सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

अन्नदाता- मुकेश दुबे

अन्नदाता (उपन्यास)
पृष्ठ- 96, प्रकाशन वर्ष-2015
लेखक- मुकेश दुबे
प्रकाशक- उत्कर्ष प्रकाशन, 142, शाक्य पुरी, कंकरखेड़ा, मेरठ कैंट 250001(उ.प्र.) फ़ोन: 0121-2632902, 9897713037

मुकेश दुबे जी का ये उपन्यास आकार में लघु ज़रूर है किन्तु अपने कथ्य में बड़ा और बेहद महत्वपूर्ण। देश को आजाद हुए 70 वर्ष बीत गए। बाहरी देशों में अपनी चमकदार छवि प्रस्तुत कर हम बड़े गर्व से घोषित करते हैं कि हम महा शक्ति बन गए हैं जबकि वास्तविकता ये है कि इस देश का अन्नदाता यानी किसान आज भी एक निहायत असुरक्षित और कष्टमय जीवन बिताने के लिए बाध्य है। मुकेश जी कई दशकों तक ऐसी नौकरी में रहे जिसने उन्हें देश के भिन्न भिन्न गाँवों में रहने का अवसर दिया और इस दौरान किसानों के बीच रहते हुए उनकी बुनियादी समस्याओं को बेहद नजदीक से देखा और समझा उन्होंने।
उपन्यास की भूमिका में मुकेश जी कहते हैं कि- "मेरे मन में यह विचार बार बार आता रहा कि गाँव के उस जीवन को लिखकर अपने बाद की पीढ़ी को बता सकूँ कि जीवन सुविधाओं की प्रतिपूर्ति भर नहीं है। परिवार का अर्थ बहुत व्यापक होता है। हमें तो ये भी पता भी नहीं होता कि हम घर में जिन चीजों का इस्तेमाल इतनी आसानी से कर रहे होते हैं , उन्हें पैदा करने के लिए किसी गाँव का कोई किसान अपना खून पसीना एक कर रहा होता है।"

संवेदना और सह अनुभूति का यह भाव उपन्यास के हर प्रसंग में पूर्णता के साथ उपस्थित है। व्यक्तिगत जीवन अनुभवों से अर्जित कई घटनाओं और चरित्रों के सहारे बुनी गयी इस कथा में किसानों के पारिवारिक जीवन, कृषि-कार्य से जुड़ी मूलभूत समस्याओं, प्रशासनिक और राजनैतिक स्तर पर कदम कदम पर फैले भ्रष्टाचार का जीवंत वर्णन हुआ है। एक बड़े अस्पताल के प्रस्तावित निर्माण से जुड़े उद्योगपति और उसके सहयोग में लगा प्रशासनिक अमला प्रयासरत है कि किसानों की उपजाऊ जमीन किसी भी तरह हासिल कर ली जाय। गाँव के एक बुजुर्ग मास्टर जी और कुछ युवक इन उपजाऊ जमीनों को अधिग्रहण से बचाने के लिए एक ऐसे किसान नेता के संपर्क में आते हैं जो आंदोलन के खर्च के नाम पर उन्हीं से पचास हजार रुपये झटक लेता है। धरने प्रदर्शन की तैयारी होते होते ये किसान नेता अपनी दलाली में सफल हो जाता है और पुलिस तथा प्रशासन के साथ मिलकर ऐसा षड्यंत्र रचता है कि आंदोलन बुरी तरह विफल हो जाता है।
लगातार चौथी प्राकृतिक आपदा झेलने के लिए मजबूर किसानों के सामने कोई रास्ता नहीं है। या तो खेत बेचें या आत्महत्या कर लें। साहूकार से लेकर सहकारी बैंक तक हर जगह कर्ज और व्याज से दबे नायक के पिता अपने परिवार को बचाने के लिए जहर पी लेते हैं। फिर एक बार पुलिस और प्रशासन का खेल शुरू होता है। पीड़ित परिवार पर अलग अलग तरीकों से मानसिक दबाव डालकर इस आत्महत्या को सर्पदंश घोषित करते हुए उनके पूरे कर्ज को समाप्त कर दिया जाता है।
इस किताब की एक विशेषता यह भी है कि घोर निराशा और पराजय के क्षणों में भी कुछ लोग टूटते नहीं। वे गिरते हैं किंतु साहस के साथ उठकर खड़े होते हैं और इन्हीं विषम परिस्थितियों के बीच से अपने लिए एक छोटी सी पगडंडी तलाशने की कोशिश करते हैं।
कृषि विज्ञान से जुड़े होने के कारण लेखक के पास खेती की समस्याओं से जुड़े व्यावहारिक उपाय भी हैं। नियमित फ़सलों की जगह खेतों में उपजाने के लिए फलों और औषधियों के कई विकल्प हैं जिन्हें अपनाकर इन प्राकृतिक आपदाओं से बचते हुए थोड़ा सुरक्षित रहा जा सकता है। रासायनिक जहरीली खादों के प्राकृतिक विकल्प पर भी सार्थक चर्चा हुई है।
कहानी में नायक की छोटी सी प्रेम कहानी भी मूल कथा के समानान्तर चलती रहती है। कई दुखद घटनाओं के बाद इसी प्रेम कहानी की परिणिति के बहाने उपन्यास का समापन भी सुखांत हो जाता है।
हल्का सा फ़िल्मी स्पर्श पाने के बाद भी यह अंत खटकता नहीं क्योंकि यही आशाएँ और उम्मीदें जीवन को निरंतर आगे बढ़ाने में सहायक बनती हैं।
मुकेश दुबे जी को एक अच्छी रचना के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ। एक छोटा सा आग्रह भी है कि इसके अगले संस्करण के समय प्रूफ़ की ग़लती से जो भी भाषायी त्रुटियाँ किताब में रह गईं हैं, उन्हें सुधार लें। किसी भी अच्छी किताब में इस तरह की कमियाँ रह जाना उस रचना के लिए किये गए लेखकीय श्रम के साथ अन्याय है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विरह विगलित कदंब: पुष्पा भारती

विरह विगलित कदंब पुष्पा भारती साहित्य सहवास में चारों ओऱ बड़े करीने से हरियाली उग आई थी। अपनी मेहनत की सफलता पर खुश भी थे भारती जी कि सहसा उ...