सोमवार, 5 मार्च 2018

मुख्यमंत्री-- चाणक्य सेन

भारतीय साहित्य में बंगाली लेखकों बंकिमचंद्र चटर्जी, रवींद्रनाथ टैगोर और शरतचंद्र की लोकप्रियता युग और काल की सीमा से परे है। इनके बाद आने वाली अगली पीढ़ी आशापूर्णा देवी, मणि शंकर मुखर्जी, विमल मित्र , ताराशंकर बंद्योपाध्याय और सुनील गंगोपाध्याय जैसे लेखकों का रचनात्मक अवदान पाकर और समृद्ध हुई। औपन्यासिक विस्तार के साथ बड़े फलक पर रचे गए इनके आख्यानों नें इस विधा को अतुलनीय योगदान दिया है।

प्रख्यात विद्वान, पत्रकार, स्तंभ लेखक, और प्रोफेसर भवानी सेनगुप्त जिन्हें साहित्य जगत
चाणक्य सेन के नाम से जानता है, इसी यशस्वी पीढ़ी के एक बड़े कथाकार हैं। चाणक्य सेन को राजनीति पर लिखी किताबों व लेखों ने बहुत ख्याति दिलाई। उनके तीस से अधिक उपन्यास राजनीति पर केंद्रित रहे। अपने बहुचर्चित उपन्यासों " राजपथ जनपथ" ये दिन वे दिन " "रक्तबीज के ख़िलाफ़" "पाकिस्तान का सच" और "मुख्यमंत्री" के हिन्दी अनुवादों के जरिये वे देश के विभिन्न भाषाओं के पाठकों के साथ जुड़े और सराहे गए।

जब भी भारतीय भाषाओं में लिखे गए राजनैतिक उपन्यासों की बात होती है, "मुख्यमंत्री" का नाम सबसे पहले आता है। बहुत दिनों से इस किताब को पाने का प्रयत्न करता रहा। कई बार ऑर्डर करने के बाद भी राजकमल वालों ने इसे नहीं भेजा। पिछली इलाहाबाद यात्रा के दौरान जब लोकभारती कार्यालय में किताबें देखने गया तो अचानक इस उपन्यास की दो पुरानी प्रतियों पर नज़र पड़ी और अविलम्ब एक ठीकठाक प्रति उठा ली।

1966 में मूल बाँग्ला में प्रकाशित "मुख्यमंत्री" एक अद्वितीय उपन्यास है। 1967 में माया गुप्त ने इसका हिन्दी अनुवाद किया।
चाणक्य सेन ने इस राजनैतिक उपन्यास के बहाने हमारे समाज की राजनैतिक और सामाजिक विचारधाराओं, मान्यताओं, नैतिकता की आड़ में छुपी मानवीय विद्रूपताओं का सूक्ष्म और छिद्रान्वेषी विवेचन किया है। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के अंतर्गत देश भर में हुए लगभग 300 से अधिक मंचन इस उपन्यास के कथानक की सर्वकालिक प्रासंगिकता और लोकप्रियता को बयान करते हैं। ( नाट्य मंचन की संख्या और अधिक हो सकती है क्योंकि ये आँकड़े बरसों पुराने लिखे गए किसी लेख से लिये गए हैं)

