रकट किए जाएँ और बाद में अल्पाहार । मूल तो भाव हैं । भाव प्रकट करने में पैसा नहीं लगता किंतु भव्यता का आहार पैसा ही है । जहाँ भव्यता होती है वहाँ भाव तो छिप ही जाते हैं । भव्यता में प्रदर्शन अधिक होता है, भावना कम ही होती है ।

घड़ी का बड़ा काँटा तीन पर पहुँच चुका था । वे उद्विग्न थे । तभी उन्हें लेने के लिए मोहन और इंदरसिंग उनके सामने हाजिर हो गए। विनम्रता से बोले-“चलो, सर कमरा नंबर एक में चलते हैं।” कमरा नंबर एक कुछ ऐसा सजा हुआ था मानो कोई कार्यक्रम किया जा रहा हो । उन्हें बीच की कुर्सी पर आदरपूर्वक बैठाया गया। सभी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी उन्हें अपनी ओर से विदाई दे रहे थे । टूटे-फूटे शब्दों में अपने भाव व्यक्त कर रहे थे। मोहन कह रहा था कि सर ने औरों की तरह उन्हें चपरासी नहीं समझा । कई बार खुद ही अपने हाथ से पानी पी लिया करते थे । कभी अन्य शिक्षकों की तरह हम पर रौब नहीं झाड़ा । हमारी हारी-बीमारी में हमारे साथ खड़े रहे । मदद की । मेरे लड़के राम को सर ने फ्री में पढ़ाया । वो अंग्रेजी में कमजोर था पर सर की कृपा से उसकी नैया पार हो गई । सर माथा देखकर तिलक लगाने वालों में से नहीं हैं । सर का आशीर्वाद सदैव हम पर बना रहे। फिर मोहन, इंदरसिंग, कैलाश, नारायण आदि सभी ने उनके गले में गेंदे के फूलों का माला पहनायी । दिनेश के पाँव सबने छुए । दिनेश माला उतार कर टेबल पर रखने लगे तो सब ने ऐसा न करने के लिए कहा । चमकीले रंगीन रैपर में लिपटे गिफ्ट आइटम उन्हें दिए गए । अंत में सभी को मिठाई और नमकीन का अल्पाहार करवाया गया । सबसे पहले दिनेश को मिठाई खिलायी गई । उनकी आत्मीयता से दिनेश की आँखें डबडबा आईं थीं । वे बड़ी मुश्किल से भर्राए गले से जैसे-तैसे आभार ही व्यक्त कर पाए थे।

मोहन सहित सभी चपरासी उन्हें लंबे गलियारे से घुमाते हुए सम्मानपूर्वक गेट तक ले गए । सभी शिक्षक यह सब देखते जा रहे थे और आँखें भी चुराते जा रहे थे । प्रिंसीपल साहब अपने कक्ष से बाहर नहीं निकले। एके और पीके छुट्टी पर थे। शायद जान-बूझकर । जिस काम को साठ-सत्तर हजार पाने वाले शिक्षक और प्रिंसिपल नहीं कर पाए वह इन मामूली सा वेतन पाने वाले चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों ने कर दिखाया था । उपस्थित सभी शिक्षकों को लग रहा था कि उनके गालों पर किसी ने तमाचा मार दिया हो । वे मन ही मन तिलमिला रहे थे । दिनेश मन में शंकित भी थे कि स्कूल के ये शिक्षकगण बाद में इन बेचारों से बदला न लें । इन्हें उनका कोपभाजन न बनना पड़े । उनका यह विदाई समारोह शिक्षकों को चुभ रहा है, यह तो उन्हें दिख ही रहा था । पर चींटियाँ हाथियों से कब डरी हैं! दिनेश ने उनके साहस की मन ही मन सराहना की।

जब दिनेश सबसे विदा ले कर मोटर साइकिल की ओर मुड़े तो मोहन ने रोक दिया । उसने  दिनेश से कहा-“सर,आज आप मोटरसाइकिल चलाकर नहीं जाओगे। हम खुद आपको घर तक छोड़ने जायेंगे।” 

दिनेश अभिभूत थे । उनकी गरदन फूल मालाओं से लदी थी । मोहन मोटर साइकिल चला रहा था । वे पीछे की सीट पर बैठे हुए थे । पीछे चार मोटरसाइकिल चल रही थीं । कुल नौ चपरासी उन्हें छोड़ने के लिए उनके घर की ओर एक रैली की शक्ल में रवाना हो गए थे । सबके हाथों में उनके लिए लाए गए चमकीले रैपर में लिपटे गिफ़्ट आयटम थे । काफ़िला उनके घर की ओर बढ़ता जा रहा था।

दिनेश की आँखें भर आईं । वे भीतर तक भीग गए थे ।  वे कृतज्ञता से झुके जा रहे थे । उन्हें अब तक मालूम ही नहीं था कि इन छोटे समझे जाने वाले लोगों के दिल में उनके लिए कितना प्यार भरा था । दूर कही गूँज रहा था-“तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो, जहाँ उम्मीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता।”
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सिनारिओ : शेखर जोशी

  कहानी सिनारिओ : शेखर जोशी     अपना सफरी थैला , स्लीपिंग बैग और फोटोग्राफी का भरपूर सामान लेकर जब वह गाँव पहुँचा , सूर्यास्त का समय...