शनिवार, 2 फ़रवरी 2019

आख़िरी कॉन्ट्रैक्ट : ममता सिंह

आखिरी कॉन्ट्रैक्ट : ममता सिंह

कहते हैं इंतजार मीठा होता है, लेकिन यदि पूरी जिंदगी इंतजार बन जाए तो.. यही सवाल बार-बार दस्तक दे रहा था कि मैंने झपटकर अपने दिल का कपाट बंद कर दिया, पर कहां। बंद करने की कोशिश में दिल की दीवार के भीतर के पट भी खुलते चले गए और मैं घनी सुरंग में गुम होती चली गई। कानपुर शहर की वह आखिरी शाम थी जब मोती झील के सघन बाग की डालियों ने झुक कर सलाम किया था, अमलतास के फूलों को सहला कर उसकी नरमी को अपनी मुट्ठी में समेट कर आगे बढ़ गई थी। सघन पेड़ों के बीच सूखी झील का सारा पानी मेरी आंखों में भर आया था,दुबारा-तिबारा बार-बार मुड़ कर देखा था कि पता नहीं दोबारा कब इस शहर में दाखिल होने मिलेगा।

मम्मी ने आफताब के घर ईद की दावत पर जाते हुए कहा था ''उनके यहां सिर्फ मुबारकबाद देना, कुछ खाना मत, यह लोग सिंवैयों में हड्डी का चूरा मिला देते हैं।’’

- ''केसर या पिसे हुए ड्रायफ्रूट की तरह हड्डियों का चूरा भी इनके यहां तैयार रखा रहता है क्या?’’

उस रोज जब मम्मी को यह बात मैंने याद दिलाई तो वह खिलखिला पड़ी थीं।

- ''मुस्लिम परिवार में दोस्ती तो क्या, हमें उनकी परछाई से भी दूर रखा जाता था।’’

...पर फिर भी मम्मी की दाद देनी पड़ेगी, वह खुद को राज़ी कर अपने उस परिवेश को धता बताते हुए उन्होंने 'ईश्वर-अल्लाह’ को शेक हैंड करवाया और मुझे आफताब को अपना जीवनसाथी बनाने की आज़ादी दे दी। यह दीगर बात है कि हमें उस शहर को अलविदा कहना पड़ा।

मैंने घड़ी की ओर देखा 'मूवर्स एंड पैकर्स’ ने टी-ब्रेक लिया था। मैंने भी अपनी स्मृतियों से ब्रेक लिया...

''बैंगलुरु में ठंड कहां पड़ती है? इतने सारे गर्म कपड़ों का क्या होगा’’... सोचते हुए मैंने वार्डरोब से आखिरी साड़ी तह करने के लिए निकाली और बहुत सारे लम्हे भी तहाने लगी... लेकिन साटन की साड़ी को जितना ही तहाओ, फिसल कर खुल ही जाती है। मेरा मन भी साटन की साड़ी की तरह फिसल कर अतीत की गलियों में ही विचर रहा है। शहर कोई भी हो तंगदिली हर शहर में होती है, मुंबई में भी तंगदिली की बड़ी इमारतें हैं।

''घर किसके नाम पर होगा?’’ - ओनर ने पूछा था।

''दोनों के’’

''कॉन्ट्रैक्ट मैडम के नाम से बनवा लीजिए... आपके नाम से सोसाइटी ऑब्जेक्शन करेगी’’ - कहते हुए मकान मालिक अपनी रिवॉल्विंग चेयर पर गोलाई से घूम गया था। ठीक उसी वक्त मेरे कानों में मम्मी की पुरानी आवाज ने डंक मारा था - ''बेटा हम आफताब को घर-जमाई बना लें, तो भी हमारा समाज उन्हें सम्मान के नज़रिए से नहीं देखेगा।’’

तमाम जिरह करने के बावजूद मकान मालिक ने घर देने से इंकार कर दिया। मेट्रोपॉलिटन शहर का यह मेरे लिए पहला झटका था। इस महानगर में भीड़ का महासागर पनाह पाता है, पर धर्म और संप्रदाय की कुछ जलकुम्भियों ने पूरे सागर के पानी को खारा कर रखा है। जैसे-तैसे एक मित्र की मदद से एक लाख डिपॉजिट, दो महीने का किराया एडवांस, ग्यारह महीने के कॉन्ट्रैक्ट पर हमें अस्थाई मकान मिल गया। उसी एक ही कमरे में बेड, अलमारी, ड्रेसिंग,ड्रॉइंग-रुम के सामान को ठूंस-ठूंस कर सजा दिया गया। फिर शुरु हुई मकान की असली तलाश।

वह झमाझम बारिश का भीगा दिन था। मैंने और आफताब ने बाइक पर सवार होकर एस्टेट-ऐजेन्ट के पीछे-पीछे मीरा रोड भाइंदर से लेकर बोरीवली, कांदीवली, मलाड, मालवाणी तक के चक्कर काटे। उस रोज हमने दस से पंद्रह घर देखे जिसमें से सिर्फ एक ही मकान में धर्म की दीवार नहीं थी। बकौल ब्रोकर मकान-मालिक धर्मनिरपेक्ष है और मीटिंग करने को तैयार है। 2-बीएच का एक आयताकार घर, दीवारें सीलन से मरियल पीली थीं। हॉल के नीचे की दीवारों से पपड़ी झड़ रही थी, बाईं ओर बाथरूम... उसी के सामने रसोई और लगा हुआ जरा सा गलियारा, फिर सीढ़ी चढ़ो तो मास्टर बेडरुम और छोटा बेडरुम, एक तरह का अजायबघर... छोटा कमरा बंद था जिसका हैंडल घुमाया तो चूँ-चर्र की आवाज हुई, साथ ही एक कनखजूरा इठलाता हुआ दीवार की ओर चढऩे लगा...।

...शी... मेरे मुंह से निकली आवाज को चालाक ब्रोकर नजर-अंदाज करता हुआ बोला- ''व्यू देखो मस्त है’’। उसने'वॉल-साइज़’ विंडो खोल दिया। खिड़ी खुलते ही सघन पेड़ की डालियां, जो कांच से सटकर मुड़ी हुई थी, वे खिड़की के भीतर हरहरा कर घुस आई और लहराने लगीं, उन्हें जैसे खुला आकाश मिल गया हो, मैंने उन पत्तियों को छूकर सहलाया तो एक बुलबुल जो बगल की डाली पर बैठी थी फुर्र से उड़ गई। मैं सोचने लगी यह चिडिय़ा ना नमाज़ पढ़ती होगी, ना पूजा करती होगी, ना ही प्रेयर... फिर इसका नाम रखना हो तो क्या रखा जाए? अगर इन चीजों में धर्म का बंटवारा हो जाए, तो इनका उडऩा दूभर हो जाए... कैसे पता चलेगा कि आसमान का कौन-सा इलाका किस मज़हब का है।

'पेंटिंग का एक कोट मारोगे तो घर सॉलिड झक्कास हो जाएगा, इधर डिपॉजिट का भी लफड़ा नहीं... सिर्फ 2 साल का किराया एक साथ देना होगा और टेंशन फ्री’ - ब्रोकर की आवाज मेरे कानों में झन्न से बजी थी।

'इस सीलन भरे दड़बे में रहने से बेहतर है कि हम मालवणी साइड, गणेश नगर के मुस्लिम इलाके में रहें.... मैं बुदबुदाई थीं।

''उधर आपके नाम का लफड़ा होगा बेन, मैंने कई मुसलमान भाय को गणेश नगर में घर दिलाया है, उन लोगों की सुबह भोंपू पर अज़ान से होती है, आपको जमेगा बेन?... अपना आफताब भाई तो एकदम क्लीन... अपुन का माफिक है, वो लोग आपको 'विदाउट बुर्का’ एक्सेप्ट करेगा’’?.... कहते हुए ब्रोकर ने फाफड़ा जलेबी की प्लेट हमारी ओर सरका दी। कहीं उसके हाथ आया शिकार चंगुल से छूट न जाए, इस गरज़ से वह हमें पटा रहा था। मेरी आंखों के आगे गणेश नगर का वह इलाका घूम गया जहां गलियों के बीचों बीच कुकडू-कूं करती मुर्गियां फुदकती रहती हैं, जगह-जगह कचरे का ढेर, हर नुक्कड़ पर लटकता हुआ मीट। उसकी दुर्गंध जैसे मेरे नथुनों में घुस गई हो, बुरका पहने उर्दू-दां औरतें... कबाड़ी की दुकानें... गली के मुहाने पर सायकल सुधारने की दुकानें, मैले-कुचैले कपड़े पहने अधनंगे बच्चे... बुर्के वाली औरतें घर की बेल बजा कर तोहफे में कभी बुर्का तो कभी नसीहत की घुट्टी दे जायेंगी... अरे मैं यह सब क्या सोच रही हूं?

