रविवार, 5 अगस्त 2018

जिगरी- पी.अशोक कुमार

किसी लेखक की अन्तर्दृष्टि यदि संवेदना और चेतना से परिपूर्ण हो तो एक लघु उपन्यास ( या कोई बड़ी कहानी) भी महाकाव्यात्मक स्वरूप ग्रहण कर सकती है। हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में ऐसी तमाम रचनाएँ मौज़ूद हैं जिन्हें लघु आकार के बावजूद पाठकों का अपार स्नेह और मान्यता मिली और जिनका ज़िक़्र उन लेखकों की प्रतिनिधि रचनाओं के रूप में होता है।

पी.अशोक कुमार का मूल तेलुगू में लिखा गया उपन्यास "जिगरी" अपने लघु कलेवर के बावजूद पाठक के मन पर दीर्घकालिक प्रभाव डालता है। एक भालू और उसके मदारी की इस मार्मिक कथा का परिचय सबसे पहले राजकमल प्रकाशन के समाचार पत्र के द्वारा तब प्राप्त हुआ था जब ये उपन्यास पहली बार पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। लगभग नब्बे पृष्ठों में समाए इस किताब के मूल कथानक के साथ अनेक यादगार प्रसंग जुड़े हुए हैं।
भूमिका में अनुवादक के लिए दो शब्द कहने और समुचित समीक्षा बाद में लिखने की बात कहते हुए नामवर सिंह के दर्शन होते हैं। किसी किताब के फ्लैप या भूमिका में नामवर जी की उपस्थिति आजकल बहुत कम हो चली है। बहुत दिनों बाद इस अनूदित किताब पर उनकी साफ़गोई से कही गयी बातें अच्छी लगीं। लगभग डेढ़ पृष्ठों में कहानी का एक महत्वपूर्ण ख़ाका वे हमारे सामने खींच कर रचना के प्रति तीव्र जिज्ञासा जगा जाते हैं।

फिर हम पहुँचते हैं उपन्यासकार पी अशोक कुमार के महत्वपूर्ण आत्मकथ्य पर जहाँ इस रचना के जन्म और विकास की प्रेरक कहानी समाहित है। अशोक कुमार उन दिनों एल्ला रेड्डीपेट के एक गाँव में अध्यापक थे, जब इस उपन्यास का बीज अंकुरित हुआ। उनके विद्यालय का मैदान बहुत बड़ा था और भालू-बंदर नचाने वाले मदारी, सँपेरे आदि उसी मैदान में पेड़ों के नीचे आकर कई कई दिन ठहरते थे। उन्हीं दिनों एक भालू को साथ लिए एक परिवार आया और जब तक ये उससे बात करने का समय निकालते तब तक वो वहाँ से चला जा चुका था। बहुत दिनों तक इंतज़ार करते रहे कि शायद वो लोग फिर आएँ। अचानक एक दिन रास्ते में उस परिवार का मुखिया भालू के साथ मिल गया और जब इन्होंने रोककर पूछताछ करने की कोशिश की तो वो पैरों पर गिरकर माफ़ी माँगने लगा। वह दरअसल इन्हें सादे ड्रेस में पुलिस वाला समझकर घबरा गया था।  उसे विश्वास दिलाकर वापस लौटे। फिर कुछ और मुलाक़ातें हुईं। उनके बीच कुछ दिन रहकर भालू के साथ उनके सहजीवन, पालतू बनकर मनुष्यों के साथ रहते उस जंतु की स्थिति, वन्य प्राणी संरक्षण कानून और पुलिस कर्मियों की जोर ज़बर्दस्ती के अध्ययन का परिणाम रहा ये उपन्यास जिसे उन्होंने एक सप्ताह में ही लिख डाला।
पूरा होने के बाद यह एक पत्रिका में प्रकाशन हेतु भेजा गया जहाँ से एक महीने में वापस लौट आया। संयोगवश उन्हीं दिनों अमेरिकन तेलुगू असोसिएशन द्वारा एक उपन्यास लेखन प्रतियोगिता आयोजित हुई जिसमें इस उपन्यास को प्रथम पुरस्कार से नवाज़ा गया। इसकी चर्चा सुनकर विख्यात अनुवादक जे एल रेड्डी ने अशोक कुमार से इस उपन्यास के हिन्दी अनुवाद की अनुमति चाही जो सहर्ष स्वीकृत हुई। कुछ महीनों बाद जब साहित्य अकादमी की प्रसिद्ध द्विमासिक पत्रिका " समकालीन भारतीय साहित्य" की लेखकीय प्रति अशोक कुमार के घर पहुँची तब उन्हें मालूम पड़ा कि इसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो गया है। लेखक इस पूरे प्रसंग को बड़े रोचक और प्रभावी ढंग से बयान करते हैं और हिन्दी की असीम क्षमता और इसकी व्यापकता को रेखांकित करते हुए बताते हैं कि पत्रिका में छपे इस हिन्दी अनुवाद की बदौलत यह उपन्यास देश के अधिकांश साहित्य प्रेमियों तक न सिर्फ़ पहुँच सका वरन इसी अनुवाद के आधार पर भारत की अन्य आठ महत्वपूर्ण भाषाओं में भी इसका अनुवाद हुआ। इसके बाद ये तेलुगू में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ और फिर राजकमल प्रकाशन से रेड्डी साहब द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद पुस्तक के रूप में।