छठवें दशक में मध्यप्रदेश के एक लोकप्रिय मुख्यमंत्री के चरित्र से प्रेरित इस कथा में एक काल्पनिक प्रान्त "उदयाचल" और उसकी राजधानी रतनपुर है। आजादी के बाद की पहली कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री हैं प्रखर कूटनीतिज्ञ एवं लोकप्रिय कृष्ण द्वैपायन कौशल यानी के.डी. कौशल। किताब का आरम्भ उनके मंत्रिमंडल पतन की खबर से होता है। संक्षिप्त रूप में बताना हो तो यही कहेंगे कि यह उपन्यास सुबह से देर रात तक घटी कुछ घटनाओं की प्रस्तुति है किंतु 24 घंटों में समाई इस मूल कथा के साथ साथ आजादी के पूर्व और उत्तर काल के एक लंबे कालखंड की सामाजिक और सांस्कृतिक यात्रा भी चलती रहती है।
चाणक्य सेन की इस किताब में बहुत से किरदार हैं और इन सारे किरदारों को बड़ी आस्था, तन्मयता और सूक्ष्मता से गढ़ा है उन्होंने।
संयम और नियम की प्रतिमूर्ति उनकी पत्नी , कांग्रेस की नीतियों के विरुद्ध और समाजवादी विचारधारा का संवाहक बड़ा बेटा दुर्गाप्रसाद जो घर छोड़कर चला गया है, और परस्पर विपरीत स्वभाव वाले अन्य तीनों पुत्रों का चित्रण उनके विचार और मनःस्थिति को बखूबी दर्शाता है। अब तक बेरोजगार रहे अपने सबसे छोटे बेटे के साथ मुख्यमंत्री के अनुराग के दृश्य देखते ही बनते हैं।
दुर्गाभाई देसाई नाम के बेहद ईमानदार वरिष्ठ नेता भी इसी प्रदेश में मौजूद हैं जो सत्ता की चालबाजियों में फँसकर अपनी उजली चादर को दागदार बनाने के लोभ में न पड़कर मुख्यमंत्री बनने का अवसर कृष्ण द्वैपायन को देकर स्वयं एक मंत्रालय तक सीमित रहते हैं । उनकी ईमानदारी का ये आलम है कि अपने पुत्र को इस राज्य में इस आशंका से नौकरी नहीं करने देते कि उनके मंत्रित्व पद का लाभ उसे मिल सकता है। अपनी पत्नी के महत्वाकांक्षी स्वभाव से परिचित होते हुए और मुख्यमंत्री को अपदस्थ करने के प्रयास में शामिल कुछ प्रभावशाली पात्रों के समर्थन के बावजूद वे इस दलदल में उतरने को तैयार नहीं होते।
सत्ता हासिल करने के प्रयत्नों में व्यस्त उन पात्रों के इतिहास का वर्णन भी रोचक है जिनके तमाम रहस्य कृष्ण द्वैपायन की आलमारियों में सुरक्षित हैं। शाम बीतते बीतते षड्यंत्रकारियों की चालें लगभग व्यर्थ होती जाती हैं।

मूल कथा के समानांतर विगत इतिहास और आगत भविष्य की आशंका पर पात्रों के माध्यम से लेखक के विचार बेहद प्रभावी और और भविष्यवाणी जैसे प्रतीत होते हैं। ये कहना अनुचित नहीं लग रहा कि जिस तरह गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस में आने वाले समय की एक भयावह और अंततः सत्य सिद्ध हुई तस्वीर सदियों पहले दिखाई गई थी, उसी तरह इस उपन्यास में कई दशक पहले आजादी के ठीक बाद की सोचनीय स्थितियों को देखते हुए जिस भविष्य का पूर्वानुमान लेखक ने लगाया था उससे भी बदतर हालात में यह देश रहा।

विभिन्न स्थलों पर प्रसंगवश उद्धृत गीता के श्लोक, रामायण की चौपाइयाँ, महाभारत के अंश और हरिवंशराय बच्चन की कविताएँ इस उपन्यास को और विशेष बना जाती हैं।

माया गुप्ता द्वारा किये गए हिन्दी अनुवाद की गुणवत्ता असंदिग्ध है। पुस्तक के मूल भाव को सुरक्षित रखते हुए उन्होंने इतना सहज अनुवाद किया है कि इसे पढ़ते समय कहीं पर भी यह अनुभव नहीं होता कि हम किसी अन्य भाषा की किताब पढ़ रहे हैं।

किताब के कुछ महत्वपूर्ण अंश पाठक मित्रों के लिए सादर प्रस्तुत है...

"उम्र के साथ साथ अधिकांश हिंदुओं के मन में धर्म भावना जाग ही उठती है। भारत में धर्म के साथ राजनीति का घनिष्ठ सम्बंध है। जो राजनेता देवता ब्राह्मण के प्रति श्रद्धा प्रकट नहीं करता, मंदिर स्थापना में रुचि नहीं लेता, कभी कभार माथे पर तिलक आदि नहीं लगाता, साधु संतों के साथ समय नहीं बिताता ( इसे आज के संदर्भ में बाबाओं के साथ माना जाय), और अपने भाषणों में गीता महाभारत और रामायण के अंशों का उद्धरण न दे सके, उसके लिए धर्मप्राण भारतवर्ष में शासन करना मुश्किल है।"