हमारी जिंदगी ग्यारह महीने के कॉन्ट्रैक्ट में तब्दील हो गई थी... हर आठवें-नौवें महीने बाद घर की तलाश की मुहिम शुरू हो जाती। उस रोज मेरा भयंकर सिर दुख रहा था। वजह थी कई रातों की नींद का गायब रहना। दिन भर कंपनी में ज्यादा काम करना, फिर गृहस्थी और सबसे ज्यादा पीड़ादायक थी मकान की खोज... स्ट्रेस और थकान से बेहाल... उस दिन दफ्तर से जल्दी निकल गई यह सोच कर कि घर पहुंचते ही चादर तान कर सो जाऊंगी। आज घर देखने की मुहिम कैंसिल... हालांकि घर का कॉन्ट्रैक्ट खत्म हो चुका है, मकान मालिक की दया याचना पर कुछ दिनों की मोहलत मिली है।

अपने आप से गुफ्तगू करती हुई मैं कब अपने फ्लैट के दरवाजे पर पहुंच गई, पता ही न चला। इंसान को जब जिस चीज़ की बेसब्र तलब हो, वह उस वक्त कतई नहीं मिलती। मैंने देखा घर के ऑटोमेटिक लॉक के ऊपर लगी कुंडी पर फंसा एक ताला मुंह चिढ़ा रहा है।

''अरे...!!! मैंने तो ताला लगाया ही नहीं था... कहीं आफताब ने तो नहीं!!!

...यह तो हमारा ताला है ही नहीं, फिर!!!’’

... कई बार ताले को खींच कर देखा, पीछे मुड़ी, बाकी के तीनों फ्लैट बंद थे। किससे पूछूं, कौन हो सकता है, वजह क्या होगी, कहीं नल तो नहीं खुला छूट गया...? घर के भीतर कोई हादसा तो... नहीं-नहीं, दरवाजा बाकायदा बंद,सुरक्षित था। फिर यह ताला किसने जड़ा होगा। वॉचमेन से पूछने के लिए गेट पर आई, तो देखा वॉचमैन वहां से नदारद। सर में दर्द से ज़ोरदार सायरन बज रहा था। क्या सोसाइटी वालों ने यह ताला लगाया होगा? या फिर मिस्टर राठौर ने? लेकिन उन्होंने ही तो कुछ दिन और रहने का आश्वासन दिया था फिर...? तो क्या मकान मालिक ने हमसे झूठा वादा किया? आफताब भी नहीं आये हैं। जी चाह रहा था खूब जोर से रोऊँ... क्या करुं पुलिस में कंप्लेन्ट करुं लेकिन पुलिस भी तो उनकी खास है।

निश्चय ही यह 'तिलकधारी’ का काम होगा, वॉचमैन खैनी मलता हुआ सामने निर्विकार भाव से खड़ा था... ''मैडम उधर हमारी झोपड़ी है, वन रूम किचन। आप चाहें तो उधर दो-चार दिन रह सकती हैं’’.... उसकी आत्मीयता उस वक्त तेजाब का काम कर रही थी। आखिरकार आफताब आए, 'तिलकधारी’ जो सोसाइटी का सेक्रेटरी था, हम उससे मिलने गए। भयानक सिर दर्द का असर तो मेरे चेहरे पर था ही, रोई भी थी पर उस वक्त अधिक कातर आवाज में और ज्यादा विनम्रता पहन मैंने उससे अपने किराए के फ्लैट की चाबी मांगी।

''चाबी तो नहीं मिलेगी’’ वह तो जैसे जंग पर आमादा था आफताब और उसके बीच जमकर झड़प हुई। सोसाइटी के दूसरे मेंबर्स ने बीच बचाव जरूर किया लेकिन वह 'तिलकधारी’ की ही तरफदारी कर रहे थे। ''मैं औरत जात से बात नहीं करता’’... मेरी कही पर हर बात को इग्नोर करता हुआ वह बोला। पुलिस थाने से लेकर मैंने महिला आयोग  तक जाने की धमकी दे डाली, फिर भी वह टस से मस नहीं हुआ। दरअसल ऐसे तिलकधारियों की हर जगह खास जुगाड़़ होती है। हां... मेरी धमकियों से इतना फायदा जरूर हुआ कि वह अपने झगडऩे का सुर तार-सप्तक से मंद्र-सप्तक तक ले आया। लेकिन हमारे फ्लैट की चाबी नहीं दी तो नहीं दी। उस रात हम ने किस-किस को फोन नहीं किया, पर सबने इसे निजी विवाद का नाम देकर हथियार डाल दिए। अंत में बेबस-लाचार हम उसी मित्र के घर पनाह लेने को मजबूर हुए जिसके परिचय से हमें यह घर मिला था। उसने भी मकान मालिक से बात करने का प्रयास किया, पर बात नहीं बनी। मेरे पति का नाम आफताब है इसलिए हम यह वनवास काटने को अभिशप्त थे। मैंने अपने सिर को दुपट्टे से कसकर बांध लिया था। मन में विचारों का मंथन और सर का दर्द शबाब पर था...।

''हम पूरब को शुभ दिशा मानते हैं वह पश्चिम को, उनका और हमारा कोई मेल नहीं... समाज का हर तबका इन्हें हिकारत से देखता है, लोग तुम्हें भी देखेंगे’’.... मम्मी के वाक्य हवा में उड़ते हुए आंखों में, फिर दिमाग में पनाह पाने लगे थे... ''विधर्मी शादी से हमेशा कष्ट ही मिलता है, जिंदगी के हर मोड पर इसका एहसास होगा तुम्हें। इनकी और हमारी पूरी संस्कृति अलग है, हम खाली पेट पूजा करते हैं, वे खाना खा कर नमाज़ पढ़ते हैं...’’। इन विचारों को परे भगाने की गरज़ से मैंने अपनी आंखें कसकर मीच लीं, करवट बदल कर सोने की कोशिश करने लगी।

''यह मुझे क्या हो रहा है’’...

तभी आ$फताब की हथेलियों का ऊष्म स्पर्श और फिर मैं ग्लेशियर की तरह देर तक पिघलती रही, उसके प्यार के जल से देर तक भीगती रही। खौफनाक विचारों का भंवर आंखों के सामने गोल-गोल नाच रहा था... कहीं 'तिलकधारी’ ...बदमाशों की टोली लेकर यहां ना पहुंच जाए, कहीं वह हमारा सारा सामान घर से बाहर न फेंक दें कहीं वह तोडफ़ोड़ ना करे। मैंने महसूस किया आफताब की भी खुली आंखों में भी डर की सुनामी तबाही मचाए थी।

अगली शाम मकान मालिक से मीटिंग हुई, ग्यारह महीने का किराया एडंवास लेकर उसने हमें कुछ दिन और उसी मकान में रहने की इजाज़त दे दी। कुछ दिनों बाद सोसाइटी का वही 'तिलकधारी’ नगर निगम के चुनाव-प्रचार में मंच से जाति-धर्म और सांप्रदायिकता के खिलाफ भाषण दे रहा था... ''हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई, सब आपस में भाई-भाई’’। लोगों के मन में उसके भाषण में संवेदना के सूखे तालाब में भी कमल खिल रहे थे। जी चाहा था उससे माइक छीन लूं और चिल्लाकर बोलूं- ''झूठा है यह, फिरकापरस्त है यह, इसी की वजह से हम आज भी बेघर हैं’’ ...लेकिन सारे शब्द हलक में ही घुट कर रह गए।

''इस तरह हम कब तक भटकते रहेंगे चलो अब ग्यारह महीने के कॉन्ट्रैक्ट से मुक्ति पाकर अपना एक स्थाई आशियाना बनाएं’’... आफताब की यह आवाज सुरंग में 'इको’ की तरह मेरे कानों में गूंजी थी। उसने मेरे हाथों को अपनी ओर खींचते हुए हथेली पर लिखा था- ''...घर’’। खुद को हवा की तरह हल्का पाकर आ$फताब के कंधे पर मैंने अपना सिर रख उसकी शर्ट पर दो पारदर्शी बूंदें टांक दी थीं।

कुहासे से ढंके कॉन्क्रीट के इस वीरान जंगल में आफताब ही वह फूल था जिसकी मुस्कान की पंखुड़ी मुझे गुदगुदाती थी। इस जंगल में हम दोनों एक-दूसरे का हाथ थामे कठिनाइयों के पहाड़ पर चढ़ते जा रहे थे। हमने भी पहाड़ों की नर्म धूप की तरह रेशमी मुलायम घर खरीदने का सपना बोया और उसके अंखुवाने की प्रतीक्षा करने लगे। असित देसाई मीरा रोड के इलाके का एक बड़ा ब्रोकर था। उसने कई बिल्डिंगों में घर दिखाने के लिए खूब चक्कर कटवाए। फ्लैट पसंद आ जाता तो बिल्डर से मीटिंग की तारीख का इंतज़ार। अंत में जवाब यही मिलता कि वह किसी गुज्जु परिवार का प्रेफर करेगा।

