मंगलवार, 4 सितंबर 2018

मैं घोड़ा अश्वमेधी यज्ञ का हूँ : ज्ञान प्रकाश विवेक

हरेक आदमी बेघर है ज़िन्दगी के लिए
कि जैसे राम भटकते थे जानकी के लिये

अँधेरी राह पे दीपक जला के आया हूँ
मैं और करता भी क्या दोस्त! बन्दगी के लिए

ज़िन्दगी की बेघरी को जानकी के लिए राम की भटकन से जोड़ देना... और वो भी इतनी सादगी से ज्ञान प्रकाश विवेक जैसे शायर ही कर सकते हैं।

कुछ ग़ज़लें, कुछ शेर दिल के बहुत क़रीब जगह बना लेते हैं। और इस तरह जिन किताबों में ये शेर होते हैं वो किताब भी बहुत खास हो जाती है। घर में एक ऐसे कोने की चाहत जाग उठती है जहाँ से इन प्रिय किताबों पर लगातार नज़र बनी रहे।
ऐसे ही एक अज़ीज़ संग्रह से कुछ और चुनिन्दा शेर लेकर आज फिर हाज़िर हुए हैं।
26 मार्च 2018 को इस संग्रह के चुने हुए शेरों का आधा हिस्सा जिस आलेख में शामिल था वह प्रकाशन हेतु रवाना तो उसी समय हो गया था, ये अलग बात है कि जिस पत्रिका में भेजा गया है उसका नया अंक आज तक प्रकाशन प्रक्रिया में ही है।
किताब के उस आधे भाग में दस रुपये का एक नया नोट बुकमार्क की तरह  रखकर उसे आलमारी में सजा दिया गया। कल जब चार महीने बाद अचानक अपने अधूरे काम को पूरा करने का ख़याल आया तो न सिर्फ़ वह नोट वापस मिला, शानदार शेरों और ग़ज़लों की दुनिया भी सामने जीवित ।हो उठी।

कुछ आसमान तो रहते हैं दूर पृथ्वी से
कुछ आसमान परिन्दों के पर में रहते हैं

हुई मुद्दत, मेरी छत से नहीं गुज़रा कोई बादल
मगर तुम कह रहे हो गीत मैं बरसात पर लिक्खूँ

गिरवी पड़े हुए हैं मेरे चुटकुले तो क्या
फिर भी है मुझमें हँसने हँसाने का हौसला

टूटी हुई सुराही मेरी देख मत रफ़ीक
तू देख मुझमें आग बुझाने का हौसला

कि जैसे कट गई हो जेब मेरी
भरे मेले में ऐसे मैं खड़ा हूँ

दुख है एक मुसाफ़िर जैसे
दिल की चौखट पर बैठा है

एक बालक सा हो गया है दिन !
मुझसे कहता है आ पहाड़े गिन!

रेत पर जैसे हो कोई मछली
ज़िन्दगी यूँ कटी तुम्हारे बिन !

तुमने एलबम सजा ली लम्हों की
मैंने गुल्लक में रख लिए हैं दिन !

वो इतनी देर से बैठा है ऐसे कुर्सी पर
कि अपने आप को रखकर चला गया है कहीं

ख़्वाब की चिट्ठियाँ उठाये हुए
नींद का डाकिया भटकता है
वो तेरी याद है या फिर तू है
जो दबे पाँव दिल में चलता है
चाँद क्या तू कभी नहीं थकता
कितना पैदल तू रोज़ चलता है

समन्दर धूप का अख़बार लेकर
किसी बच्चे की तरह पढ़ रहा था

जो मेरा दोस्त आँगन की तरह था
कि अब वो बन्द कमरा बन गया है
मैं उस बच्चे की मस्ती क्यों चुराऊँ
बिछाकर धूप जो बैठा हुआ है