इस उपन्यास के केन्द्र में सादुल नामक एक भालू और उसका मालिक इमाम है। इस भालू के खेल पर ही उनके परिवार की आजीविका पिछले कई वर्षों से चलती आ रही थी।
इमाम के घर में उसकी पत्नी बीबम्मा और बीस वर्षीय बेटा चाँद भालू का हमउम्र है। फ़र्क़ ये है कि चाँद युवा है और भालू बूढ़ा हो चला है। थोड़े दिनों बाद ही वन्य प्राणी संरक्षण कानून लागू हो जाता है और पुलिस वाले इन जानवरों को पालने वालों को परेशान करने लगते हैं। ऐसे ही किसी दिन जब इमाम सादुल के साथ किसी और गाँव में था, दरोगा चाँद को थाने में बुलाता है। संयोगवश उसी बिरादरी से सम्बन्ध रखने के कारण वह दरोगा चाँद के साथ बड़ी सहृदयता से पेश आता है और उसे भालू से छुटकारा पा लेने की सलाह देते हुए ये आश्वासन देता है कि वह सरकार द्वारा घोषित उस योजना का लाभ दिलाने का प्रयास भी करेगा जिसके अन्तर्गत उन्हें खेती करने के लिए जमीन मिल जाएगी। ये सुनते ही चाँद की मनःस्थिति एकदम बदल जाती है। जिस सादुल से उसे असीम प्यार था उसी को हटाने पर आमादा हो जाता है। उसकी माँ बीबम्मा भी जमीन के लालच में उसी का पक्ष लेती है। इमाम अकेला पड़ जाता है।
माँ बेटे उससे पीछा छुड़ाने की कोशिशें शुरू कर देते हैं। एक बार इमाम देर रात चाँद के साथ उसे ले जाकर जंगल में छोड़ आता है। बरसों पहले जंगल में रहने की आदत छुड़ाकर जिसे इंसानों के बीच रहने और जीने की तालीम दे दी गयी हो वो कैसे रहता वहाँ? कँटीली झाड़ियों, गाँव के कुत्तों और बाड़ों से जूझता घायल सादुल अगली रात घर वापस लौट आता है।

माँ बेटे की ज़िद और झगड़े से परेशान इमाम बीबम्मा के भाइयों के हाथ सादुल को बेचने के लिए रवाना होता है। बदले हुए माहौल में भालू खरीदने के लिए कोई तैयार नहीं होता। चार दिन बाद वापस लौटने पर पुनः विवाद बढ़ता है ।

फिर एक बार चाँद सादुल को जिंदा गाड़ देने के लिए गड्ढा खोदना शुरू करता है। उसे गड्ढे में न धकेल पाने से गुस्से में पगलाया चाँद डंडा लेकर झपटता है तो उसे बचाने आये इमाम पर डंडे का वार पड़ जाता है। अपने मालिक को चोटिल देखकर सादुल चाँद से भिड़ जाता है। इमाम उसे रोककर चाँद की जान बचाता है । बेटे के प्रेम और जमीन के लोभ में पड़ी बीबम्मा भी बेटे का पक्ष लेकर इमाम से भिड़ जाती है।

उसका रुख़ देखकर इमाम के मन को बरसों पहले की वो स्मृतियाँ घेर लेती हैं जब अपने बेटे चाँद के साथ उसके हमउम्र सादुल को भी अपना दूध पिलाकर पाला था बीबम्मा नें और छोटे से सादुल के बीमार होने पर उसे गोद में उठाकर जाने कहाँ कहाँ भटकते हुए उसके लिये दवा और दुआ माँगी थी।