''असित भाई, पहले ही आफताब का नाम बता दिया कीजिए, अगर बिल्डर राज़ी हो, तभी घर दिखाइए’’ आज़िज़ आकर मैंने ब्रोकर से कहा था- ''मैं आप लोगों को रितेशभाई शाह से मिलवाऊंगा, तेओ बहू नेकदिल माणस छे... बहु संघर्ष करीने एटला मोटा व्यापारी बणया छे।’’

सेक्टर 8 में रितेश भाई शाह की बनाई दो बिल्डिंगें... खूबसूरत गार्डन, सी-व्यू, मैंग्रोव्ज़, जहाँ कभी न खत्म होने वाला हरापन है। ''आफताब मेरा तो दिल आ गया है इस फ्लैट पर’’... आफताब ने पैंट की जेब से रुमाल निकालकर माथे पर पसीना पोंछते हुए कहा - ''असित भाई बिल्डर से मीटिंग फिक्स करो’’

...''फ्लैट में ईद पर बकरा तो नहीं काटोगे’’ - टेबल पर हाथ से ठक-ठक कर काटने का इशारा करते हुए रितेश भाई ने पूछा था।

''रितेश भाई ईद पर नहीं बकरीद पर होती है कुर्बानी, इनको मज़हब से कोई लेना-देना नहीं’’ - मैंने तपाक से कहा था।

''शिवांगी बेन आप बाद में धर्म बदलकर बुरका तो नहीं पेनोगे ना’’? प्रतिक्रिया में आफताब के चेहरे पर झल्लाहट साफ दिखाई दे रही थी।

''मेरे को प्रॉब्लम नहीं है मैं खाली सोसाइटी के लिए पूछता हूं... वो क्या हे ने 80 परसेंट फ्लैट बिक चुके हैं’’, इसके लिए उनसे पूछना पड़ेगा, वरना आपको बाद में तकलीफ हो जाएगी।’’...

आफताब के चिंतित और तमतमाये चेहरे को पढ़ते हुए मैंने कहा ''आप फ्लैट-ओनर पर प्रेशर डाल सकते हैं।’’ ''बेन! तमें हिंदू छे, आ भाई साब के नाम मां प्रॉब्लम छे। मोटा भाई आप नाम बदल लेवें या बेन के नाम पर एग्रीमेंट कर लेवें’’ ...कहते हुए पान मसाले का पाउच चीरकर मुंह में भर बाकी बातचीत उन्होंने मुंह में भरी पीक के साथ की। उसके पीक का छींटा मेरे ऊपर ना आ जाए, इस डर से झट मैंने अपनी कुर्सी टेढ़ी कर, जरा दूर खिसका ली।

''आपको कितनी किश्त में कितना पैसा देना होगा, इसकी पूरी डिटेल इस का$गज़ में है, आप अभी पांच लाख टोकन मनी दे दो’’ ...पेंसिल से लिखे हुए हिसाब का कागज थमाते हुए रितेश भाई शाह बोले। बजट देखकर हम दोनों को जैसे बिजली का शॉक लगा हो लेकिन फिर फंड और लोन की इलिजिबिलिटी याद करके थोड़ी आश्वस्ति हुई।

आधी रात के सन्नाटे में जब झींगुरों का समूह-गान सुनाई दे रहा था, शुक्ल-पक्ष की चट$ख चांदनी जंगल से छन-छन कर टुकड़े-टुकड़े बिखर कर झिलमिल कर रही थी, तभी नींद सपनों की उंगली थाम मुझे उस जगह ले गई जहां बासंती फूलों की घाटी में फूलों के झुरमुटों के बीच छोटी-सी सुंदर झोपड़ी थी, झोपड़ी के पीछे बहता झरना... झरने पर पड़ती चांदनी की परछाई को शिशु की मानिंद पकडऩे की मेरी कोशिश... पेड़ों के कतार के बीच हैमक... हैमक से बाहर आने की कोशिश की और खूबसूरत नजारों को आंखों में कैद करने के लिए आंखें कस से मिचमिचाई तभी एक क्रूर मच्छर ने डंक मारा, हड़बड़ा कर मैं उठ बैठी। हवा के झिनगोले से मैं धम्म से गिर पड़ी। ख्वाबों की नायाब दुनिया तबाह हो गई।

...''आफताब! बिल्डर ने टोकन-मनी की रसीद नहीं दी... कहीं वह मुकर गया तो...?’’

''इतना बड़ा बिल्डर, उसके लिए यह छोटी-मोटी रकम है... सो जाओ’’ कहते हुए आफताब खर्राटे भरने लगे।

''सुनो अगर सोसाइटी ने 'ना’ कर दिया तो क्या बिल्डर हमारा टोकन मनी लौटाएगा?’’

''उफ्फ... सोने दो ना। आधी रात को चिंता के पहाड़ पर ट्रैकिंग क्यों कर रही हो? सुबह बात करेंगे’’... आफताब खीझते हुए फिर नींद की आगोश में चले गए।

''सुबह...? मुंबई रात की बाहों में जाती है कि बस चंद लम्हों में ऊंची इमारतों के पीछे छुपा सूरज छतों पर अपना आँचल पसार देता है। बेघर लोगों के लिए रात और दिन सब बराबर है। पर हां, रात हमारे लिए बड़ी डरावनी होती। दरवाजे पर हुई हवा की दस्तक या खिड़की से बजी हवा की सीटी की आवाज से हम चौंक कर बैठ जाते, रात में कभी बेल बजने पर आफताब किचन में रखा रॉड हाथ में लेकर दरवाजे से सटकर आहट लेते, मैं आफताब की बांह कसकर पकड़ लेती, झिरी से झांक कर देखते, कभी वॉचमैन होता तो कभी पड़ोसी।

अगली शाम मेरे मोबाइल पर 'ब्रोकर मीरा रोड कॉलिंग’ रिंगटोन बजी, मैंने दौड़कर मोबाइल उठाया ''हैलो... हां कर दिया ना बिल्डर ने? हम जल्द ही ब्लैक मनी का इंतजाम कर लेंगे’’ - मैं एक सांस में कह गई।

''मेरे पास बिल्डर का वापस किया हुआ आपका टोकन-मनी रखा है, आप आकर ले जाओ’’ चालाक ब्रोकर की आवाज में उस वक्त कोई धूर्तता नहीं थी, बल्कि घर न दिला पाने की विवशता थी। आखिर उसे भी तो ब्रोकरेज की मोटी रकम मिलनी थी। हमारी मोहब्बत का सेमल की रूई की तरह नरम मुलायम आशियाना बनने से पहले ही ढह गया, पर हम नहीं टूटे, उस ज़माने में हमारी जंग जारी रही जहाँ खून के रंगों में ही भेद किया जाता है।

''रफीक भाई! हमें हिंदू इलाके में घर चाहिए’’ - आफताब के कहे इस वाक्य पर ब्रोकर रफीक का चेहरा हैरत से भर गया।

''इस माहौल में आप हिंदू इलाके में रहना चाहते हैं?’’

''मेरा मतलब है साफ सुथरा इलाका... और हां मस्जिद से जरा दूर रहे तो बेहतर’’-

मेरे चेहरे पर चिंता की लकीरें और बेहाली खामोशी से कुछ कह रही थीं, मौके का फायदा उठाते हुए रफीक भाई आत्मीय होकर बोले- ''तसल्ली रखिए आप, हम आपको बेहतरीन घर दिलाएंगे, गोया आपके नाम की अड़चन आएगी। आपने इमाम से निकाह पढ़ा है ना...? क्योंकि हमारे यहां बगैर निकाह के शादी को हराम मानते हैं। नाम बदलकर क्या रखा था...? उसी नाम से आप आफताब भाई की नॉमिनी बन जाइए।’’

''दुनिया में क्या कोई ऐसा व्यक्ति नहीं, जो मज़हब के कोठार में कैद न हो...’’? मुझे मज़हब के इतने सारे स्पीड-ब्रेकर से घुटन-सी होने लगी थी, गले में पहने ताबीज़ और श्री-यंत्र निकाल कर मज़हब के खांचे से खुद को आजाद कर लेने का जी चाहा था। मम्मी की बात ने यहां भी डंक मारा- ''इस बेमेल विवाह से हमेशा सवालों के घेरे में रहोगी, पग-पग पर तुम्हे अहसास कराया जाएगा, तुम एक मुसलमान की बीवी हो’’।

''बुरा ना माने तो एक बात कहूं आपा...’’?

ब्रोकर रफीक भाई की आवाज़ ने मुझे यादों के बयाबां से बाहर निकाला था।

- ''निकाह के बाद बेगम अपने शौहर की हो जाती है। उसकी मर्जी और मजहब के मुताबिक वह चलती है।’’

''...................’’

