◆रतिनाथ का पलंग
◆सुभाष पंत
बावन साल की उमर में रतिनाथ की जिन्दगी में एक ऐसा दिन आया जब वह बेहद खुश था और अपने को दुनिया का सबसे सुखी प्राणी अनुभव कर रहा था। यूँ यह कोई ख़ास दिन नहीं था, सन् उन्नीस सौ अस्सी मई की पहली तारीख़ थी। मौसम काफी गरम था। इतना कि बोलते हुए मुँह से शब्द
बाद में निकलता था, माथे पर पसीजकर बूँदों की शक्ल में पसीना पलकों से पहले टपक पड़ता था। लू थी और दिन लम्बे और उबाऊ थे। कर्जदार की छाती पर सवार बारीवाले की तरह सूरज आसमान से आसानी से टलने का नाम ही नहीं लेता था। लेकिन रतिनाथ खुश था और बहुत खुश था। उसे सब कुछ बड़ा प्रेरणादायक लग रहा था। धपधपाते आसमान में उसे हवा की खुनक, चिड़ियों का संगीत और फूलों की महक का आभास हो रहा था। वह अपने को इतना हल्का अनुभव कर रहा था कि हाथ फैलाकर हवा में उड़ सकता था और साथ ही उसमें ऊर्जा का इतना आवेग था कि कूदने से आसमान को छू सकता था।
इस अपार खुशी की वजह यह थी कि कर्ज अदायगी की आख़री किश्त पिछली तन्ख्वाह में कट चुकी थी और इस बार अनिवार्य कटौतियों के बाद पूरा वेतन उसके हाथ में था। और यह कोई सामान्य बात नहीं थी। यह सुखद अवसर कितने अरसे के बाद आया था, उसे कतई याद नहीं पड़ रहा था। वह भूल चुका था कि इससे पहले कब उसे पूरा वेतन मिला था और उस वक्त उसके हृदय में कौन सा फूल खिला था? उसने अपनी तीन बेटियों की पढ़ाई, उनका विवाह, पत्नी की बिमारियाँ, रिश्तेदारी की औपचारिकताएँ तथा अन्य दीगर खर्चे कर्ज निकालकर ही निबाहे थे। इसके अलावा उसके पास और कोई जरिया भी नहीं था। उसका एक कर्ज पूरा भी नहीं हो पाता था कि दूसरा सिर पर चढ़ जाता था। उसे कतई विश्वास नहीं था कि वह कर्ज के इस चक्कर से कभी मुक्त हो सकेगा। लेकिन वह अपनी मितव्ययता से आखिर इस चक्कर से मुक्त हो ही गया और वह भी बावन साल की उमर में और फिलहाल उसे ऐसा कोई आसन्न संकट भी दिखाई नहीं पड़ रहा था कि उससे निबटने के लिए तत्काल कर्ज निकालने की ज़रूरत होगी। बेटियाँ ब्याही जा चुकी थी। बेटे ने फर्स्ट डिविजन में हाई-स्कूल पास कर लिया था और वह विज्ञान विषय के साथ फर्स्ट इयर में पढ़ रहा था। उसकी फीस माफ थी। दफ्तर से चुराए कागजों से उसने बेटे के लिए पन्द्रह-बीस कॉपियां बना रखी थी और तकरीबन एक दर्जन बालपेन और इतने ही सिक्के भी जमा कर रखे थे। यानी बेटे की तात्कालिक जरूरतें पूरा करने में वह सक्षम था। संयोग से अमूमन बीमार रहने वाली उनकी पत्नी भी इन दिनों स्वस्थ चल रही थी। माता-पिता बूढ़े हो चुके थे और उनकी आशा-आकांक्षा अभावों के गर्त में दफ़्न हो चुकी थीं और वहाँ से करवट लेकर बाहर झांक सकने की संभावना अब नहीं के बराबर थी। यानी, बावन साल की उमर में उसके सामने एक ऐसा अवसर आया था कि वह अपने बारे में सोच सके। कुछ ख़ास और अहम।
घर पहुँचकर उसने थैला खूंटी से लटकाया और अपनी पत्नी को आवाज दी, ‘‘अरे, सुनती होऽऽऽ’’
पत्नी छत पर बड़ियां लगा रही थी। आवाज़ सुनकर वह पीठी-सने हाथ लिए नीचे उतरी।
‘‘क्या बात है?’’ उसने पूछा।
‘‘बात तो कुछ नहीं,’’ उसने कहा, ‘‘लेकिन क्या यह जरूरी है कि जब भी मैं दफ्तर से लौटूँ तो तुम मुझे काम करती ही मिलो।’’