हम विराट का स्वप्न देखना पसंद करते हैं और बड़ों की महानता हमें सम्मोहित करती है किंतु छोटे छोटे को अच्छी तरह पूरा करने का न हममें धैर्य है न और न आग्रह। किसी बात के प्रति हमारे मन में गहरी आंतरिक आस्था नहीं है। आधी सफलता से ही हम तृप्त हो जाते हैं और व्यर्थ हो जाने पर भी किसी न किसी निर्लज्ज व्याख्या से हम आसानी से संतुष्ट हो जाते हैं।

संपादकीय लिखो या साहित्य रचो, साहित्यिक सृष्टि में हमेशा नम्रता रहनी चाहिए। हमारे उपनिषद के ऋषियों ने कहा है "अपने को श्रीमान समझने वाले लोग जो सोचते हैं कि वे सब जानते हैं, दूसरों से कहते हैं कि तुम हमारा कहना आदर से सुनो, और उसे मानो, वे असल में अज्ञान और अविद्या के कारण बिलकुल वैसे ही होते हैं जैसे, एक अन्धा दूसरे अन्धे को सहारा देकर चलाये।

ऐसा उदार और बहुरंगी आकाश, उत्तर में गगनचुंबी हिमालय, दक्षिण पश्चिम में सीमाहीन समुद्र, चार हजार वर्ष पुरानी सभ्यता, वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत। बुद्ध, गाँधी, रामकृष्ण, विवेकानंद, अरविन्द। चालीस करोड़ लोग ( यह आँकड़ा छठवें दशक का है), प्रतिवर्ष बीस लाख बढ़ती आबादी। अस्सी प्रतिशत लोग निरक्षर। हर सौ में से सत्तर लोगों को दो जून भरपेट खाना नहीं मिलता। दुनिया का सबसे बड़ा गणतन्त्र। सचमुच भारत की कोई तुलना नहीं है।

हिंदुस्तान में राजनीति एक पेशा बन गया है। यहाँ के नेता कभी अवकाश ग्रहण नहीं करेंगे। हर नेता गद्दी पर जमा हुआ ही मरना चाहेगा।

इस देश में एक अरसे से कोई राजनीतिक चिन्तन नहीं रहा। 1885 में जिन लोगों ने कांग्रेस की स्थापना की थी, वे बस इतना ही चाहते थे कि अंग्रेजी साम्राज्य के अन्दर ही थोड़ी और मर्यादा हासिल हो। इसके बाद एक ओर तो हमारी राष्ट्रीयता की भावना जागी और दूसरी ओर हम अंग्रेजों के शासन-तंत्र के मोह में फँस गए। हमारी वह राष्ट्रीयता की भावना भविष्य में स्वतंत्र भारतवर्ष के लिए किसी योग्य शासन-पद्धति का सृजन नहीं कर पाई। हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के नेता देशभक्त तो थे पर असली शिक्षा-दीक्षा संस्कृति सबमें अंग्रेजों की ही श्रेणी के। अपवाद नहीं थे, ऐसा भी नहीं। पहले अपवाद तिलक थे, पर गाँधी जी को पसंद नहीं थे वे। गाँधी युग में ही उनका प्रभाव ख़त्म हो रहा था। सबसे बड़े अपवाद स्वयं गाँधी थे पर उन्होंने शासन की जिम्मेदारी नहीं ली और बाद में तो वह रहे भी नहीं।

हमारे सामने पंचवर्षीय योजना है, समाजवादी आदर्श है, पर हो यह रहा है कि पूँजीपतियों का धन बढ़ रहा है और गरीबों की गरीबी। गाँव और कृषि की उन्नति में जो खर्च हो रहा है, उसका एक बड़ा हिस्सा अमीरों या जमींदारों के पास जाता है। उनके घरों में बिजली आयी है, उनके खेतों में रासायनिक खाद पहुँचती है, सिंचाई के लिए पानी की सुविधाएँ हैं। यहाँ तक कि स्कूल, सड़क , अस्पताल बनाते समय भी हम उन्हीं का फायदा सबसे पहले देखते हैं। दूसरी ओर जोतदार किसानों की हालत निरंतर बदतर होती जा रही है। वे लगातार गाँव छोड़ शहर आकर गंदी और रोगों से भरी हुई बस्तियों में नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू कर रहे हैं। हम कहते हैं कि कारखानों के मजदूरों की हालत बेहतर हो रही है पर मजदूरों के मुकाबले मालिकों की हालत हजार गुना बेहतर होती है। वे मनमाने ढंग से सामानों के दाम लगाते हैं और आम लोग खरीदने के लिए मजबूर होते हैं। असल में हम सामंतवाद के नाम पर एक विराट पूँजीवादी सामंतवादी समाज तैयार कर रहे हैं।