''आप यह टिकली-विकली क्यों लगाती हैं? हमारे मजहब में यह कुफ्र है।’’

''रफीक भाई! मेरी तमाम हिंदू फ्रेंड्स टिकली नहीं लगातीं और तमाम मुस्लिम सहेलिया बुर्का नहीं पहनतीं, वह मेरे साथ मंदिर जाती हैं... आप घर के बारे में बात कीजिए ना।’’

''खुदा कसम आपा! अपनी सोसाइटी में आपको शानदार, नायाब घर दिलवा दूंगा, वहां न मजहब का िकला होगा, न सवालों की बौछार...ना ही कोई आपको तंग करेगा बस... आप अपना नाम शुभांगी से शगुफ्ता, शायना, शमा वगैरह रख लीजिये’’

आफताब से इसी ब्रोकर ने पिछली बार कहा था - दूसरे मजहब में शादी करने से जन्नत का दरवाजा बंद हो जाता है। मैं अपना नाम बदल लूं तो स्वर्ग का किवाड़ मेरे लिए बंद नहीं होगा...? तनाव के इन पलों में भी मैं मुस्कुरा पड़ी थी,रफीक भाई ने उस वक्त इस्लाम कुबूल करने के तमाम फायदे बताये, लेकिन अपनी बात का हम पर कोई असर ना होता देख, उन्होंने हमें कला नगर के पॉश इलाके में मिस्टर राणे से मिलवाया, जिनकी बिल्डिंग में मिली जुली कम्युनिटी थी। हमारे घर का सपना वहां आखिरकार मुकम्मल हुआ।

सदियों से बोये जा रहे जाति-धर्म के बबूल का वहां की सोसाइटी वालों ने बड़ी आसानी से सफाया कर दिया,आफताब और हम सोसाइटी के मेंबर बन गए, कुछ दिन तक हम उनके लिए अजूबा बने रहे पर फिर महिलाओं की किटी पार्टी मेरे बगैर अधूरी रहने लगी। ''तूम भी नमाज पढ़ती हो? कुरान में होता क्या है? क्या रामायण महाभारत अैर भगवत्-गीता की तरह ही पाक होता है कुरान? ईद मुहर्रम तुम कैसे मनाती हो? तुम वेजिटेरियन हो’’? ...इस तरह के तमाम सवालों से पड़ोसिनें हमारी जिंदगी में कोई न कोई मसाला ढूंढती रहतीं। हालांकि हम स्वीकार कर लिए जाने के बावजूद अस्वीकार ही रहे। हमारे रहन-सहन हमारे सौहार्द से वे प्रभावित होकर हमें एक सामान्य इंसान की तरह ग्रहण करते, लेकिन उनके मन में बंधी धर्म की ज़ंजीर उन्हें कस के जकड़े रहती, फिर भी मह$िफल जमाने वाली औरतों ने अपने मन से जाति-धर्म के जाले काफी हद तक साफ किए और उनकी शिकायत भरी निगाहों में थोड़ी आत्मीयता घुल गई। हम होली की गुझिया, ईद की सिवइयां साथ-साथ खाने लगे, इसके बावजूद एक अस्वीकार्य मुसलमान की बीवी को स्वीकार कर भी लिया जाए तो भी डर का कोहराम भीतर मचा ही रहता है।

उस रोज सर्दी की गुनगुनी नर्म धूप काले धुआंधार बादलों में तब्दील हो गई थी, जब कानपुर की ह्रदय विदारक घटनाओं से अखबार के पन्ने अटे पड़े थे और मैंने रात भर पलकें तक नहीं झपकाई थीं, आंखें मूंदते ही जो देखा नहीं वो दिखाई देने लगता था...।

एक गर्भवती स्त्री दया और करुणा की भीख मांग रही है। सब वहशी बन गये हैं। फिरकापरस्ती के जुनून में वे... स्त्री के पति को निर्ममता से पीट रहे हैं, वह अधमरा हुआ जा रहा है, उसके बदन से खून का फव्वारा बह रहा है और जैसे उस गर्भवती स्त्री के शरीर का सारा खून सूखा जा रहा हो...। अपने पति की पीड़ा को महसूसती वह बेहोश हो गई,उसका बच्चा उसके गर्भ में ही अपने पिता की चोट से सहम जाता है, छटपटा कर चीत्कार उठता है और गर्भ में ही दम तोड़ देता है। पति की मर्मान्तक पीड़ा, तड़प, उसकी छटपटाहट को अपनी सांसों में महसूस करती... अपने अजन्मे शिशु को खोने की विकल पीड़ा से कराहती, रोती, सिसकती वह स्त्री 'मुझमें’ तब्दील हो गई और अधमरा होता उसका पति आफताब की काया बन गई हो...।

मेरे भीतर से जोरदार चीख निकली, लेकिन घुटकर कलेजे के भीतर ही दब गई। मैं पसीने-पसीने थी। आफताब ने मेरे बालों में उंगलियों से कंघी फिराई, मुझे पानी पिलाया। मैं क्सकर उसके सीने से चिपट गई।

''वे...वे.. कहीं यहां तो नहीं आ जाएंगे? उन्हें कहीं तुम्हारा नाम न पता चल जाए...’’

''...शुभांगी... कुछ नहीं होगा। यह घटना कानपुर के गांव में घटित हुई है। बेफिक्र रहो, यहां कुछ नहीं होगा’’।

''क्यों बहरामपाड़ा में...? भिवंडी और ठाणे में, जो आग दहकी वह...?’’ मैंने सुबकते हुए कहा था। कानपुर जैसे तमाम इलाकों की आग महानगर में भी धूं धूं करने लगी थी। उस रात पच्चीस या तीस लोगों का हुजूम ऊंची आवाज में नारे लगाते हुए सड़क पार कर रहा था। आफताब वॉल-साइज़ विंडो का पर्दा जरा-सा सरका कर सांस रोके उन्हें देख रहे थे। मैंने पहली बार आफताब को आसमान की ओर उंगली उठाकर कुछ कहते देखा था, रसोई में मर्तबान में शीर-खुरमा रखकर पहली बार फातिहा पढ़ते देखा। उन्होंने अमन-चैन के लिए फातिहा पढ़ी होती। मैंने मन-ही-मन दुर्गा माता से निवेदन किया - ''हे देवी माता, अल्लाह के रसूल से रहकर आफताब की दुआ जरूर कुबूल करवा देना’’... पर खुशामद-पसंद अल्लाह और भगवान भी उन्हीं की सुनते हैं, जो उनकी नियमित रूप से इबादत और प्रार्थना करते हों। केसरिया पोशाक वालों का हुजूम कई दिनों तक अपनी एकता और भाईचारे के डंके पीटता रहा, कई दिन तक वे ऊंची आवाज में कुछ बोलते हुए हमारे घरों के सामने से गुजरते, धीरे-धीरे उनकी आवाजें मद्धम पड़ जातीं, पर मेरे कानों में वो सब सांय-सांय बजता रहता, उनके शोर में बस इतनी ही समझ में आता- ''गौ मांस का हम बदला लेंगे, इस इलाके में सिर्फ हमारे घर होंगे, सारे बूचडख़ाने जला दो, यह हमारा देश है यहां सिर्फ हम रहेंगे’’।

उन्हीं दिनों एक रात मैं घर लौट रही थी, ऑटो रुका, भारी जाम के बीच सामने उनका काफिला झंडे लहराता हुआ चला आ रहा था... उफ्फ। वे लाठियों से वार करके दुकानें बंद करवा रहे थे, उनके खौफ से लोगबाग तितर-बितर होकर घरों में और दुकानों के भीतर पनाह ले रहे थे, मेरे माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आई, झुलसती गर्मी में भी हाथ बर्फ हो गए, ऐसा लगने लगा कि वह सारे लोग मुझे पहचानते हैं, आफताब को जानते हैं। बस अभी वे आएंगे, मेरे बैग की तलाशी लेंगे, मेरे पति का नाम पूछेंगे, और फिर... उफ... मैंने भगवान, खुदा, जीजस-क्राईस्ट सबको पुकार लगायी... अगल-बगल देखा तो इक्का-दुक्का ही वाहन थे, लोग बहुत कम थे, मेरी धड़कन राजधानी एक्सप्रेस के इंजन की तरह शोर कर रही थी। अपना फोन मैंने झटपट म्यूट कर पर्स में छुपा लिया। कहीं एन वक्त पर 'आफताब कॉलिंग’ न दिख जाए उन्हें... माथे पर पसीना पोंछने के लिए हाथ फिराया तो याद आया आज ही वेस्टर्न ड्रेस पहना है,आज ही बिंदी नहीं लगाई जो आज भी अपने देश की संस्कृति का विशेष प्रतीक है। फटाफट अपने पर्स से एक बिंदी का पत्ता निकाला और जल्दी से अपने माथे पर बड़ी-सी बिंदी चिपका ली, लिपस्टिक से अपनी मांग पर सिंदूर की रेखा खींच ली, यह मैंने बड़ी सतर्कता से किया कि कहीं वह ऐसा करते मुझे देख ना लें और उन्हें संदेह ना हो जाए कि मैं एक मुसलमान की पत्नी हूं। पिछले दंगों में ऐसा ही तो हुआ था, अपने बचाव के लिए मुस्लिम महिलाएं भी माथे पर टिकली लगाकर घर से बाहर निकलती थीं लेकिन पुरुषों के पैंट...। छी छी... यह कैसी बातें मैं याद कर रही हूं, उन्हें क्या मैं कौन हूं और मेरा पति कौन है... उस दंगे के बाद बहुत समय तक मुस्लिम इलाके से गुजरते हुए हिन्दू औरतें अपने बचाव के लिए बुर्का पहन कर जातीं... धीरे धीरे उनका काफिला शोर करता हुआ, नारे लगाता हुआ आगे निकल गया और घर पहुंचकर मैंने आफताब को इस रोज़ घर से बाहर निकलने नहीं दिया था।