दर्द मेरा है किसी खोटी अठन्नी जैसा
सुख के बाज़ार में किस तरह चलाऊँ उसको

अकेले दौड़ना है मेरी फ़ितरत
मैं घोड़ा अश्वमेधी यज्ञ का हूँ
बनाकर धूप मुझको रख गया है
उसी सूरज को कबसे ढूँढता हूँ

रोटी है एक लफ़्ज़ या रोटी है इक ख़ुशी
ये प्रश्न अपने आप से मैं पूछता रहा

बारिश में भीगता हुआ बालक गरीब का
लोगों की छतरियों को खड़ा देखता रहा

हुक़्मरानों, मुझे कर्फ्यू के न समझाओ नियम
मेरा बीमार है बच्चा, मुझे घर जाने दो

दर्द आएगा दबे पाँव पुरोहित बनकर
दिल के मन्दिर में कोई शंख बजाने के लिए

मुस्कराते हुए होठों पे न रखिये मुझको
एक आँसू हूँ, किसी आँख का सरमाया हूँ
जिसको देखो वही दूकान नज़र आता है
आपके शह्र में आकर बड़ा भरमाया हूँ

कोई आहट, कोई दस्तक, किसी चिड़िया की चहक
अपने ख़ामोश मकानों में सजाए रखना

कर्ज़ की उम्मीद लेकर मैं गया था जिसके पास
फ़ीस माफ़ी के लिए वो लिख रहा था अर्ज़ियाँ

हमेशा खेलता है चाँद सूरज के खिलौनों से
हमें तो आसमाँ भी एक बच्चे सा नज़र आया

रफ़्ता रफ़्ता पराए होते हैं
लोग रिश्तों में दूरियाँ रखकर
इस शहर से वो हो गया रुख़्सत
अपनी सारी कहानियाँ रखकर

टँगा हुआ था जो खूँटी पे इक निशानी सा
पिता के कोट को भी एक दिन उतार दिया

उस भूखे आदमी का तब दर्द मैंने जाना
जब गोल चाँद को भी रोटी सा उसने माना
पूछी जो मैंने उससे परिभाषा ज़िन्दगी की
बोला कि चल रहा है, साँसों का कारख़ाना

हमारे दौर में ऐसी तरक्कियाँ होंगी
कि खूँटियों पे टँगी माँ की लोरियाँ होंगी
हमारी नींद में सपने जहाज़ के होंगे
हमारे हाथ में काग़ज़ की कश्तियाँ होंगी

लगता है तड़पती हुई इस धूप से जैसे
सूरज के कलेजे में कोई कील गड़ी है

अपनी आँखें जब महाजन को चुका दीं ब्याज में
रोशनी का तब हमें भावार्थ समझाया गया

ग़लत पते का मैं ख़त हूँ कि डाकिया मुझको
पराए हाथ में हर बार दे के आया है

तवील रास्तों की आनबान रहने दे
तू अपने पाँव में थोड़ी थकान रहने दे
मेरे मकान की छत को उतार दे बेशक!
कि मेरे सर पे खड़ा आसमान रहने दे

तुझे करेगा परेशान जब भी बोलेगा
मेरे ज़मीर को तू बेज़ुबान रहने दे

शिकारगाह न बन जाये ये शहर सारा
मकान चाहे बना पर मचान रहने दे

मेरी सच्चाई गर अपराध है तो ऐ मुंसिफ़
ले, हाथ काट ले, लेकिन ज़ुबान रहने दे

1 टिप्पणी:

  1. Namaste sir. Apke likhe gye sheron me se ek sher h:
    हमारे दौर में ऐसी तरक्कियाँ होंगी
    कि खूँटियों पे टँगी माँ की लोरियाँ होंगी
    हमारी नींद में सपने जहाज़ के होंगे
    हमारे हाथ में काग़ज़ की कश्तियाँ होंगी
    Is sher par shayad kayi saal pehle ek gana bhi bana tha. Kya aap please is sher k lekhak ya gaane ki film ka naam bata payenge. Is poore sher ya kavita ko mujhe dhoondna hai. Abhar! 🙏🏻🙏🏻

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