रविवार, 7 अक्तूबर 2018

सूर्यभानु गुप्त

मीर और गालिब के समय से शुरू हुआ ग़ज़लों का तीन सौ वर्ष पुराना सफर आज भाषा, शिल्प और संवेदना की तमाम चौहद्दियों को पार कर लोकप्रियता की एक अनूठी मिसाल कायम कर चुका है। पहले फारसी, फिर उर्दू और फिर हिन्दी ग़ज़ल कहकर किया गया इस विधा का वर्गीकरण इन दिनों अप्रासंगिक हो उठा है क्योंकि आज कई ऐसी भाषाओं में भी ग़ज़लें लिखी जा रही हैं जिनकी कल्पना भी शायद नहीं की गई होगी।

ग़ज़ल को वर्ग विशेष की महफ़िल से उठाकर आम आदमी तक पहुँचाने की अहम भूमिका जिन शायरों ने निभाई उनमें सूर्यभानु गुप्त प्रमुख हैं। यही कारण है कि उनका शुमार हमारे दौर के शीर्षस्थ ग़ज़लकारों में होता है।

सूर्यभानु गुप्त हमारे समय के उन चुनिन्दा रचनाकारों में हैं जिनकी रचनात्मकता किसी प्रकाश स्तम्भ की तरह निरन्तर प्रज्वलित रही और अपनी चालीस वर्ष की काव्य यात्रा के दौरान कविता, ग़ज़ल, गीत, दोहे, त्रिपदी, चतुष्पदी, और हाइकू जैसी विभिन्न विधाओं में उन्होंने उत्कृष्ट सृजन किया।
उनकी कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाने की विशेषता मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करती है। एक छोटी सी कविता देखिए...

पुख़्ता होते ही मर गयी चीज़ें
बात जब तक थी, बात कच्ची थी,
घर बनाकर बहुत मैं पछताया
इससे ख़ाली ज़मीन अच्छी थी!

यूँ तो सूर्यभानु गुप्त जी ने हर विधा में कमाल का लेखन किया है किन्तु सबसे ज्यादा मारक उनकी त्रिपदियाँ हैं। मात्र तीन पंक्तियों में ऐसी बातें कह जाते हैं वो जिसे कई पृष्ठों की बड़ी कविता भी नहीं कह पाती। "देश" नामक खण्ड की ये पंक्तियाँ देखें...

पड़ा है धूप का सपना अभी वहीं का वहीं
जिस आधी रात को हमको मिली थी आजादी
उस आधी रात की क़िस्मत में सहर है कि नहीं ?

चला किधर के लिए था, किधर निकल आया !
मैं इससे पहले ये कहता बदल तू शक्ल अपनी
वो मेरी नस्ल का हर आईना बदल आया !

इंतज़ार और अभी दोस्तों करना होगा !
राम लीला जरा कलियुग में खिंचेगी लम्बी,
लेकिन ये तय है कि रावण को तो मरना होगा "!

इसी तरह दूसरी आजादी, ग्रीष्म, सावन, शरद आदि अध्यायों में उनकी कुछ और शानदार त्रिपदियों के दर्शन होते हैं....

आदमी, आदमी हुआ फिर से!
धूप, चिड़िया, हवा , नदी, ख़ुशबू
दिल को हर चीज ने छुआ फिर से!!

अपने ही घर में हम पराए हैं!
ऐसा लगता था देशी शक्लों में
फिर से अंग्रेज लौट आये हैं!

धूप, ताज़ा हवा ज़रूरी है!
बात गणतंत्र की इमारत की
खिड़कियों के बिना अधूरी है !!

लोग क़समें हज़ार खाते हैं
लौटकर राजघाट से लेकिन
फिर उसी रंग में डूब जाते हैं ।

धूल ही धूल हर गली बाबा !
चोर सारे सवार घोड़ों पर,
और पैदल इधर अलीबाबा !!

दूर तक रात है, अँधेरे हैं,
जिनके घर खेतियाँ अँगूठों की,
उनकी जेबों में फिर सवेरे हैं !

रेत सहरा की आ गयी मन तक !
गर्मियाँ आ के कहाँ तक ठहरीं,
जी में आये, उतार दें तन तक !!

मेघदूतों का इंतज़ार हुई !
धूप ने इस क़दर नदी पहनी,
रहगुज़र एक आर-पार हुई !!

इन दो मिस्रों में सदी सिमटी है !
झिलमिलाता है रूह तक मृगजल,
दोपहर यूँ बदन से लिपटी है !

खेल मौसम भी खूब करता है
छींटे आते हैं मेरे अंदर तक
मेंह बाहर मेरे बरसता है!

एक पहचान के हरे वन में
इस तरह इंद्र का धनुष टूटा
रंग ही रंग भर गए मन में !

ओस झिलमिल कनेर हैं सुबहें
एक तालाब के कमल ओढ़े
किसकी ग़ज़लों के शेर हैं सुबहें!

इस तरह से है धूप कोहरे में
बाजरा तुमने साफ़ करने को
जैसे रक्खा हो सूप कोहरे में!