बांद्रा और कला नगर के बीच में ही बहराम पाड़ा पड़ता था, वहां से गुजरते हुए मन में दहशत होती... मोटर पार्ट की दुकानें... ऑटो के गैराज... बेकरी, सैलून, चाय और पान की टपरियां, उन दुकानों में तैनात लम्बी दाढ़ी वाले मौलानानुमा दुकानदार जिन्हें देखकर ही मन खौफज़दा हो जाता... उन गलियों में तेज़ आवाज़ में बजती हुई कव्वालियां... गलीनुमा तंग सड़क और दुकानों के बीच से गुज़रते हुए अकसर ही वो हादसा याद आ जाता है, जो शालू के पति के साथ हुआ था। बताते हुए उसके आंसू ही नहीं थमते थे, उसका पति टाटा कम्पनी में वसूली का काम करता था, बार बार पैसे मांगने पर भी दाढ़ी वाले व्यक्तियों का गिरोह गाड़ी की रकम वापस नहीं कर रहा था। एक दिन आपस में कुछ कहा-सुनी हुई और उन्होंने मिल कर शालू के पति के पैरों में, सर में रॉड फंसा कर मारा, अधमरा कर उसे झाडिय़ों में फेंक आये थे, कोई फरिश्ता उधर से गुज़र रहा था, उसने कराहने की आवाज़ सुनी... फौरन अस्पताल पहुँचाया और उसकी जान बचाई...। दुकानों में होती खटर-पटर से, छेनी काटने की आवाज़ मात्र से लगता कि वही रॉड बस मेरे सर पर अभी गिर जाएगी। हमारे घरों के आसपास भी दहशत का साया हर व$क्त मंडराता रहता। सुबह और शाम आती हुई अज़ान की आवाज़ सुकून की बजाय खौफ पैदा करती...।

दंगे के तीसरे दिन कंपनी के काम से मुझे बाहर जाना पड़ा। मैं आफताब को भी अपने साथ ले गई। चंद रोज़ बाद जब लौटे, तो कॉफी हद तक शहर में शांति थी। जगह-जगह बूचडख़ानों के स्थान पर चमन बन गए थे, सफाई अभियान जोरों पर था। देख कर दिल खुश हुआ। मीट की एक भी दुकान कहीं नजर नहीं आ रही थी। बेचारे जीव-जंतु भी उन्हें दुआएं दे रहे होंगे। अपने मन में चमन की इमेज बनाए हम घर पहुंचे। अरे...! यह क्या...? आंखों के आगे अँधेरा-सा छा गया। दरवाजे पर, मुस्कुराने वाले फूल रौंदे जाने के बाद तड़प रहे थे, अधजला किवाड़ हमसे गले मिलकर रोने को आतुर था। लोहे की मजबूत ग्रिल के कारण खिड़की के पर्दे पूरे जलने से बच गए थे और उन पर्दों की जगह जगह ढूहे से बन गए थे। जैसे बच्चे बनाते है- रेत के घरौंदे। पर उनमें निर्माण होता है वहां तबाही थी और था उजड़ा हुआ सहरा।

तिनका-तिनका जोड़ा हुआ हमारा नीड़ नष्ट हो चुका था, सांप्रदायिकता की आग में जले घर की नींव बाकी रह गई थी। शायद ईश्वर अल्लाह को इतने प्यार से हाथ मिलाते देख उनके हौसले पस्त हो गए थे। हॉल में बिखरे सामान हमारी गैरमौजूदगी में अपने को सुरक्षित न रख पाने की पीड़ा बयां कर रहे थे। सोफा सेट की चोटिल कुर्सियां औंधी होकर आर्तनाद कर रही थीं। हॉल के बाद का दरवाजा वह तोडऩे में नाकाम रहे या फिर रसोई में रखे मंदिर और जा-नमाज़ की जुगलबंदी ने उनके भीतर आग पर पानी डाला हो। शायद प्रेम की ताकत ने नफरत की आग को ठंडा किया हो। खुद से गुफ्तगू करते हुए मैं अलगनी पर टंगे कपड़े एक-एक कर उतारती हूं और बालकनी में सिर्फ रंग-बिरंगे पिन सजे रह जाते हैं। यह आने वाले अगले परिवार के काम आएगी। रंग-बिरंगे पिन हमारी विदाई से उदास हो गए हैं।

अब यादों के बड़े काफिले से मैं अपनी दामन छुड़ाना चाहती हूं पर कहां...! उदासी के बादल में मेरी आंखों और चेहरे को भिगो डाला है। धुंधलाई आंखों को झटपट पोंछती हूँ, कहीं यहां से लौट जाने का फैसला बदल कर आफताब को कमजोर न कर बैठूं, अब यहां रहने का ना तो हौसला बचा है ना ही मन... अब बचा ही क्या है यहाँ... समाज के ठेकेदारों को धता बताते हुए, दिलों की दरारों को जोड़कर तिनका तिनका आशियाना बनाया था, वह भी तार-तार नष्ट हो गया फिर इस शहर से दूर जाने का अफसोस कैसा...।

 

मूवर्स एंड पैकर्स के कर्मचारी जो टी-ब्रेक पर गए थे वापस आकर तैनात हो गए हैं, मैनेजर ने सामान की गिनती कर कई पन्नों का दस्तावेज मुझे थमाया ठीक घर के कॉन्ट्रैक्ट की तरह। जैसे यही हो हमारा आखिरी कॉन्ट्रैक्ट... इन कर्मचारियों ने बड़ी ही मुस्तैदी और फुर्ती से ट्रक पर सामान लोड किया। आफताब का चेहरा ज्यादा ही मायूस है। किसी भी शहर को छोड़ते हुए हम जैसे खुद से जुदा होते हैं। शहर के साथ-साथ हम जिंदगी के तमाम निजी लम्हों से,तमाम यादों से भी जुदा होते हैं।

''चलो आज इस शहर के महासागर को आखिरी बार सलाम कर लें...’’ आफताब अपनी पीड़ा और लाचारी को छुपाते हुए बोले।

''हां समंदर के किनारे जगर मगर विक्टोरिया में बैठकर आइसक्रीम खाएंगे’’.... मैंने अपनी खिलखिलाहट आफताब पर बिखेर दी।

''कल से हमारी नई जिंदगी की शुरुआत होती, लो पहले आज की सुबह की आखिरी ग्रीन टी तो पी लो’’ ... कहते हुए अखबार हाथों में लेकर मैं पलटने लगी।

''अरे... आफताब हम कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं, हर शहर में आग का दरिया है’’ मेरे सांसों की रफ्तार बढ़ गई... कान में सायरन-सा बजने लगा।

''सुना तुमने, बेंगलुरु में कल एक बड़ा हादसा हुआ, मुस्लिम लड़की ने हिंदू लड़के से शादी की, दोनों कई महीनों तक गुमनाम रहे। अब उस लड़की का पति गायब हो गया है। लोग अटकलें लगा रहे हैं लड़की का भाई पांच वक्त का नमाज़ी कट्टर मुसलमान है। शायद उसने उस लड़के को जान से... उफ्फ... खबरें गर्म है कि इसमें कोई बड़ी साजिश है।’’

मेरी आंखों के सामने कानपुर के कई दृश्य सजीव हो उठे, पूरी दुनिया कानपुर हो गई। और खौफनाक सैलाब में तब्दील हो गई। आंखों के आगे 'तिलकधारी’, रितेश भाई शाह, ब्रोकर, हुजूम वाले वे लोग झिलमिलाने लगे। तीन तलाक पर औरतों को फतवा जारी करने वाले मुफ्ती और इमाम की शक्लें चस्पां हो गईं... जिन्होंने उस प्रेमी जोड़े के लिए हदीस के लॉ के कुछ पन्ने बदल दिए थे। इस बात की कल्पना से मेरे साँसों की लय में उदास वायलिन बजने लगा... जैसे त्रिशूल और काबा दोनों धरती से उठकर हवा में तैरते हुए आपस में टकरा रहे हों... इन्हें बचाने के लिए ना कोई सुदर्शन चक्र बचा है, ना ही मक्का-मदीना... धरती की सारी नदियों में लाल रंग घुल गया है, जो तबाह कर देगा... और वो लाल पानी का सैलाब मेरी आंखों से बहने लगा है... फिर चारों ओर घोर अंधकार... ठीक उसी व$क्त आफताब की आवाज़ में रोशनी की एक लकीर चमकी... ''डरो मत शुभांगी, अभी बचा है समंदर जिसका पानी खूनी लाल नहीं हुआ है.... उसमें हम घोलेंगे प्यार का गुलाबी रंग...’’