पत्नी को आश्चर्य हुआ। अकसर तो वे दनकते हुए दफ़्तर से लौटते थे। मरखन्ने बैल से। आज यह क्या हुआ? वह असहज हो गई।
‘‘यहॉं बैठो मेरे पास।’’ रतिनाथ ने कहा।
पत्नी उदक गई। ‘‘मेरी पीठी सूख रही है।’’
‘‘उसे गोली मारो। आदमी को कभी कोई क्षण सुख-शान्ति से भी बिताना चाहिए। हम सिर्फ कोल्हू के बैल नहीं है। समझीं तुम।’’
पता नहीं क्या हुआ? पत्नी की आँखें भर आईं। लेकिन उसे आँसू पोछने में शर्म-सी महसूस हुई। इतनी पक्की उमर की औरत का सहानुभूति के हल्के परस से विह्वल हो जाना सम्मानजनक तो नहीं ही कहा जा सकता।
रतिनाथ ने अपना हाथ बढ़ाकर उसका हाथ थाम लिया और फुसफुसाया, ‘‘पारवती।’’
पारवती जवाब देना चाहती थी, नहीं दे पाई। उसने उनके हाथ की तरफ देखा जिस पर आकाशबेल की तरह नसों का नीला गुच्छा उभरा हुआ था। वह भयभीत हो गई, वे जरूरत से ज्यादा बुढ़ा गये हैं। साथ रहते हुए भी उसे इस बात का अहसास इससे पहले क्यों नहीं हुआ? शायद इसकी वजह यह रही हो कि वह आज उन्हें सिर्फ देख ही नहीं रही थी, बल्कि महसूस भी कर रही थी....
‘‘दरसल मैं सोच रहा हूँँ कि हमें अपनी जिन्दगी नए सिरे से शुरू करनी चाहिए।’’
पारवती को आश्चर्य हुआ। उनके पैर जीवन की ढलान की ओर बढ़ चुके हैं। अब तो बची-खुची किसी तरह से निभ जाए, यही बहुत है। ऐसे वक़्त जिन्दग़ी को नए सिरे से आरम्भ करने का उनका आमंत्रण उसे बड़ा बेतुका और हास्यास्पद लगा।
‘‘यह बात मैं बहुत गम्भीरता से कह रहा हूँ।’’
‘‘बड़ियाँ लगा लूँ फिर आपकी बात सुनती हूँ।’’
रतिनाथ को अफ़सोस हुआ। पारवती उसकी बात सुनने की जगह बड़ियों को ज्यादा महत्व दे रही है। उसने मजबूती से कहा, जिसके भीतर कहीं कोई हल्का-सा दर्द भी था, ‘‘नहीं, तुम्हे पहले मेरी बात सुननी होगी।’’
पारवती ने देखा कि उनके चेहरे पर जीवन के प्रति गहरी शिद्दत का रंग था। वह चुपचाप रतिनाथ की बगल में बैठ गई। उत्सुक और सहमी हुई।
‘‘मेरे रिटायरमेंट को अब छः साल रह गए हैं,’’ उसने कहा, ‘‘परमात्मा की कृपा से तीनों बेटियों की शादियां हो गई हैं। मेरे सारे कर्ज निबट चुके हैं और मुझे पूरा वेतन मिलने लगा है, जो मेरे जैसी छोटी नौकरीवाले, ईमानदार और जिम्मेदारियों से भरे आदमी के लिए छोटी बात नहीं है। अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए अब तक हमने गधे और सुअर की जिन्दगी जी है। अब यह बची हुई जिन्दगी हमें अपनी तरह से जीनी चाहिए। लेकिन मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि इसकी शुरुआत कहाँ से करें?’’
‘‘अभी हमारी जिम्मेदारियाँ कहाँ खतम हुईं?’’ पारवती ने कहा, ‘‘बिट्टू को पढ़ाना है। उसका ब्याह करना है। माँजी-पिताजी का बुढ़ापा, हारी-बिमारी और......ये जिन्दगी तो समर भूमि है......जिसमे हर टैम लड़ते रहना और लड़ते-लड़ते मर जाना है।’’
‘‘बिट्टू को अपने पैरों पर खुद खड़ा होना चाहिए। वह होशियार है और खुद खड़ा हो जाएगा। रही माँजी-पिताजी की बात तो यह तो हमारी जिन्दगी से बंधी डोर है, अपने आप खिंचती चलेगी। और फिर, हम जिन्दगी सिर्फ दूसरों के लिए ही तो लिखाकर नहीं लाए हैं। कभी तो हमें अपने बारे में भी सोचना चाहिए। सलाह दो हम इसे कहाँ से शुरू करें?’’
