गुरुवार, 12 जुलाई 2018

ढाक के तीन पात- मलय जैन

सुबह ग्यारह बजे का वक़्त, चहुँ ओर लाल फीतों की लालिमा धीरे धीरे खिलना प्रारंभ हो चुकी थी। इस लालिमा को देखकर सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि सरकारी सूरज उगने को था।
कुछ बेशर्म किस्म के बाबू देर से आने की परंपरा का अपमान करते हुए समय पर अपनी सीटों पर पहुँच चुके थे। टेबल पर आई फाइलों को देखकर बाबू लोग सोच रहे हैं कि इनके साथ कैसा सुलूक किया जाय। चूँकि इन फाइलों पर सेवाभाव का समर्पण प्रारंभ नहीं किया गया था लिहाज़ा अभी तक तय नहीं था कि इनमें से किन फाइलों को निबटाया जाएगा, किन्हें अटकाया जाएगा, किन्हें लटकाया जाएगा और किन्हें लतियाया जाएगा।
कुछ फाइलें लम्बे समय से एक ही जगह पड़ी पड़ी कराह रही थीं, कुछ दम घुटने के कारण अंतिम साँस ले रही थीं।

सलामतपुर नामक एक कस्बे के सरकारी दफ़्तर के इस अ-भूतपूर्व वर्णन से जिस उपन्यास का आगाज़ होता है उसका नाम है- "ढाक के तीन पात" जिसे पढ़ते समय मेरे मन में बार बार कुछ सवाल उठते बैठते रहे।
किसी लेखक की किताब दो स्थितियों में ही सवाल खड़ा करती है, या तो किताब राह भटक गई हो तब या फिर अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल हो जाए तब। मलय जैन साहब की ये किताब तो पहले ही सफलता के ज़रूरी सोपानों को लाँघ चुकी है।

उनका ये कसा हुआ व्यंग्य उपन्यास पढ़ते समय मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि पुलिस सेवा जैसी रूखी सूखी उजड्ड किस्म की जगह पर होकर भी कोई अपने लेखन में इतना हास्य वाला रस कैसे पैदा कर सकता है। हालाँकि हमारे देश के पुलिस स्टेशनों के माहौल को ध्यान से देखा जाय तो वहाँ हास्य ही क्यों सृष्टि के सारे रस धाराधार बरसते नज़र आ सकते हैं। तो ऐसे माहौल में जीने वाले लेखक की कलम में भी व्यंग्य का वायरस घुस जाना सहज है☺

दफ़्तर, फाइलों, बाबुओं, दलालों, टाइपराइटर आदि ऐतिहासिक वस्तुओं का प्रागैतिहासिक वर्णन जारी था, और बी.डी.ओ, एस. डी. एम जैसे महापुरुष अपनी अपनी सीट पर पहुँच रहे थे, उसी समय एक बुरी खबर पहुँचकर पूरे प्रागैतिहासिक परिवेश की ऐसी तैसी कर जाती है। सूचना मिलती है कि कमिश्नर साहिबा "जनता की सरकार जनता के द्वार" के तहत सारे अधिकारियों के साथ गूगल गाँव का पैदल भ्रमण और ग्राम्य शिविर करेंगी। इस ख़बर के साथ जो भगदड़ मचती है उसका बड़ा मनोहारी चित्रण जैन साहब ने किया है। सरकारी अमले को भागते देखकर दो टकिये पत्रकार लपका सिंह जो एक दुकान पर बैठकर फोकट के समोसे जलेबी उड़ाते रहते हैं, हड़बड़ी में आखिरी गाड़ी के बोनट पर कूदकर चढ़ जाते हैं।
सरकारी अमला ऐसे दुर्दिन में गाँव के पटवारी गोटी राम को ढूँढने में लग जाता है जो गोटियाँ फिट करने का जाना माना एक्सपर्ट है।
गूगल गाँव और वहाँ के सरकारी विद्यालय, जहाँ कमिश्नर साहिबा ठहरने वाली हैं, का वर्णन किसी भी  भले इंसान को हँसा हँसा कर उसके पेट का सत्यानाश करने के लिए पर्याप्त है।
गूगल गाँव में एक से बढ़कर एक क़िरदार हैं। घोर धार्मिक पत्नी द्वारा सताए और यौन कुंठित वैद्य, लात मारकर आशीर्वाद देने वाला भूतपूर्व अपराधी और अब का बाबा दनादन, सरकारी स्कूल के सुपर भ्रष्ट प्रिंसिपल पाराशर, सरकारी अधिकारियों तहसीलदार, एस. डी. एम, सरपंच, गड्ढेदार सड़कें बनाने वाले ठेकेदार गड्ढे भैया, यहाँ तक कि आपस में विचार विमर्श करते गाँव के कुत्ते तक इस उपन्यास को रोचक बनाने में कालजयी सहयोग करते हैं।

स्कूल के मिडडे मील वाले भुतहे कमरे जहाँ जालों से लटकती मकड़ियों, कड़ाही में कूदकर आत्महत्या को तैयार छिपकिलियों और मेढकों का चित्रण भी जमकर किया गया है।

व्यंग्य आधारित कथानक वाले हिन्दी उपन्यासों की परम्परा में पिछले कुछ वर्षों से जो श्रेष्ठ उपन्यास लिखे गए हैं उनमें बड़ी आसानी से शामिल हो चुका है "ढाक के तीन पात".. मुझे इस उपन्यास का सबसे प्रबल पक्ष लगा इसकी पठनीयता। मलय जैन ने अपने उपन्यास को एक कुशल पटकथा लेखक की भाँति इस तरह  विकसित किया है कि बोर होने के क्षण कहीं नहीं आते। अंत की ओर अग्रसर होते होते कथानक की रोचकता निरंतर बढ़ती जाती है और मलय पात्रों को उनके कर्मानुसार ठिकाने लगाने का पूरा प्रबन्ध रचते हैं।

ढाक के तीन पात
मलय जैन
राधा कृष्ण प्रकाशन राजकमलप्रकाशनसमूह
पृष्ठ- 200
मूल्य- 195

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विरह विगलित कदंब: पुष्पा भारती

विरह विगलित कदंब पुष्पा भारती साहित्य सहवास में चारों ओऱ बड़े करीने से हरियाली उग आई थी। अपनी मेहनत की सफलता पर खुश भी थे भारती जी कि सहसा उ...