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2019

नई दिल्ली एक्सप्रेस : ज्ञानप्रकाश विवेक

इन्तज़ार करना भी एक कला है। कुछ लोग ऐसे इत्मीनान से इंतज़ार करते हैं जैसे इंतज़ार करना ज़िन्दगी की नज़्म हो और वो उसे धीरे धीरे पढ़ रहे हों।

ज़रा ग़ौर से देखें तो सारी कायनात सफ़र में दिखाई देती है। पृथ्वी, हवाएँ, दरख़्तों से टूटते पत्ते और दरियाओं का पानी सफ़र में। कश्तियाँ सफ़र में और उड़ती हुई रेत भी सफ़र में। सफ़र में कोई शानदार मोतबर शख़्स हमसफ़र बन जाए तो यात्रा बेमिसाल हो जाती है। शायद इसीलिए जब हवाएँ अकेली होती हैं तो वो दरख़्तों से टूटे पत्तों की उंगली पकड़ लेती हैं।

माँ हमारी ऐसी पाठशाला होती है जिसमें हम अख़लाक़, अमन और मोहब्बत करने के सबक सीखते हैं।

हम जब भी कहीं से उठकर चलते हैं, मुड़कर देखते हैं कि कहीं कुछ रह तो नहीं गया। सामान नहीं रहता। सामान उठा लेते हैं हम लेकिन अपने आप को पूरी तरह नहीं उठा पाते। हम जहाँ से भी उठकर आते हैं, अपने आप को थोड़ा सा छोड़कर चले आते हैं। और एक दिन... अपने आप को पूरी तरह रखकर चले जाते हैं।

बेघर परिन्दे उन इंसानों से ज़्यादा ख़ुश नज़र आते हैं जिनके पास अपने मुक़म्मल घर होते हैं।

प्लेटफॉर्म टिकट का ख़्याल है बड़ा ख़ूबसूरत! जिसे कहीं नहीं जाना, उसकी जेब में भी टिकट। प्लेटफार्म टिकट।

जहाँ मुहब्बत होती है वहाँ अहंकार नहीं होता। एक जेब में अहंकार और दूसरी जेब में मुहब्बत रखकर चलना- यह पाखंड नहीं चलता।

यह समय एस.एम.एस समय है। मुगल पीरियड, मौर्य पीरियड और अब एस.एम.एस पीरियड। एस एम एस भेजता हुआ शख़्स मॉडर्न नज़र आता है। चिट्ठी लिखता हुआ बंदा पौराणिक काल का । जो लोग ख़त लिखने की कला को अल्फ़ाज़ का जश्न मानते थे, वो लोग अपने वक़्तों के साथ और अपने ज़र्द ख़तूत के साथ महाप्रस्थान कर गए।

सारे प्लेटफ़ार्म टूट जाएँ पर मानवता का प्लेटफ़ार्म तो बचा ही रहता है।
तभी तो तमाम हिंसाओं और हजारों युद्धों के बावजूद  सभ्यता बची हुई है और लोग भी। संवेदना कभी ख़त्म नहीं होगी क्योंकि मनुष्य ख़त्म नहीं होंगे।

You need power only when you want to do some harmful, otherwise, love is enough to get everything in...

Charlie Chaplin

भगवान मँहगी घड़ी सबको दें किन्तु मुश्किल घड़ी किसी को न दें।

ज़िंदगी में हम रास्ता बनाने और रास्ता देने का सोचें, रास्ता छीनने का नहीं।

कई बार सादगी ज्ञान पर भारी पड़ जाती है क्योंकि ज्ञान के पसेमंज़र ही अहंकार भी खड़ा होता है।

मुझे तो दुनिया की सबसे अभिशप्त कोई चीज़ अगर लगती है तो वो स्टेशन का आउटर सिग्नल है। तमाम उम्र अकेला, बेहद अकेला। साधारण लोग भी इसी की तरह होते हैं। ज़िन्दगी का स्टेशन उन्हें आउटर सिग्नल समझता है। समाज अब ताक़तवर लोगों के पास चला गया है। उनके पॉवर स्ट्रक्चर में हमारी औक़ात किसी विस्थापित आउटर सिग्नल जैसी ही है।

हम संसार में रहें, संसार हममें न रहे।

हमारा सबसे ज़्यादा मख़ौल वक़्त उड़ाता है। वो हमें किसी शैतान बच्चे की तरह पढ़कर चला जाता है और हम ज़िन्दगी के बस्ते में फटे हुए कायदे, उधड़ी हुई जिल्द वाली किताबों की तरह पड़े रह जाते हैं।

बंधन और गुलामी के हजारों नाम हैं। आजादी का कोई नाम नहीं। स्वतंत्रता का एक ही प्रकार होता है जैसे सच्चाई का। मुखौटे तो झूठ के होते हैं।
हमारे नए समय में विकृति भी संस्कृति का चेहरा लगाकर आ खड़ी होती है।
बाजार जब हमारे लिए चिन्तित नज़र आये तो समझ लीजिए कि वो कोई नया उत्पाद लेकर आया है।

अकेलापन और एकान्त दो अवस्थाएँ होती हैं। अकेलेपन में हमें किसी दूसरे की ज़रूरत पड़ती है, एकांत में नहीं। चुप रहना हमें शब्दों के अपव्यय से बचाता है। चुप रहते हुए हम मन की प्रार्थनाओं के क़रीब होते हैं।

परिन्दे जब उड़ते हैं तो पर फड़फड़ाते हैं। लेकिन बाज़ बेआवाज़ उड़ता है। उसका अकेलापन उसकी शक्ति बन जाता है।

हेकड़ी और विनम्रता में इतना फ़र्क़ है कि विनम्रता ज़िन्दगी का एक पाठ है और हेकड़ी की औक़ात मूँगफली के छिलके जितनी।

मैं बहुत सारी चीजों से प्रेम करता हूँ। धूप, हवा, छाँव, सितारे, आकाश, बारिश... अपनी फटी हुई छतरी और घिसी हुई पतलूनों से भी प्रेम करता हूँ। उन्होंने बहुत अरसे तक मेरा साथ निभाया है। पेन का ख़ाली रिफिल फेंकते हुए उसे अलविदा कहता हूँ। पुराने कैलेंडरों को दीवार से हटाते वक़्त एहसास होता है कि इस काग़ज़ के कैलेंडर में मेरा जीता जागता वक़्त भी था और मैं उन्हें किताबों के शेल्फ़ में सजा लेता हूँ।

हवा, धूप, आसमान, पेड़, पहाड़, नदियाँ और समन्दर हमारे दोस्त थे। हमने इनसे दोस्ती नहीं की, इनका इस्तेमाल किया। इस्तेमाल होने वाला कभी छोटा नहीं होता। इस्तेमाल करने वाले ज़रूर मामूली होकर रह जाते हैं। किसी को कुछ देना.. अपने आप में शानदार अभिव्यक्ति है। सूरज, चाँद, बादल, आकाश, धूप, समन्दर, हवा, वृक्ष, पृथ्वी ये सब हमें कुछ न कुछ देते हैं और तभी ये बड़े हैं क्योंकि देने वाला कभी छोटा नहीं होता।

लोगों की चालाकियों, फ़रेब, भ्रष्टाचार, यौनाचार, सबसे भगवान वैसे भी दुखी रहते हैं। कितना शोर है इस पृथ्वी पर। भक्तगण अब तक नहीं समझ पाए कि ईश्वर अमन पसन्द हैं। ये इतना शोर मचाते हैं कि भगवान जी के कान फट जाएँ।

हम बिछड़ते वक़्त जब हाथ मिला रहे होते हैं,ऐन उस वक़्त दिल अपने किसी कोने में उदासी के लिए जगह बना रहा होता है।

जब हम बिछड़ते हैं, बाहर का मौसम कमोवेश वही रहता है लेकिन दिल का मौसम बदल जाता है।

बहुत बहुत शुक्रिया जनाब ज्ञानप्रकाश विवेक साहब🙏🙏 दिल्ली प्रवास में कई दिनों तक आप का सुखद और अविस्मरणीय साथ रहा और पिछले पंद्रह दिन आपके लफ़्ज़ों की रौशन दुनिया मेरे साथ सफर करती रही। आपकी किताब के किरदारों, शब्दों और संवेदनाओं की इस दुनिया में जीते हुए ग़ालिब का शेर बारहा याद आता रहा--

बाज़ीचए अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शबो रोज़ तमाशा मेरे आगे

आपकी इस बात पर तो सौ सौ सलाम!! कि--
"ज़र्रों में आफ़ताब की तलाश ज़िन्दगी का दूसरा नाम है...."