वह उलझन में पड़ गई। जिन्दगी तो ऊन की गुच्छी की तरह उलझी हुई है, जिसका सिरा ढूँढे नहीं मिलता। दरसल वह जीवन-संघर्षों से बुरी तरह थक चुकी थी और अपने बारे में सोचने की ताक़त वह खो चुकी थी।
‘‘सोचता हूँ तुम्हारे लिए एक सिल्क की साड़ी खरीद दूँ।’’
पारवती अभिभूत हो गई। अब तक तो वह यही सोच रही थी कि उनके बीच का प्यार लम्बे संघर्षों में पथरा गया है। लेकिन नहीं, वह तो ज्यादा निखरकर वापिस लौटा है। उसके सीने में एक नन्हा खरगोश कुलाँचें भरने लगा। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है। जब मन में पहनने-ओढ़ने की हौंस थी तब.....अब तो तीस साल होमकुण्ड में जलकर सब कुछ स्वाह हो गया। वह पारवती नहीं लौट सकती जिसके दिल में हजारों सपने थे। कभी नहीं लौट सकती....
‘‘मुझे साड़ी की जरूरत नहीं है,’’ उसने आभारी स्वर में कहा, ‘‘अब तो मोटा-झोटा पहनने की आदत हो गई है। इस उमर में साड़ी पहनती कैसी लगूँगी भला! बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम।’’
रतिनाथ को उसका यह हतोत्साहित रवैय्या पसंद नहीं आया। लेकिन वह जो कुछ सोच रही थी, उसे झुठलाया भी नहीं जा सकता था।
‘‘मैं सोचती हूँ,’’ उसने कहा, ‘‘अगर पैसों की कुछ सुविधा हो तो खाने-पीने में कुछ सुधार कर लें। मोटे चावल, घटिया दालें और सड़ी-गली सब्जियाँ खाते सभी की सेहत खराब हो गई है।’’
रतिनाथ घबरा गया मानो पारवती ने कोई बहुत ख़तरनाक बात कह दी हो। फिर वह संभलकर उसे समझाने लगा, ‘‘यह अपने बूते से बाहर की बात है। एकमुश्त दो-चार-पाँच हजार रूपया खर्च किया जा सकता है। लेकिन रैकरिंग खर्च बरदाश्त नहीं किया जा सकता। यह अर्थशास्त्र का संकट है और यहीं आकर आदमी लाचार हो जाता है।’’
पारवती की समझ में कुछ नहीं आया। यह उजबक की तरह उसका मुँह देखने लगी।
‘‘यह आदमी को भीतर से पूरी तरह दरिद्र और बाहर से चमकदार बनाए रखने की अर्थशास्त्र की चालाकी है।’’ रतिनाथ ने कहा, ‘‘देखो, एक टी.वी. तीन हजार से बत्तीस सौ का हो जाता है तो निभ जाता है, क्योंकि यह जीवन में एक या ज्यादा से ज्यादा दो बार खरीदा जाता है। लेकिन अगर दाल दस की जगह ग्यारह रुपये हो जाती है या चीनी छः की जगह सात रुपये किलो हो जाती है तो यह मंहगाई आदमी को जहर की तरह मारती है और उसे अपने को जिन्दा रखने के लिए कहीं न कहीं कटौती करनी पड़ती है।’’
पारवती और उलझन में फँस गई। एक ओर तो ये नये सिरे से जिन्दगी शुरू करना चाहते हैं, दूसरी ओर इनकी इतनी सामर्थ्य भी नहीं है कि सड़ी सब्जियों की जगह ताज़ा सब्जियाँ ला सकें। आखिर इनकी मंशा क्या है? जिन्दगी जैसी चल रही है, चलने दें.....अब रह ही कितनी गई है.....असली जिन्दगी तो अभावों के अंधेरे में कट चुकी है।
‘‘तुमने बताया नहीं......’’
‘‘घर की मरम्मत करा लेना ठीक रहेगा......एकदम जर्जर हो गया है। अंधड़ में इसकी दीवारें काँंपती हैं और बरसात में बाहर कम बरसता है, भीतर ज्यादा।’’
रतिनाथ के चेहरे पर एक करुण मुस्कान उभरी और वह बिना एक भी शब्द बोले पारवती के चेहरे की ओर देखने लगा। उसका चेहरा किसी अजनबी के चेहरे में तब्दील हो गया। वह अन्दर तक और बुरी तरह आहत हो गया।
पारवती को अपनी गलती का अहसास हो गया। अनजाने में उसने उनकी कोई दुखती नस को छू दिया है। उसने कातर विनम्रता से कहा, ‘‘नहीं.....नहीं मेरा मतलब....’’