इस देश की आबोहवा , इतिहास, संस्कृति , किसी भी चीज को यह पवित्र नहीं रहने देती। हर चीज में मिलावट करके उस पर भारतीय होने का ठप्पा लगा देती है। उसी को हम समन्वय कहते हैं। कई दलों की राजनीति का नाम लेकर एक ही दल लगातार राज्य कर रहा है। गणतंत्रवाद और समाजवाद के साथ धन-तंत्रवाद का एक अजीब समन्वय है। साम्यवाद हो चाहे समाजवाद, सबमें मिलावट है।

बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

बदलता वक़्त-- रश्मि रविजा

"बदलता वक्त "

शाम होने को आयी थी. नीला आकाश सिन्दूरी हो चुका था। पक्षी कतार में चहचहाते हुए अपने घोंसले की तरफ लौट रहे थे । वातावरण में उमस सी थी। रत्नेश शर्मा घर के बरामदे पर कुर्सी पर बैठे हाथ में पकडे अखबार से अपने चेहरे पर हवा कर रहे थे। सुबह से अखबार का एक एक अक्षर पढ़ चुके थे .बहुत कुछ दुबारा भी . और कुछ करने को था नहीं. सोचे सड़क पर ही चहलकदमी कर आयें पर पहना हुआ कुरता पैजामा  धुल धुल कर छीज़ गया था । रंग भी मटमैला पड़ गया था। उन्हें उठ कर कुरता बदलने में आलस हुआ और कुरता बदलें भी क्यूँ , सिर्फ निरुद्देश्य भटकने के लिए । अब कोई उत्साह भी तो नहीं रह गया । पर एक समय था जब हर वक्त कलफ लगे झक्क सफ़ेद कुरते पैजामे में रहते थे। व्यस्तता भी तो कितनी थी। हर वक़्त किसी न किसी का आना-जाना लगा रहता था। कितनी योजनायें बनाने होती थीं । कितना हिसाब-किताब करना होता था। अब तो काम ही नहीं रह गया, वरना उनके जैसा कर्मठ व्यक्ति अभी यूँ खाली बैठा होता..

छात्र जीवन से ही वे एक मेधावी छात्र रहे। उनकी प्रतिभा देख रिश्तेदार,स्कूल के अध्यापक सब कहते कि वे एक बड़े अफसर बनेंगे। पर रत्नेश शर्मा की अलग ही धुन थी। उनके कस्बे में कोई स्कूल नहीं था। वे चार मील साइकिल चलाकर स्कूल जाते । गर्मी में स्कूल से लौटते वक्त दोपहर को भयंकर लू चलती ।सर पर तपता सूरज और नीचे गरम धरती । पसीने से तरबतर हो वे तेजी से पैडल मारते जाते। जाड़े के दिनों में सुबह स्कूल जाते वक्त ठंढी हवा तीर की तरह काटती । कानों पर कसकर मफलर लपेटा होता, पैरों में मोज़े पहने होते फिर भी ठिठुरते पैर साइकिल पर पैडल मारने में आनाकानी करते ।

वे हमेशा सोचते काश उनके कस्बे में ही स्कूल होता तो उन सबको उतनी तकलीफ नहीं उठानी पड़ती। स्कूल के इतनी दूर होने की वजह से कई लड़के अनपढ़ ही रह गए । बहुत से माता-पिता अपने बच्चों उतनी दूर भेजना गवारा नहीं करते थे। कुछ बच्चे ही शैतान थे । वे घर से तो निकलते स्कूल जाने के नाम पर लेकिन बीच में पड़ने वाले बगीचे में ही खेलते रहते और शाम को घर वापस । दो तीन महीने बाद उनके माता-पिता को बच्चों की कारस्तानी पता चल जाती और फिर वे उन्हें किसी काम धंधे में लगा देते और स्कूल भेजना बंद कर देते। लड़कियों को तो माता-पिता स्कूल भेजते ही नहीं थे। जिन्हें पढने में रूचि होती वे अपने भाइयों की सहायता से ही अक्षर ज्ञान प्राप्त कर लेतीं और अपना नाम लिखना और चिट्ठी पत्री लिखना-पढना सीख जातीं। बस इतना ही उनके लिए काफी समझा जाता और उन्हें घर के काम काज,खाना बनाना,सिलाई-कढाई यही सब सिखाया जाता।