पेड़ बजते हैं पुष्पशंखों से
एक कविता हवा में लिखती हैं
उड़ती चिड़ियाएँ अपने पंखों से।

रास्ते क्या नज़र नहीं आते?
सुब्ह के भूले शाम तक साहिब
इन दिनों लोग घर नहीं आते!

सूर्यभानु गुप्त के यहाँ भाषा और भाव का जो संयोजन नज़र आता है वह अन्यत्र विरल है। कल्पना और रूपक का अद्भुत प्रयोग उन्होंने अपनी कविताओं में किया है।

जो लोग जूतों के साथ
पेड़ों पर नहीं चढ़ पाते हैं
वे कुर्सियाँ बनवाते हैं।

और यहाँ देखिए....

न जाने आसमान कब गिरेगा !
दरख़्त
छोटे बड़े
एक पाँव पर खड़े
प्रतीक्षा कर रहे हैं सदियों से
कि कब आसमान गिरे
और हम थाम लें !
लेकिन आसमान भी कोई बुद्धू नहीं है,
बूढ़ा हो गया है,
यह समझता है
कि दरख़्त सब के सब ,
यूँ ही नहीं खड़े हैं बेमतलब
सदियों से,
अरे!
अगर गिरना ही है
तो सीधे ज़मीन पर गिरेंगे,
भला इन दलालों के हाथ
क्यों पड़ेंगे?
मेरा ख़याल है--
जब तक एक दरख़्त भी खड़ा रहेगा
आसमान नहीं गिरेगा !

"पिताजी का बच्चा" सूर्यभानु गुप्त की अत्यंत चर्चित रचनाओं में शामिल है। एक आत्ममुग्ध पिता और पितामुग्ध बालक की यह जुगलबन्दी अद्भुत है..

पिताजी हैं गामा
पिताजी सिकन्दर
पिताजी टमाटर
पिताजी चुकन्दर

पिताजी का जीवन
पिताजी का दर्शन
पिताजी की पुस्तक
पिताजी को अर्पन

पिताजी का पर्वत
पिताजी का डण्डा
पिताजी ने गाड़ा
पिताजी पे झण्डा

पिताजी के अंदर
पिताजी पड़े हैं
पिताजी के बाहर
पिताजी खड़े हैं

पिताजी का भेजा
पिताजी ने पाया
पिताजी के सर पे
पिताजी का साया

पिताजी का बच्चे पे
ऐसा असर है
पिताजी की जूती
पिताजी के सर है।

सूर्यभानु गुप्त की चतुष्पदियाँ उनकी त्रिपदियों जितनी प्रभावशाली न होते हुए भी रोचक और पठनीय हैं।

आंखों में फूल
हाथों में धूल
हमने भी की कैसी
बच्चों सी भूल

पत्थर का मौन
समझा है कौन
शिल्पी कुछ, पर कितना?
यही आध-पौन !

उतर गया घाम
कर मेरे नाम
डूबा दिन, कटे हुए
पाँवों की शाम !

हाइकू विधा की कुछ रचनाएँ देखें....

रेत पे पाँव
याद आ रही है माँ
पेड़ की छाँव!

बात बात में
दीवारें गिरती हैं,
बरसात में !

टूटे बादल
बीच सड़क पर
नाचे पागल!

नीम का पेड़
देख रहा है, सूनी
खेतों की मेड़ !

सूर्यभानु गुप्त जी ने कमाल के दोहे लिखे हैं। बानगी के तौर पर ये दोहे पढ़ें...

गीता और कुरान पर, है अब ऐसी धूल
भोले भाले आदमी, रस्ता जाएँ भूल

मन्दिर वन्दिर के नहीं, राम मेरे मोहताज
बसी अयोध्या जिस हृदय, उसमें रहे विराज

गंगा जी से क्या जुड़ें, पितरों के सम्बन्ध
जब पंडों के हाथ हों, घाटों के अनुबन्ध

क्या बतलाएँ, क्या लिखें, तुमको अपना हाल
दिल तो राजस्थान है, आँखें नैनीताल

छोड़ समय की रेत पर, चंद सीपियाँ शंख
उड़ जाता जाने कहाँ, प्रेम लगाकर पंख

हर इक युग के अंत में, मिले हमेशा झूठ
हाथ लिए टूटी हुई, तलवारों की मूठ

जब से हमने ले लिया, हर रिश्ते से जोग
घर के से लगने लगे, दुनिया भर के लोग

कलियुग में रावण अमर, त्रेता में थे राम
अपना अपना देवता, चुनना युग का काम

सूर्यभानु गुप्त की सर्वाधिक ख्याति ग़ज़ल के क्षेत्र में है अतः उनकी ग़ज़लों की चर्चा के बग़ैर कोई भी परिचर्चा अधूरी रह जाएगी। अपने
एक शेर में वे कहते हैं---

जो ग़ालिब आज होते तो समझते
ग़ज़ल कहने में क्या कठिनाइयाँ हैं

ग़ज़ल कहने में उन्हें क्या कठिनाइयाँ दिखीं ये मुझे नहीं मालूम। पर ये ज़रूर कहूँगा कि उनकी ग़ज़लों ने दुष्यंत की ही तरह एक नए तरह की भाषा, शिल्प और कथ्य को जन्म दिया और इस प्रक्रिया में ग़ज़ल उन सामान्य लोगों से भी जुड़ सकी जिन्हें उर्दू के भारी भरकम लफ़्ज़ों की समझ नहीं थी....