‘‘तुम्हारा मतलब जो भी रहा हो लेकिन एक बात साफ है कि तुम व्यावहारिक बिल्कुल भी नहीं हो। तुम क्या सोचती हो कि तनख्वाह में कर्ज अदायगी के चार-पॉंच सौ बढ़ जाने से मेरी औकात मकान मरम्मत कराने की हो गयी। जानती हो एक ईंट मय मसाले के एक रूपये की पड़ती है? रिटायरमेंट पर अगर सब कुछ ठीकठाक रहा तब इसके बारे में सोचा जा सकता है।’’
इस बार पारवती अतिरिक्त रूप से सचेत होकर सोचने लगी। तर्क और विवेक के साथ कोई ऐसा प्रस्ताव रखा जाए जिसे तुरन्त सहमति मिल जाए। काफी सोच-विचार के बाद उसने कहा, ‘‘तो फिर एक टी.वी. खरीद लेते हैं।’’
‘‘टी.वी....’’ रतिनाथ क्षणभर के लिए रुका, फिर उसने नकार में सिर हिला दिया। ‘‘टी.वी. हमारी संस्कृति पर गम्भीर हमला है और यह आदमी की मौलिक सोच को पंगु बना देता है। यह तो समझो टी.बी. की बिमारी है और यह आदमी का बहुत वक्त चुरा लेता है......वह कीमती वक्त जिसमें काफी कुछ महत्व का काम किया जा सकता है......बिट्टू की पढ़ाई पर इसका कितना असर पड़ेगा, सोचा कभी? फिर दो-चार साल में उसकी शादी होगी तो टी.वी-फी.वी तो उसमें मिलेगा ही। कुछ और सोचकर बताओ......’’
‘‘मेरा दिमाग तो फेल हो गया,’’ पारवती ने कहा, ‘‘मैं चाय बना लूँ। अब तुम्ही सोचो।’’ और वह चाय बनाने चली गई।
जब तक वह चाय बनाकर लाई, तब तक रतिनाथ गम्भीरता से कुछ सोच चुका था और मन्द-मन्द मुस्कुरा रहा था। चाय का घूँट भरकर ताजादम होते हुए उसने कहा, ‘‘सोचता हूँ डबल बेड बनवा लें। फोल्डिंग पलंग पर सोते-सोते तो कमर दोहरी हो गई।’’
पारवती के हिये में एक नन्ही-सी चिड़िया पंख फड़फड़ाने लगी। डबल बेड पर सोने का अरमान तो पता नहीं कब से उसके मन में भी था। उसकी आँखें लाज से काँपने लगीं।
‘‘क्या सोचती हो?’’ रतिनाथ ने उसे कुरेदा।
‘‘जरा साचो तो ठेले पर डबल बेड लदा आ रहा है और पीछे-पीछे तुम मटकते चल रहे हो तो कैसा लगेगा! दुनिया क्या कहेगी?’’
‘‘दुनिया का काम तो गाल बजाना है। मैं तुम्हे अकसर बाप, बेटे और गधे की कहानी सुनाता हूॅं। तुमने उससे भी कोई प्रेरणा प्राप्त नहीं की। दुनिया की परवाह की तो जी नहीं सकोगी।’’
पारवती ने उस समय प्रेरणा प्राप्त की हो या न की हो जब रतिनाथ ने उसे यह कहानी सुनाई थी, लेकिन इस समय वह प्रेरणा से लबालब थी। उसने उत्साह से पूछा, ‘‘कितने का बनेगा?’’
‘‘बॉक्स और रैक्सवाला लगभग चार हजार का।’’
‘‘चार का.....’’ वह चिहुँक गयी।
‘‘दो के कॉयर फोम के गद्दे।’’
‘‘बाबा रे!’’
‘‘चादरें और तकिए लगभग पाँच सौ के।’’
‘पाँच सौ!’’
‘‘यानी, कुल मिलाकर हुए साढ़े छः हजार।’’
‘‘सिर्फ सोने भर के लिए साढ़े छः हजार का खरचा! ऐसी औकात तो हमारी नहीं है। माँजी-पिताजी क्या कहेंगे?’’
‘माँ-बाप बच्चों के सुख से सुखी होते हैं।’’
‘‘खैर रहने दो.....तुम्हारी माँ ऐसी तो नहीं है।’’
‘‘यह सब बाद में देखा जाएगा।’’
‘‘रुपया कहां से आएगा?’’