रत्नेश शर्मा के मन में स्कूल के दिनों से ही एक सपना पलने लगा कि वे अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने कस्बे में स्कूल खोलेंगे और वहाँ के बच्चों को शिक्षा प्रदान करेंगे। स्कूली शिक्षा के बाद उन्हें, उनके पिताजी ने शहर के कॉलेज में पढने के लिए भेजा। उनके साथ के सारे लड़के कॉलेज के बाद कोई नौकरी करने और फिर शादी करके शहर में ही बस जाने का सपना देखते । वे अपने कस्बे में वापस लौटने की सोचते भी नहीं। पर रत्नेश शर्मा का सपना बिलकुल अलग था .शुरू में उन्होंने अपने मित्रों से अपने मन की बात बतायी भी तो उनका मजाक उड़ाया जाने लगा। फिर उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा। जब बी.ए. करने के बाद उन्होंने घर पर यह बात बतायी तो पिता बहुत निराश हुए। लेकिन रत्नेश शर्मा जब अपने विचारों पर दृढ रहे तो पिता ने भी उनका साथ दिया। उनका पुश्तैनी मकान बहुत बड़ा था और उतने बड़े मकान में बस रत्नेश शर्मा का ही परिवार रहता था। उनके चाचा शहर में नौकरी करते थे और वही मकान बना कर बस गए थे। उनकी एक बहन की शादी हो चुकी थी और इतने बड़े मकान में बस तीन प्राणी थे। मकान के एक हिस्से में उन्होंने स्कूल खोलने का निर्णय लिया।

जब कस्बे के लोगों ने उनका ये विचार सुना तो बहुत खुश हुए और सबने यथायोग्य अपना सहयोग दिया। तब जमान ही ऐसा था । पूरा क़स्बा एक परिवार की तरह था। किसी की बेटी की शादी हो , सब लोग मदद के लिए आ जाते। मिल जुल कर काम बाँट लेते। स्कूल के लिए भी कुछ ने मिलकर कुर्सियों और बेंचों का इंतजाम कर दिया। कुछ ने ब्लैकबोर्ड लगवा दिए। कुछ ने पेंटिंग करवा दी। अपने साथ ही एक दो मित्रों को उन्होंने स्कूल में पढ़ाने के लिए राजी कर लिया और इस तरह स्कूल की शुरुआत हो गयी। शुरू में तो बहुत कम बच्चे आये, पर धीरे धीरे रत्नेश शर्मा और उनके मित्रों की मेहनत रंग लाई। लगन से पढ़ाने पर उनके स्कूल के बच्चों का रिजल्ट बहुत अच्छा होने लगा और धीरे धीरे बच्चों की संख्या में बढ़ती गयी। लडकियाँ भी पढ़ने आने लगीं । आस-पास के कस्बों से भी बच्चे आने लगे । रत्नेश शर्मा सुबह से स्कूल की देखभाल में लग जाते और देर रात तक सिलेबस बनाते,बच्चों की प्रगति का लेखा-जोखा तैयार करते। पास के शहर से सामान्य ज्ञान की किताबें लाते। पढ़ाई को किस तरह रोचक बनाया जाए,इस जुगत में वे लगे होते।