●  Gyan Parkash Vivek
◆ नई दिल्ली एक्सप्रेस

मंगलवार, 29 जनवरी 2019

एक औरत की नोटबुक

क्या कहानियाँ सिर्फ़ दोपहर की फ़ुरसत में महिलाओं को अच्छी नींद सुलाने के लिए लिखी जानी चाहिए? क्या हर कहानी का पहला उद्देश्य मात्र मनोरंजन होना चाहिए? नहीं। बेशक कहानियों से कोई बड़ा सामाजिक आंदोलन खड़ा नही किया जा सकता पर जीवन को बेहतर बनाने में, सामाजिक कुरीतियों को अपदस्थ करने में, व्यक्ति को उसके इर्द गिर्द फैली विसंगतियों के प्रति जागरूक और चौकस करने में हर प्रकार के रचना-कर्म की एक निश्चित सकारात्मक भूमिका होती है।
मैं दुपहर की फ़ुरसत में नींद दिलाने के लिए कहानियाँ नही लिखती। कहानी पढ़कर आती हुई नींद भाग जाए और पढ़ने वाले के दिमाग में थोड़ा सा ख़लल पैदा करे, कुछ सोचने पर मज़बूर करे, घर के पिछवाड़े फेंक दी गयी या जानबूझकर आँखों से ओझल कर दी गई कुछ अनचाही स्थितियों को सामने ला खड़ा करे - तभी कहानी लिखने का मक़सद पूरा होता दिखाई देता है।

सुधा अरोड़ा
( एक औरत की नोटबुक )

शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

अशोक भौमिक : सुनीता जैन को स्मरण करते हुए

सुनीता जैन 

19 दिसम्बर 2002 -11 दिसम्बर 2017 

न जाने क्या सोच कर इन दो तारीखों को पिछले साल अपनी डायरी के एक पन्ने पर एक साथ लिखा था। दोनों तारीखों के बीच पंद्रह सालों का फैसला था फिर भी दोनों में एक रिश्ता था और यह रिश्ता दोनों ही दिसम्बर की तारीखें थीं, महज इस लिए नहीं थीं। कवि टी एस इलियट की एक प्रसिद्द कविता 'वेस्टलैंड' की एक पंक्ति मुझे अपने कालेज के दिनों से याद है जहाँ कवि ने अप्रैल को एक 'क्रूरतम' महीना कहा है। शायद टी एस इलियट ने उस मधुर वसंत को क्रूरतम कहा है जो हमारे स्मृतियों में एक दर्द के अहसास के साथ बार बार लौटती है। 

मेरे लिए दिसम्बर का महीना कुछ ऐसा ही है। 

******

मुझे कलकत्ता रहते काफी लम्बा समय बीत चुका था और एक ऊब सी होने लगी थे, उस शहर से। मुझे लगने लगा था कि इस शहर में रह कर चित्र बनाना मेरे लिए संभव नहीं होगा और मैं अगर अपनी पूरी जिंदगी भी यहाँ बिता दूँ तब भी मैं एक 'आउटसाइडर' ही बना रहूँगा। तभी डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय, कलकत्ता के भारतीय भाषा परिषद् छोड़ कर भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली आ गए थे और इन्होने जब मुझे दिल्ली आने का न्योता दिया तो मैंने , बिना ज्यादा कुछ सोचे दिल्ली आने का निर्णय ले लिया। दिल्ली आये बस कुछ ही दिन हुए थे,  श्रोत्रिय जी अपने कुछ घनिष्टों को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में रात के भोजन के लिए आमंत्रित किया था।  बाद में पता चला की उस दिन उनका जन्मदिन था ! 

वह 18 दिसम्बर 2002 की एक शाम थी !

******

आई आई सी में उस शाम मेरे लिए सभी अपरिचित थे।आमंत्रितों में सुनीता जी भी थीं इसलिए सुनीताजी से यह मेरी पहली मुलाक़ात थी। मुझे उनसे पहली मुलाकात में ही लगा कि वह कवयित्री ही नहीं हैं बल्कि चित्रकला में उनकी गहरी दिलचस्पी है। मेरे चित्रों से सुनीता जी ,  उस समय प्रकाशित होने वाली कई पुस्तकों के आवरणों के जरिये परिचित थीं और वह मेरी स्टूडियो आना चाहती थी । तब बस कुछ ही दिन बीते थे , मैंने लाजपत नगर एक किराये के मकान के एक कोने में एक ईज़ल तो लगा लिया था पर काम करना शुरू नहीं किया था । यूँ कहें कि नये शहर और नयी नौकरी के नए किस्म के बोझ तले चित्र बनाने के लिए मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था । मुझे याद है उन्ही दिनों सुप्रसिद्ध नृत्यांगना शोभना नारायण के व्यक्तिगत निमंत्रण पर अशोका होटल के हाल में उनकी एक एकल प्रस्तुति को देखने का मौका मिला। शोभनाजी जिस गीत पर नृत्य प्रस्तुत कर रहीं थीं, उसके बोल में पिहू के  माध्यम से पिया को याद करने का प्रसंग था ( पिहू , पिया की बानी न बोल' ) ! पर उस एकल प्रस्तुति को देखते हुए मैंने बार बार शोभना जी के साथ एक नहीं बल्कि कई कोयलों को उनके इर्द -गिर्द उनके नृत्य करते देखा । कार्यक्रम के ख़त्म होने के बाद मैं बिना वहाँ रुके अपने घर लौट आया था और जब अपने ईज़ल के पास (दिल्ली में पहली बार) बैठा तो नृत्य की मुद्राएँ  थीं ही पर साथ में चिड़ियों  भी था । उस रात मैंने कितने स्केचेस किये थे , यह आज याद नहीं पर इतना जरूर याद है कि मैंने जाड़े की उस रात में , निष्क्रियता के एक लम्बे दौर को नृत्यांगना की घुंघरुओं और कोयल की कूक से तोड़ा था। 

इस घटना के कुछ ही दिनों बाद सुनीता जी अपने वादे के मुताबिक़ मेरे घर आयी थीं और मेरे तमाम चित्रों को बहुत लगन से देखा था। वह कागज़ पर बने चित्रों को अपने हाथों से यूँ पकड़  रहीं थीं कि मानों वे कागज़ पर नहीं बल्कि काँच पर बने थे। उस दिन उन्होंने मुझसे एक पेन्टिंग लिया था। दिल्ली शहर में यह मेरी पहली पेन्टिंग थी जो बिकी थी। सुनीता जी इस पेन्टिंग  लेकर इतनी उत्साहित थीं कि मेरे घर से निकल वह सीधे फ्रैमर के पास गयीं थीं और चित्र को फ्रेम करा कर ही घर लौटी थी। 

मेरे स्टूडियो में बैठे मुझे उस दिन पहली बार लगा था कि, 'अब बस! बहुत हो गयी नौकरी' ।

*******

सुनीता जी के घर पहली बार जब गया था , तो दीवार पर काफी पेन्टिंगें लगी थीं पर एक आध को छोड़ कर वे सभी ऐसे चित्रकारों की थीं जिनके नाम मैंने पहले कभी नहीं सुने थे। सुनीता जी के माध्यम से ही हालाँकि बाद में लगभग सभी से परिचित होने का मौका मिला। वे सभी युवा थे जो 2003  आस पास , अपनी-अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। इनमें कई चित्रकार ऐसे भी थे जिनके चित्र उन्हें पसन्द नहीं थे , कुछ बाज़ार के पीछे भागते हुए अपने चित्रों के साथ समझौता करने लग गये थे। सुनीता जी का चित्रों को देखने का एक ख़ास नज़रिया था जिससे वह कभी भी विचलित नहीं हुई। मुझे लगता था कि सुनीता जी सभी चित्रों में एक कविता खोजती थीं , एक ऐसी कविता जिसे वह अपनी कविता में लिखना चाहतीं थीं। चित्रकला और चित्रकारों के प्रति उनके प्रेम को मैंने शायद सबसे करीब से देखा था । 