‘‘फंड से लोन निकाल लूंगा।’’
‘‘फिर वही कर्ज का चक्कर।’’
‘‘दरअसल अब उधार की आदत पड़ गई है, धोबी के गधे की तरह। उसकी पीठ पर बोझ कम हो तो वह चलने से इनकार कर देता है।’’
अगले रोज दफ्तर पहुँचकर रतिनाथ ने पहला काम किया कि जी.पी.एफ. से भतीजी की शादी के नाम पर सात हजार कर्ज लेने का आवेदनपत्र लाइन में लगा दिया। और दफ़्तर से छूटने के बाद वह सीधा ‘स्टैन्डर्ड फर्नीचर मार्ट’ पहुँच गया। दुकानदार उनका जानकार था। उन्हें देखकर प्रसन्न हुआ और बोला, ‘‘रतिनाथजी, आज इधर का रास्ता कैसे याद आ गया?’’
रतिनाथ का चेहरा गर्वोन्नत था। बोला, ‘‘एक डबल बेड बनवाना है।’’
‘‘अभी कोई बिटिया शादी-ब्याह के लिए रह गयी है क्या?’’
‘‘मेहरा साहब आपकी दुआ से सबके ब्याह हो गए। गंगा नहा लिया।’’
‘‘तो फिर....’’
‘‘तो फिर का क्या मतलब?’’ रतिनाथ नाराज़ हो गया, ‘‘क्यों भई, हम डबल बेड पर नहीं सो सकते क्या?’’
‘‘क्यों नहीं साहब.....वो बात नहीं, मेरा मतलब है, घर के लिये बनवाना है तो चीज बढ़िया होनी चाहिए न।’’
‘‘घर के लिए ही चाहिए।’’ रतिनाथ सहज हो गया।
‘‘आप डिजाइन सिलेक्ट करिए। ऐसा शानदार चीज बनाकर दूंगा, जो सिर्फ पलंग ही नहीं, आर्ट का पीस होगा।’’
उसने एक डिजाइन पसन्द कर लिया।
‘‘वह साहब! बड़ी ऊँची च्वाइस है आपकी।’’
‘‘कब तक बन जाएगा?’’
‘‘जब आप हुकम करें।’’
रतिनाथ ने अनुमान लगाया सामान्य रूप से फंड का पैसा मिलने में बीस-पच्चीस दिन तो लग ही जायेंगे। उसने कहा, ‘‘महीने भर में बना दीजिये।’’
‘‘ठीक साहब। सनमाइका किस कलर का चलेगा?’’
‘‘मेरे खयाल में क्रीम कलर का प्लेन माइका ठीक रहेगा।’’
‘‘मैं भी आपको यही रंग तजवीज करता।’’
रतिनाथ खुश हो गया। अभावों और संघर्षों की लम्बी मार के बाद भी उसका सौन्दर्य-बोध अभी जीवित था।
‘‘पाये शीशम के ही होंगे न।’’
‘‘बिलकुल। आपके लिए खास डाट चिरवाऊँगा। माल क्या, समझो सोना है।’’
‘‘कीमत क्या होगी?’’
‘‘आप हमारे पुराने गाहक हैं, आपसे दो पैसे कम ही लेंगे। हिसाब बाद में लगता रहेगा। मोटा अंदाज है, चार सवा चार के आसपास बैठेगा।’’
‘‘ठीक है, तो अगले महीन इसी तारीख को.....’’
‘‘आप बिल्कुल फिकर न करें।’’
रतिनाथ ने बयाना दिया और सुखी आत्मा के साथ घर लौट आया। चाय पीकर वह अपने फोल्डिंग पलंग पर लेटा तो उसे वह बहुत असुविधाजनक लगा। लेकिन कोई बात नहीं, बस महीने भर की ही तो बात है। फिर तो उसके पास एक ऐसा चमकदार माइका का पलंग होगा जिसमें वह अपनी शक्ल भी देख सकेगा। सहसा उसे लगा कि उसने एक महीने का समय देकर गलती की है। डीलिंग कलर्क को चाय-पानी पिलाकर फंड जल्दी निकाला जा सकता था। एक महीने का इन्तज़ार उसे भारी लग रहा था।
आगे ठेली पर पलंग लदे थे और उसके पीछे रतिनाथ चल रहा था। कोई परिचित मिल जाता तो वह थोड़ा असहज हो जाता, जैसे कोई अपराध कर रहा हो। परिचित के चेहरे पर भी व्यंग्य की कमान खिंच जाती-कव्वा भी हंस की चाल चलने लगा। ठेली मुहल्ले में पहुँची तो उनींदा मुहल्ला चौंककर जाग गया और उसकी खिड़कियाँ-दरवाजे कनफूसियाँ करने लगे।
पलंग आँगन में उतरे तो आंगन महक गया। वे सलीके से कमरे में पहुँचे तो कमरे की आब बदल गयी। माँ दोतल्ले के ओसारे में बैठी रामचरित मानस बाँच रही थी। उसे लगा कि घर में कोई गम्भीर किस्म का षडयंत्र रचा जा रहा है। उसने आँगन में पलंग उतरते देख लिए थे। वह घुटनों पर हाथ रखकर उठी और हाँफते हुए साढ़ियाँ उतरकर नीचे आई और विस्फारित नयनों से पलंग को कुछ देर तक देखते रहने के बाद बोली, ‘‘ऐनक तो एकदम उतर गई है, कुछ दिखता ही नहीं। कितनी बार कहा-इसे बदल दो पर बुड्ढे-ठेरों की कौन सुनता है?’’