चार साल निकल गए और इस बार दसवीं में इस स्कूल के आठ बच्चे थे।  बच्चों से ज्यादा रत्नेश शर्मा को परीक्षाफल की चिंता थी। जब रिजल्ट निकला तो आठों बच्चों को फर्स्ट डिविज़न मिला था और दो बच्चे मेरिट में भी आये थे ।  इस स्कूल के नाम का डंका दूर दूर तक बजने लगा. रत्नेश शर्मा का आत्मविश्वास और बढ़ा। स्कूल को अनुदान मिलने लगा। पास की जगह में नए कक्षाओं का निर्माण हुआ। बहुत से नए शिक्षक भी इस स्कूल में पढ़ाने को इच्छुक हुए। अब इस स्कूल के बच्चे आगे चलकर इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई करने लगे। जब उनका मेडिकल और इंजीनियरिंग में चयन हो जाता तो वे अपन पुराने स्कूल को नहीं भूलते और स्कूल में मिठाई का डब्बा लेकर जरूर आते। रत्नेश शर्मा की आँखें नम हो जाती,मन गदगद हो जाता और अपने छात्रों की सफलता पर सीना गर्व से फूल जाता ।

रत्नेश शर्मा की शादी हो गयी और नीलिमा उनकी जीवनसंगिनी बन कर आयीं। नीलिमा का गला बहुत मधुर था और वे चित्रकला में भी प्रवीण थीं। वे खुद बड़ी रूचि से स्कूल में संगीत और चित्रकला सिखातीं। समय के साथ वे जुड़वां बच्चों के माता-पिता भी बने। बेटे का नाम रखा राहुल और बेटी का रोहिणी।
स्कूल दिनोदिन प्रगति कर रहा था ।बीतते समय के साथ उनके कस्बे में अब नए नए दफ्तर और बैंक खुलने लगे थे। शांत कस्बे में अब भीड़-भाड़ होने लगी। जहाँ इक्का दुक्का कार हुआ करती थी वहीं अब ट्रैफिक जाम होने लगा। कस्बा शहर का रूप लेने लगा। गर्मी की छुट्टियां चल रही थीं और वे स्कूल के अगले सत्र का सिलेबस बनाने में जुटे हुए थे। उनके कानों में उड़ती हुई खबर पड़ी कि पास के शहर के एक बड़े अंग्रेजी स्कूल की एक शाखा उनके कस्बे में भी खुलने वाली है। उन्हें ख़ुशी हुई कि अच्छा है। उनके स्कूल पर बहुत ज्यादा भार पड़ रहा था ।कुछ बच्चे उस स्कूल में चले जायेंगे। पर जब गर्मी की छुट्टियों के बाद स्कूल खुला तो उन्होंने पाया,उनके स्कूल के आधे बच्चे उस अंग्रेजी स्कूल में चले गए। नयी चमकदार बिल्डिंग थी। चमचमाता हुआ स्कूल। लोग इसी चमक-दमक के प्रलोभन में आ गए थे, पर उन्होंने ज्यादा फ़िक्र नहीं की । उन्हें यकीन था कि वे बहुत लगन से पढ़ाते हैं और उनके स्कूल का बोर्ड रिजल्ट भी अच्छा होता है। बच्चे मन से पढेंगे।