*********

 वह शायद 2005 का वक़्त था। मैं और मेरी पत्नी एक शाम ललित कला अकादमी की  कला दीर्घाओं में प्रदर्शित चित्रों को देख रहे थे। एक हॉल में मध्य प्रदेश के कुछ छोटे-छोटे कस्बों से आये पाँच कलाकारों की प्रदर्शनी चल रही थी। सभी चित्रों में चित्रकारों की ईमानदारी तो दिख रही थी पर उनका एक भी काम नहीं बिका था। इस प्रदर्शनी का एक कलाकार, अकेले ही अन्य चार दोस्तों के चित्रों को लेकर इस प्रदर्शनी में उपस्थित था । उसने  बेबाक ढंग  से हमसे कहा, कि प्रदर्शनी के लिए पाँचों चित्रकारों ने पैसे मिला कर हॉल का किराया भरा था पर अगर पाँचों कलाकार आते तो उनके दिल्ली आने जाने और रहने खाने का खर्चा इतना ज्यादा हो जाता कि प्रदर्शनी ही संभव न हो पाता , इसीलिये वह अकेले ही दिल्ली आकर इस प्रदर्शनी को कर रहा था। कल प्रदर्शनी का आखरी  दिन था और उस कलाकार के पास वापस  जाने का ट्रैन का किराया तक नहीं था। मैं उसे किराये भर के पैसे ही दे सकता था, लिहाज़ा मैंने उसकी पेशकश की । पर वह खुदगर्ज़ चित्रकार इस महानगर आया था अपने और अपने दोस्तों के चित्र दिखाने और बेचने आया था ,खुद को नहीं। उसने मुझे पूरी विनम्रता के साथ इंकार कर दिया।

मैं खुद इस शहर में नया था और उसे मदद  करने के लिए मेरे पास और कोई उपाय नहीं था। ऐसे असहाय स्थिति में मुझे सुनीता जी की याद आयी। सुनीता जी को एक अतिरिक्त क्षण भी नहीं लगा और वह तुरन्त पूरी बात समझ गयी।  दुसरे दिन , जिस दिन प्रदर्शनी का अंतिम दिन था ; सुनीता जी ठीक ग्यारह बजे ललित कला पहुँची थीं और उस प्रदर्शनी से पाँच चित्र खरीदे थे।  घर में जब वह चित्रकार पेन्टिंगों को पहुँचाने आया था तब अलग से उन्होंने उस चित्रकार को ट्रेन का किराया भी दिया था। उस शाम मैंने सुनीता जी की बैठक की दीवार पर , कस्बों से आये उन पाँच संघर्षशील ख़ुदग़र्ज़ चित्रकारों के चित्रों को टँगे देख कर मुझे सुनीता जी से कहीं ज्यादा ख़ुशी हुई थी। 

इस घटना के बाद जब भी कोई युवा चित्रकार किसी आर्थिक संकट में पड़ कर मेरे पास आता तो मैं उसे सुनीता जी के पास ले जाता था। सुनीता जी लम्बे समय तक विदेशों में रहीं थीं लिहाज़ा उनके बहुत सारे दोस्त और परिचित उनके घर आतेजाते थे और चित्र संग्रह करते थे।  इन्हीं संग्राहकों के माध्यम से इन युवा चित्रकारों के अनेक चित्र आज विदेशों में हैं। 

ऐसे न जाने कितने किस्से हैं , कितनी घटनाएँ हैं जहाँ मैंने सुनीता जी को महज़ एक कलाप्रेमी ही नहीं बल्कि उन युवा चित्रकारों के लिए एक परम स्नेहपूर्ण,उदार मदददाता के रूप में भी देखा है। 

********

तब मेरा स्टूडियो साउथ एक्स में था। एक दिन मेरा एक दोस्त अपने साथ एक युवा प्रतिभाशाली चित्रकार को मुझसे मिलाने ले आया।  पता चला कि जे एन यु में छात्रसंघ चुनाव के दौरान प्रचार पोस्टर बनाने के लिए , वह बंगाल के किसी छोटे से जिले से दिल्ली आया था। चुनाव ख़त्म हो चुका था ,अब समस्या थी उसके लिए रहने खाने का इंतज़ाम करने और कोई काम जुटाने की। सुनीता जी विचारधारा के स्तर पर वामपंथ विरोधी थीं, पर  कभी भी किसी बात पर मुझे उनसे संवाद करने में कतई दिक्कत नहीं आयी। इस युवा चित्रकार के बारे में जब मैंने सुनीता जी से कहा तो उन्होंने अपने इलाके के आर डब्ल्यू ए के दफ्तर  बेसमेंट में न केवल उसके रहने का इंतज़ाम ही करवा दिया बल्कि इलाके के बच्चों के लिए चित्रकला शिक्षा का क्लास भी शुरू करा दिया जिससे उसे कुछ पैसे भी मिलने लगे । उसकी समस्या को देखते हुए सुनीता जी ने उसे एक साईकिल खरीद दी। इस चित्रकार का चित्र कभी भी सुनीता जी के रूचि से मेल नहीं खाता था फिर भी उन्होंने उसका एक चित्र केवल  खरीदा ताकि उसे रंग कैनवास खरीदने के लिए पैसे मिल सके । 

एक और चित्रकार था जो अपनी प्रेमिका को साथ लेकर ,अपना घर छोड़ कर दिल्ली में बसने आ गया था ।  दोनों को साथ रहते कई साल गुज़र गये पर अर्थाभाव  के कारण , शादी करने की स्थिति नहीं बन पा रही थी। ऐसे दो कलाकारों की मदद करने के लिए वे कुछ दिनों तक उपाय सोचती रही फिर उन्होंने उन्हें दैनिक भत्ते पर अपनी पेन्टिंगों की कैटलॉगिंग के लिए रख लिया। मुझे उन्होंने कहा था , " मैंने उन्हें दैनिक भत्ते पर इसलिए रखा है ताकि रोज़ उन्हें पैसा मिलता रहे।  वे अपना नौकरी की तलाश भी जारी रख सकेंगे और खाने पीने में उन्हें दिक्कत भी नहीं आएगी। " 

इसके बाद जल्द ही इन दोनों चित्रकारों का कठिन समय बीत गया और उन दोनों ने न केवल शादी ही की बल्कि आज वे दिल्ली में अपना घर बसा लिया है।  

सुनीता जी अत्यंत सुलझी हुई महिला थी, जिन्हें दुनियादारी की गहरी समझ थी। एक कवयित्री के रूप में उनकी साधना ,उनके सपने और उनकी संगत के साथ उनके चित्रकला-प्रेम का कोई रिश्ता मुझे कभी नहीं दिखा । उन्होंने चित्रकला के प्रति अपने प्रेम को कभी सार्वजनिक नहीं किया इसलिए उनके घनिष्ठ साहित्यकार मित्रों के लिए सुनीता जी के व्यक्तित्त्व का यह चेहरा , अपरिचित ही है । 

सुनीता जी ने छोटे छोटे इलाकों से दिल्ली में आये हुए चित्रकारों की मदद की । एक चित्रकार को मैं जानता हूँ जिसकी उन्होंने पिछले दस वर्षों से ज्यादा समय तक मदद की। अपने मृत्यु के पहले तक उस चित्रकार को हर महीने न केवल पैसे ही देती रहीं ,रंग-काग़ज़  भी मुहैय्या कराती रहीं। छोटे छोटे इलाकों से दिल्ली में आये युवा चित्रकारों की असहाय स्थिति से वह प्रायः विचलित हो जाती थीं। उन्होंने जरूरतमंद चित्रकारों के लिए एक स्थाई कोष बनाने की सोची थीं पर कई कारणों से इस योजना को वह अंजाम नहीं दे सकीं ।   

*********

दिल्ली में  रहते हुए मेरे सोलह साल बीत चुके हैं। इस दौरान चित्रकला की दुनिया ने बहुत उतार चढ़ाव देखें हैं, पर इन सब बनते-बिगड़ते दौर में मेरी अपनी चित्रकला पर मे

री आस्था को सुनीता जी ने कभी टूटने नहीं दिया। उन्हें शायद अपने अंत का  पता चल चुका था इसीलिए वह अनंत की यात्रा के लिए खामोश अपने को तैयार करती रहीं और  एक रात बिना बताये ही उस यात्रा पर चल दी। 

वह दिसम्बर की ग्यारह तारीख थी !

पंद्रह सालों पहले इसी महीने उनसे मेरी पहली मुलाकात हुई थी।  उनकी यादें तो साथ रहेंगी ही, पर दिसम्बर ' क्रूरतम' महीना बन कर हर साल आता और जाता रहेगा। 

सिनारिओ : शेखर जोशी

  कहानी सिनारिओ : शेखर जोशी     अपना सफरी थैला , स्लीपिंग बैग और फोटोग्राफी का भरपूर सामान लेकर जब वह गाँव पहुँचा , सूर्यास्त का समय...