जिनके अंदर चिराग जलते हैं
घर से बाहर वही निकलते हैं

ऐसी काई है अब  मकानों पर
धूप के पाँव भी फिसलते हैं... जैसे लाजवाब शेर कहने वाले शायर बहुत कम हैं हमारे पास। इसी ग़ज़ल के आख़िर में उनका ये प्रयोगात्मक शेर काबिले तारीफ़ है--

हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के
मूड आता है तब निकलते हैं

उनकी ग़ज़लों के शेर हमें कभी विस्मित तो कभी मोहित करते हैं....

आम रस्ता नहीं था मैं, फिर भी
मुझसे होकर गुज़र गया कोई

**
दिल के दरवाजे होते हैं अन्दर को खुलने वाले
मैं अन्दर आकर पछताया और इक चेहरा याद आया
**
अपने ही घर में अजनबी की तरह
मैं सुराही में इक नदी की तरह

उसकी सोचों में मैं उतरता हूँ
चाँद पर पहले आदमी की तरह

**
हर लम्हा ज़िन्दगी के पसीने से तंग हूँ
मैं भी किसी क़मीज़ के कॉलर का रंग हूँ
ये किसका दस्तख़त है, बताए कोई मुझे
मैं अपना नाम लिख के अँगूठे सा दंग हूँ

**

रंज इसका नहीं कि हम टूटे
ये तो अच्छा हुआ भरम टूटे

ज़िन्दगी ! कंघियों में ढाल हमें
तेरी जुल्फ़ों का पेचो-ख़म टूटे

अपनी एक और ग़ज़ल में जिस तरह ख़ामोशी लफ़्ज़ का प्रयोग उन्होंने किया है, वह शानदार है.....

सुब्ह पर्वत की एक मन्दिर है
जिसमें इक प्रार्थना है ख़ामोशी

दर्द के शह्र में मेरा घर है
मेरे घर का पता है ख़ामोशी

गुफ़्तगू के सिरे हैं हम दोनों
बीच का फ़ासला है ख़ामोशी

दोस्तों, ख़ुद तलक पहुँचने का
मुख़्तसर रास्ता है ख़ामोशी

रिश्तों पर कही एक ग़ज़ल के चन्द शेर देखिए...

यूँ हदों से गुज़र गए रिश्ते
रह गए लोग मर गए रिश्ते

धूप जब तक रही, रहा मेला
फिर न जाने किधर गए रिश्ते

ज़िन्दगी शीर्षक ग़ज़ल से उनके चंद शेर देखिए....

धूप, वादे, वफ़ा,रोशनी,  देवता
हर खिलौने से उतरा कलर ज़िन्दगी

छन्द से जैसे बाहर ग़ज़ल हो कोई
रहगुज़र, रहगुज़र, रहगुज़र ज़िन्दगी

सौ दफ़ा आदमी को गिराए बिना
टिकने देती नहीं पीठ पर ज़िन्दगी

एक अन्य ग़ज़ल में उनके बिम्बों का बेहतरीन प्रयोग देखें...

सुब्ह शाम के चेहरे मिलकर एक हुए
कुछ लम्हों को ऐसा फ्यूज़ हुआ सूरज

धरती और चाँद की सफ़ में आते ही
अपना तो चेहरा ही खो बैठा सूरज

हुई ज़मानत ज़ब्त अँधेरों की आख़िर
इतने वोटों से आगे निकला सूरज

बरस रहा अँधियारा सौ सौ शक्लों में
इस दुनिया की ख़ातिर माँग दुआ सूरज !

और अंत में उनकी सर्वाधिक चर्चित ग़ज़ल "पानी" के चंद शेर....

आँखों में पड़े छाले, छालों से बहा पानी
इस दौर के सहरा में ढूँढ़े न मिला पानी

लोगों ने कभी ऐसा, देखा न सुना पानी
पानी में बही बस्ती, बस्ती में बहा पानी

हर सिम्त मुक़ाबिल थीं, बस धूप की तलवारें
पर आख़िरी क़तरे तक, सहरा में लड़ा पानी

हर लफ़्ज़ का मानी से, रिश्ता है बहुत गहरा
हमने तो लिखा बादल और उसने पढ़ा पानी

तन भी न बचा कोरा, मन भी न बचा कोरा
इस बार के सावन में, क्या जम के गिरा पानी

इक मोम के चोले में धागे का सफ़र दुनिया
अपने ही गले लग के रोने की सज़ा पानी

हर एक सिकन्दर का, अंजाम यही देखा
मिट्टी में मिली मिट्टी, पानी में मिला पानी

1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही सुन्दर पोस्ट। कवि सूर्यभानु गुप्त जी का परिचय कराकर आपने उत्तम काव्य रस से सराबोर कर दिया।

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