पर धीरे धीरे उनकी आशा निराशा में बदलती गयी। हर साल स्कूल के कुछ बच्चे उस स्कूल में चले जाते और उनके स्कूल में नए एडमिशन कम होने लगे । एक दिन तो राहुल भी जिद करने लगा कि मोहल्ले के सारे दोस्त अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं,वो भी वहीँ पढ़ेगा,अंग्रेजी में बोलना सीखेगा।  एक दिन उन्होंने बहाने से आस-पास रहने वाले और उस स्कूल में पढने वाले बच्चों को बुलाकर उनका टेस्ट लिया तो पाया कि बस ऊपरी चमक दमक ही है। बच्चों का मैथ्स और अंग्रेजी का व्याकरण बहुत ही कमजोर है। उस स्कूल का दसवीं का रिजल्ट भी अच्छा नहीं आया फिर भी लोगों को ज्यादा परवाह नहीं थी। बच्चा अंग्रेजी के दो-चार शब्द बोल रहा है, कड़क यूनिफॉर्म में बस में बैठकर स्कूल जाता है , यही देख लोग संतुष्ट हो जाते। खूब धूमधाम से वार्षिक प्रोग्राम मनाया जाता। लोग बताते , एक महीने से स्कूल में पढ़ाई नहीं वार्षिक प्रोग्राम की ही तैयारी चल रही है। शानदार स्टेज बनवाया जाता , किराए पर कॉस्टयूम ,नृत्य-गीत सिखाने वाले बुलाये जाते। खूब रौनक होती । जबकि उनके स्कूल में तो प्रांगण में ही उन्होंने एक सीमेंट का चबूतरा बनवा रखा था, जिसका स्टेज के रूप में प्रयोग किया  जाता। सारी तैयारी शिक्षक और बच्चे ही मिल कर करते। कपड़े भी बच्चे अपने घर से या आस-पड़ोस से मांग कर पहनते। नीलिमा की निगरानी में सारी तैयारी होती। रामायण के अंश , हरिश्चंद्र ,बालक ध्रुव की कथा का मंचन किया जाता । इतने छोटे बच्चों की अभिनय कला देख वे अभिभूत हो जाते । रंग बिरंगी साड़ियों का लहंगा पहन छोटी छोटी बच्चियाँ जब लोक नृत्य करतीं तो समाँ बँध जाता । पर उन्होंने सुना कि उस अंग्रेजी स्कूल में फ़िल्मी संगीत पर तेज नृत्य किये जाते हैं और आजकल के बच्चों को वही अच्छा लगता । राहुल अपने दोस्तों से सीख कभी कभी नीलिमा और रोहिणी के सामने वो डांस करके दिखाता । वे हँसी से लोट पोट होती रहतीं पर अगर उनकी आहट भी मिल जाती तो सब चुप हो जाते और राहुल वहाँ से चला जाता। वह अब कम से कम उनके सामने आता। उन्हें अपना बेटा ही खोता हुआ नज़र आ रहा था, पर वे दिल को तसल्ली देते कि उनका एक ही बेटा नहीं है। स्कूल के सारे छात्र उनके बच्चे हैं, उन्हें सबकी चिंता करनी है।

राहुल के अन्दर आक्रोश भरने लगा था और इसे व्यक्त करने का जरिया उसने अपनी पढ़ाई को बनाया। वह अपनी पढ़ाई के प्रति लापरवाह होने लगा।  रत्नेश स्कूल के काम में इतने उलझे होते कि नीलिमा के बार बार कहने पर भी राहुल पर विशेष ध्यान नहीं दे पाए। वहीं बिटिया रोहिणी बिना शिकायत किये उनके स्कूल में ही बहुत मन से पढ़ती। वे नीलिमा से कह देते , “रोहिणी भी तो राहुल की क्लास में ही है, उसे भी कहाँ पढ़ा पाता हूँ पर वो कितने अच्छे अंक लाती है।” नीलिमा कहती, “सब बच्चे अलग होते हैं ,उन पर अलग तरीके से ध्यान देने की जरूरत है।” पर स्कूल की चिंता में उलझे वे इस बात की गंभीरता को नहीं समझ पाए। रोहिणी दसवीं में भी मेरिट में आयी और राहुल सेकेण्ड डिविज़न से पास हुआ . अब शहर जाकर कॉलेज में एडमिशन कराना था । उनका बहुत मन था , दोनों बच्चों को होस्टल में रख कर पढ़ाएं ,पर अब पैसों की कमी बहुत खलने लगी थी । वे अपने वेतन का बड़ा हिस्सा भी स्कूल की जरूरतें पूरी करने में खर्च कर देते। नीलिमा उनकी मजबूरी समझती थी। उसने रोहिणी को शहर में रहने वाली अपनी बहन के पास भेजकर पढ़ाने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने बहुत बेमन से हामी भरी। रोहन को कम से कम खर्चे में हॉस्टल में रह कर पढ़ाने का इंतजाम किया। उस पूरी रात वे सो नहीं पाए । अपने बच्चों के लिए वे उच्च शिक्षा और जरूरी सुविधाएं भी नहीं जुटा पा रहे हैं । वर्षों पहले लिया गया उनका निर्णय क्या गलत था ? उन्होंने भी नौकरी की होती तो आज ऊँचे पद पर होते और अच्छे पैसे कमा रहे होते। फिर उन्होंने सर झटक दिया , वे इतना स्वार्थी बन कर कैसे सोच सकते हैं ? इस स्कूल के माध्यम से कितने ही बच्चों को शिक्षा मिली, उनका जीवन संवर गया। अपने बच्चों के लिए विलासिता की कुछ वस्तुएं नहीं जुटा सके तो इसका अफ़सोस नहीं करना चाहिए ।