‘‘माँ ये पलंग है। डबल बेड। आँख से मानस की चौपाई दिखती है, तो इतने बड़े पलंग क्यों दिखाई नहीं दिए?’’ रतिनाथ ने झुंझलाते हुए कहा।
‘‘अच्छा डबल बेड! भौत ठीक किया। कित्ते का बना?’’ पलंग के चिकने माइका पर हाथ फिराते हुए उसने पूछा।
रतिनाथ को यह टोका-टोकी अच्छी नहीं लगी। उसकी गांठ से तो दाम जा नहीं रहे हैं, पर टांग अड़ायेगी जरूर। चलती बेला है। दुनियादारी छोड़कर रामनाम सुमरना चाहिए।
पारवती बहुत व्यावहारिक और चतुर थी। इससे पहले कि मामला बिगड़ जाए वह बीच में कूद पड़ी और बोली, ‘‘येई कोई हजार-डेढ़ हजार का है माँजी।’’
उसने पलंग की कीमत उसकी वास्तविक कीमत से काफी कम बताई थी ताकि माँजी की आत्मा को क्लेश न हो। पर उसकी आत्मा यह कीमत सुनकर भी बिदक गई। ‘‘डेढ़ हजार!’’ उसने जलन भरे आश्चर्य से कहा, ‘‘कैसी आग लग गई जमाने पर, अब तो मुए पलंग भी डेढ़ हजार के बनने लगे। पलंग नी हुआ स्वर्ण सिंघासन हो गया। इतने रुपयों में तो चारों धामों की जात्रा हो जाती......पैसा कमाना जितना जरूरी है उसे जतन से संभालना उससे भी जादा जरूरी है।’’
उसकी बात सुनकर रतिनाथ के भीतर तेजाब-सा कुछ फैल गया लेकिन वह कुछ बोला नहीं और खून का घूँट पी कर चुप रह गया। पारवती भी चुपचाप सिर झुकाकर रसोई में चली गई।
माँ ने देखा कि उसकी धार्मिक भावना और आर्थिक शिक्षा को कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है, तो वह कमर पर हाथ रखकर थोड़ा झुकी और टसकते हुए बुदबुदाई, ‘‘ये बाई का दरद फिर उखड़ गया, जानी लेके रहेगा।’’
रतिनाथ ने इस पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दर्शाई।
‘‘कमर तो एकदम तख्ता हो गई।’’ उसने कहा और जोरों से टसकते हुए दोतल्ले में चली गई। वहाँ जाकर वह धम्म से चौकी पर बैठी और उच्च स्वर में, जो उसके क्रोध की धार्मिक अभिव्यक्ति था, रामचरित मानस बांचने लगीः
‘राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजियार।।’
कॉयर फोम के गद्दे बिछाते हुए रतिनाथ की उंगलियाँ उस पर ऐसे सरसराई और ऐसी आकुल उत्कंठा से भर गईं जैसे कभी पारवती के बाल सहलाते हुए थरथराने लगती थी,जब उसके बाल रेशमी थे और वह लाजभरी, जवान नारी देह की खुशबू से रची इस घर में दुल्हन बनकर आई थी। उसकी उंगलियों के पोरों से कवितायें फूट रही थीं और हृदय से भरापूरा चाँद झांक रहा था। उसने जतन से चादर बिछाई और बड़़े प्यार से उसकी सलवटे दूर की। टेबल लैम्प निकाला, जो इस्तेमाल न किए जाने की वजह से काम नहीं कर रहा था। उसकी मरम्मत की, दफ़्तर से चुराकर लाया बल्ब उसमें फिट किया ( हालांकि पलंग के सिरहाने ट्यूब लाइट फिट करने की व्यवस्था भी थी लेकिन अभी ट्यूब लाइट का इंतजाम और नहीं हुआ था ) पलंग के सिरहाने बनी रैक की चिकनी सतह पर रखकर उसे जलाया। लैम्प के प्रकाश में पलंग