अन्ततः उन्हें ये समझाकर कि यहाँ मारना ठीक नहीं होगा, तम्बाकू मिली शराब के साथ सादुल को लेकर जंगल चला जाता है। पूरा दिन बीत जाता है, रात हो जाती है किन्तु सन्तान की तरह पाले गए सादुल को इस तरह तड़पते हुए छोड़ने का साहस इमाम नहीं जुटा पाता और तम्बाकू का गोला फेंककर देर रात उसे लेकर घर वापस आ जाता है।

चाँद ने पहले ही इस स्थिति की कल्पना कर ली थी और इस बार एक ऐसी दवा लाकर रखा था जिसे पागल कुत्तों को खिला दिया जाय तो आधे घंटे में उनकी मौत हो जाती है।
इमाम चाँद के हाथ से दवा लेकर कहता है कि " जब मैंने इसे पाला है तो मारूँगा भी मैं ही। तू क्यूँ पाप का हकदार बनता है" और फिर  "पहले ही कौर में जहर कैसे मिलाऊँ? पहले उसे थोड़ा खा लेने दो" कहकर सादुल को आधा दलिया खिला देता है। चाँद बताता है कि "दवा का स्वाद कड़वा नहीं है।  चाहे जितना मिला दो, आसानी से इसे खा जाएगा वो।"
आधे खाने में जहर मिलाने के बाद इमाम कहता है कि वह सादुल को अपनी आँखों के आगे छटपटाकर मरते नहीं देख सकेगा और दूर कहीं उसे ये खाना खिलाकर छोड़ आएगा। चाँद जब फिर भड़कता है तो इस दृश्य को देखने की हिम्मत न जुटा सकने के कारण उसकी माँ भी इमाम की बात का समर्थन करते हुए बेटे से उसे जाने देने को कहती है।
इमाम एक हाथ में सादुल की रस्सी और दूसरे हाथ में दवा मिली दलिया का मटका लेकर जंगल की ओर निकल जाता है।

उपन्यास का आरम्भ---

दिन निकल आया।
दिन डूब गया
दिन गया। रात भी गयी।

और अन्त----

" बात आधे घंटे की थी। लेकिन एक घंटा बीत गया। दो घंटे बीत गए। सवेरा भी हो गया। फिर दिन भी ढल गया। लेकिन इमाम लौटकर नहीं आया।" प्रतीकात्मक रूप से एक जैसा है..

पी अशोक कुमार ने इस अत्यंत संवेदनशील कहानी का निर्वाह जिस आत्मीयता और तरलता से किया है, वह उन्हें एक उच्चकोटि का कथाकार सिद्ध करती है। भालू के हावभाव, उसके क्रोध,डर, मालिक के प्रति अपनत्व और संवेदना का अद्भुत चित्रण इस छोटे से कथानक को अभूतपूर्व बना देता है। हमारे समाज में जीव जन्तुओं और मनुष्य के बीच आत्मीय सम्बन्धों की शाश्वत परंपरा रही है। आख़िर में एक और मानीखेज़ बात लेखक कहते हैं--- " भालू जो एक जंगली जंतु है, अपनी जाति के लक्षणों को भूलकर मनुष्यों के साथ हिल-मिलकर साधु हो गया है । लेकिन साधुत्व के साथ जिसे जीना चाहिए, वह मनुष्य हिंसक हो गया है। मनुष्य के लक्षणों से युक्त जन्तु और जन्तु के लक्षणों से युक्त मनुष्य के बीच का संघर्ष ही
यह लघु उपन्यास है।"

किसी अनूदित कृति की सफलता और उसकी गुणवत्ता का अधिकतम श्रेय उसके अनुवादक को ही जाता है। जे एल रेड्डी साहब की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है क्योंकि उनके हिन्दी अनुवाद के कारण ही यह चमत्कार सम्भव हुआ कि पुस्तकाकार आने से पूर्व ही यह रचना आठ भारतीय भाषाओं में अनूदित हो सकी। "जिगरी" की लोकप्रियता हिन्दी के वैश्विक प्रभाव और उसके सामर्थ्य का जीवन्त उदाहरण है।
राजकमल प्रकाशन समूह को हार्दिक धन्यवाद जिन्होंने इस रचना को पुस्तक का स्वरूप दिया और उनके कारण हम जैसे उन अनगिनत पाठकों तक यह पहुँच सकी जो अब तक इससे अपरिचित थे।
पेपरबैक संस्करण का मूल्य मात्र 95 रुपये है जिसके लिए प्रकाशक पुनः बधाई के पात्र हैं।

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