वक़्त गुजरता गया । उनका मन था रोहिणी भी पढ़ लिख कर आत्मनिर्भर हो जाए तभी उसकी शादी करें । वो पढने में तेज थी ।कम्पीटीशन पास कर बड़ी अफसर बन सकती थी , पर फिर उनकी मजबूरी आड़े आ गयी। बी ए. के बाद राहुल ने दिल्ली जाकर पढने की इच्छा व्यक्त की और उन्हें उसे वहां भेजने के लिए पैसे का इंतजाम करना पड़ा। रोहिणी ने विश्वास दिलाया,उसके पास किताबें हैं। वो घर पर रहकर ही तैयारी करेगी। अचानक इसी बीच उनके एक पुराने मित्र ने अपने बेटे के लिए बिना किसी दान दहेज़ के रोहिणी का हाथ मांग लिया । नीलिमा ने उन्हें बहुत समझाया कि हमारे पास पैसे नहीं हैं और बिना पैसे के ही इतना अच्छा घर वर मिल रहा है। आपके मित्र हैं , बिटिया शादी के बाद भी पढ़ लेगी। रोहिणी ने भी निराश नहीं किया। अफसर तो नहीं बन पाई पर बी.एड की पढाई की और फिर शिक्षिका बन गयी। राहुल भी किसी प्राइवेट कम्पनी में है। अपने खर्च के पैसे निकाल लेता है । घर बहुत कम आता है, आता भी है तो उनसे दूर दूर ही रहता है। नीलिमा से ही उसके हाल चाल मिलते हैं।

धीरे धीरे उनके स्कूल में बच्चे बहुत ही कम हो गए। कुछ गरीब घर के बच्चे जो अंग्रेजी स्कूल की फीस नहीं दे सकते थे, बस वही आते। उनके स्कूल के शिक्षक भी ज्यादा वेतन पर उस अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने चले गए । बच्चे कम होते गए। फीस के रूप में होने वाली आय कम होती गयी। मरम्मत न होने से स्कूल की हालत भी खस्ता होती गयी। अब पहले वाली रौनक भी नहीं रही। अपनी आँखों के सामने अपने सपनों को परवान चढ़ते और फिर यूँ धीरे धीरे बिखरते देख,रत्नेश शर्मा का ह्रदय रो देता। ऐसे ही बुझे मन से बैठे थे कि दरवाजे के सामने एक कार रुकी। उन्हें लगा कोई किसी का पता पूछ्ने आया है , वरना उनके यहाँ कौन आएगा। एक सज्जन अपने एक छोटे से बेटे के साथ उतरे और उनके घर की तरफ ही बढ़ने लगे। रत्नेश शर्मा उठकर कर खड़े हो गए । वे सज्जन उनके पैरों तक झुक आये और अपने बेटे से बोले -- “मास्टर जी को प्रणाम करो बेटा। आज जो कुछ भी हूँ इनकी पढ़ाई की वजह से ही हूँ।" फिर उनसे मुख़ातिब हुए-- "आपने पहचाना नहीं मास्टर साब। मैं जितेन हूँ। मेडिकल करने के बाद विदेश चला गया था। अब अपने देश लौटा तो सबसे पहले आपकी चरणधूलि लेने चला आया। मैंने अपने बेटे को आपके बारे में बहुत कुछ बताया है। कितनी मेहनत से आप पढ़ाते थे। शाम को अचानक हमारे घर आ जाया करते थे, ये देखने कि हमलोग घर पर पढ़ रहे हैं या नहीं।"
रत्नेश शर्मा की आँखें धुंधली हो आयीं । मेहनत कभी व्यर्थ नहीं जाती। उनका खोया आत्मविश्वास फिर से जागने लगा । वे दुगुने जोश से भर गए। जितने बच्चे हैं उनके स्कूल में, उन्हें मन से पढ़ाएंगे। किसी की ज़िन्दगी बना पायें इससे ज्यादा और चाहिए ही क्या उन्हें।

रचनाकार- रश्मि रविजा

सिनारिओ : शेखर जोशी

  कहानी सिनारिओ : शेखर जोशी     अपना सफरी थैला , स्लीपिंग बैग और फोटोग्राफी का भरपूर सामान लेकर जब वह गाँव पहुँचा , सूर्यास्त का समय...