सर्पमणि-सा जगमगाने लगा। और सिरहाने में जड़े आईने ने उसकी छवि को अपने अंक में भर लिया। उसे लगा जिन्दगी हर कोने से मुसकुरा रही है। उसने अपना थैला खोला, जो उसे पलंग की भव्यता के सामने बड़ा दरिद्र दिखाई दिया और जिसे बदल दिया जाना उसे आवश्यक लगा, और उसमें से उस दिन का अख़बार निकाला जिसे वह दफ़्तर से लौटते वक्त विभागीय जल-पानगृह के मैनेजर से अगले रोज वापस कर दिए जाने की शर्त पर मांग लाया था। वह फोम के तकिए पर सिर टिकाकर अख़बार पढ़ने लगा। यूं यह अख़बार पढ़ना नहीं था और उसे अख़बार में खास दिलचस्पी भी नहीं थी, यह सिर्फ अख़बार पढ़े जाने के आभिजात्य का संतोष-भर था। उसका दिमाग़ अख़बार में कोई सनसनीखेज ख़बर ढूँढ लेने की जगह पारवती की चूड़ियों का संगीत सुनने को ज्यादा मचल रहा था, जो उसके जीवन का सारतत्व था। यह हैरानी की बात थी लेकिन सच थी कि वह बत्तीस साल पीछे लौट गया था, जब पारवती के भीतर से कोई संगीत फूटता था।
उसने खाना पलंग पर बैठकर ही खाया और इस हिफाजत से खाया कि जूठन चादर पर गिरकर उसे गंदा न कर दे। खाना खाकर वह पलंग पर लेट गया और पारवती का इंतजार करने लगा। काफी समय बीत गया, वह आ ही नहीं रही थी। रसोई में उसकी खटर-पटर चालू थी। उसने पहली बार शिद्दत से अनुभव किया कि उसकी पत्नी ‘ओवर बर्डन्ड’ है, जिसकी वजह से उसके भीतर ममता भी जाग रही थी और तरस भी। प्रतीक्षा जरूरत से ज्यादा लम्बी हो गई तो वह अख़बार निकालकर फिर पढ़ने लगा। इस बार अख़बार पढ़ते हुए वह संवेदनशील हो गया था क्योंकि पारवती के प्रति उपजे तरसभाव की वजह से उसका हृदय पहले से ही व्याकुल था। अख़बार देश का जो चित्र उसके सामने पेश कर रहा था, उसने उसे हिला दिया।
पत्नी रसोई से काफी देर बाद लौटी। खस्ताहाल और थकी हुई। रतिनाथ ने कूदकर उसका हाथ थाम लिया, लेकिन वह इतना ठंडा था कि एक शीतल झुरझुरी उसके भीतर तक उतर गई, हालाँकि ये जून की उबलती हुई, गरमियों की रात थी। ‘‘क्या बात है पारवती?’’ उसने घबराकर पूछा।
‘‘कुछ नहीं ।’’ उसने बहुत ठंडा जवाब दिया।
उसने पारवती को अपनी बाँहों में लेते हुए कहा, ‘‘हम उन क्षणों को फिर से दुहराने की कोशिश करते हैं, जिन क्षणों में हमने अपनी जिन्दगी शुरू की थी।’’
वह उसी तरह जड़ खड़ी रही।
‘‘कुछ याद है पारवती, हमारी पहली रात में क्या हुआ था......कितना मजेदार वाकया......मैं तुम्हे प्यार करने के लिए बिस्तर पर आया था तो मेरा पैर मसहरी के बाँस में फँस गया था और मसहरी मय डंडों के हमारे ऊपर गिर पड़ी थी। तुम घबराकर चीखी थीं....तुम्हारी वह अदाभरी घबराहट और कोमल चीख मुझे आज तक याद है।’’
‘‘यही होता है,’’ पारवती रुंधे गले से कहा, ‘‘खुशी का कोई पल अगर भटकता हुआ इधर आ जाता है तो सिर पर डंडे पहले बरसने लगते हैं।’’
‘‘मैं कुछ समझा नहीं......’’
‘‘तुम कुछ समझ भी नहीं सकते.....’’ पारवती फुफकारती हुई बोली।
‘‘खैर इन बातों को छोड़ो और अराम करो। पलंग तुम्हारा इंतजार कर रहा है।’’
वह अपना हाथ छुड़ाते हुए बोली, ‘‘तुम्हे ही मुबारिक हो यह पलंग, मुझे नहीं सोना इस पर।’’
‘‘क्या बात है पारवती? तुम तो इसका इतना इंतजार कर रही थी.....’’
‘‘कुछ पता है, मांजी कितनी जली-कटी सुना रहीं हैं......यह पलंग उन्ही के शयनकक्ष में लगवा दो।’’
‘‘तुम भी पारवती इतनी समझदार होकर कभी-कभी बच्चों की तरह बात करने लगती हो।’’ रतिनाथ ने उसे फुसलाने की कोशिश की, ‘‘बुजुर्ग हैं, टोका-टाकी तो उनकी आदत ही होती है। उनकी बात का क्या बुरा मानना?’’ और उसका हाथ पकड़कर उसे पलंग पर खींच लिया।
वह अनिच्छा से पलंग के एक कोने में गठरी-सी लेटी और सुबकने लगी। ‘‘तुम दफ्तर चले जाते हो, भुगतना तो मुझे ही पड़ता है। आज दिन भर जो औरत उनके पास बैठने आई उसे सुसकारकर मेरे पास भेज दिया कि बहू को बधाई दे आओ, आज उसकी सुहागरात है। पलंग न लाकर मेरे लिए मिट्टी के तेल का पीपा ले आते, इस जंजाल से तो छुट्टी मिलती।’’
‘‘नहीं पारवती.....’’ रतिनाथ ने उसे अंक में भरने के लिए अपनी ओर खींचा।
पारवती ने उसका हाथ झटक दिया, ‘‘मुझे सोने दो। बहुत थक गयी हूँ। दिनभर मशीन की तरह काम पर पिली रहती हूँ उसका तो कुछ सोचते नहीं। ऊपर से प्यार-ठिठोली की सूझ रही है। यह उमर है प्यार-ठिठोली की?’’
छः हजार के पलंग पर लेटा रतिनाथ पत्नी के व्यवहार से बुरी तरह आहत और अपमानित हो गया। उसके प्यार का ज्वार सहसा ठंडा पड़ गया। उसने लैम्प बंद किया और सोने का उपक्रम करने लगा। उसे नींद नहीं आई। एक तो वह अपमान से घायल था, दूसरे बिस्तर की नरमी उसके पीठ और कूल्हों पर चुनचुनाहट पैदा कर रही थी। ऐसा लगता मानो फूलछड़ी पीठ पर सरसराकर गुदगुदी कर रही हो। करवट बदलता तो उसे डर लगता कॉयर फोम के गद्दे के गोल किनारे से कहीं नीचे न फिसल पड़ें। वह इतने आनन्द का अभ्यस्त नहीं था। कई मर्तबा उसे लगता और शायद ज्यादा ही लगता कि वह पलंग पर नहीं छः हजार रूपयों के नोटों पर सोया हुआ है और उसका सीना जोर-जोर से धड़कने लगता। इस कशमकश में वह पूरी तरह से पस्त हो गया। लाख कोशिश के बाद भी उसे नींद नहीं आई। चौकीदार की सीटी की आवाज़ रह-रहकर सन्नाटे को चीरकर उसके दिमाग में बजती और वह ज्यादा बौखला जाता। आखिर रात के किन्हीं निःशब्द लम्हों में वह चुपचाप उठकर सहन में आ गया। उसका फोल्डिंग पलंग लावारिस-सा एक कोने में फोल्ड किया पड़ा था। उसने उसे सीधा किया और बिना बिछावन के उस पर लेट गया। उसका स्पर्श बड़ा पहचाना, अपनत्वभरा और आत्मीय था। उस पर लेटते ही उसे मीठी नींद ने अपनी बाँहों में भर लिया।
सुबह माँँ की भक्तिरस में सनी रामचरित मानस की चौपाई गाती आवाज़ से, जो आज कुछ ज्यादा ही करुणा भरी थी, उसकी आँख खुली तो उसने देखा कि उसके फोल्डिंग पलंग की बगल में दूसरा फोल्डिंग पलंग बिछाए पारवती गहरी-शान्त नीद सो रही है और उसका एक हाथ उसकी यानी रतिनाथ की अपनी छाती पर फैला है, जिसे उसने बहुत सहेजकर और प्यार के साथ वहाँ रखा होगा।
और अन्दर कमरे में डबल बैड दैत्य की तरह पसरा हुआ है।
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कहानी: सुभाष पंत
प्रस्तुति: गंगा शरण सिंह